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बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

क्या हाऊस वाईफ का कोई अस्तित्व नहीं ?

क्या हाऊस वाईफ  का कोई अस्तित्व नहीं ?
क्या उसे financial decision लेने का कोई अधिकार नहीं ?
क्या   हाऊस वाईफ सिर्फ बच्चे पैदा  करने और घर सँभालने के लिए होती हैं ?
क्या हाऊस वाईफ का परिवार , समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य हैं ?
यदि नहीं हैं तो
क्यों ये आजकल के लाइफ insurance , बैंक या mutual fund आदि से फ़ोन पर पूछा  जाता हैं कि आप हाऊस वाईफ हैं या वर्किंग  ?
financial decision तो सर लेते होंगे ?
इस तरह के प्रश्न करके ये लोग  हाऊस वाईफ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं कर रहे ?

क्यों आज ये पढ़े लिखे होकर भी ऐसी अनपढ़ों जैसी बात पूछी जाती हैं और सबसे मज़ेदार बात ये कि पूछने वाली भी महिला होती हैं .
क्यूँ उसे पूछते वक्त इतनी शर्म नहीं आती कि महिलाएं वर्किंग हों या हाऊस वाईफ उनका योगदान देश के विकास में एक पुरुष से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं . जबकि  आज सरकार ने भी घरेलू  महिलाओं के योगदान को सकल घरेलू  उत्पाद में शामिल करने का निर्णय लिया हैं .................अपने त्याग और बलिदान से , प्रेम और सहयोग से हाऊस वाईफ इतना बड़ा योगदान करती हैं ये बात ये पढ़े लिखे अनपढ़ क्यूँ नहीं समझ पाते ?

आज एक स्वस्थ और खुशहाल समाज इन्ही हाऊस वाईफ की देन हैं यदि ये भी एक ही राह पर निकल पड़ें तो पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करने में कोई कमी नहीं रहेगी और उसका खामियाजा वो चुका रहे हैं तभी वो भी हम पूरब वालों की तरफ देख रहे हैं और हमारे रास्तों का अनुसरण कर रहे हैं . आज बच्चों की परवरिश और घर की देखभाल करके जो हाऊस वाईफ अपना योगदान दे रही हैं वो किसी भी वर्किंग वूमैन से काम नहीं हैं ---------क्या ये इतनी सी बात भी इन लोगों को समझ नहीं आती ?

इस पर भी कुछ लोगों को ये नागवार गुजरता है और वो उनके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं ..........पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक इकाई की तरह होते हैं फिर सिर्फ आर्थिक निर्णय लेने की स्थिति में एक को ही महत्त्व क्यूँ? क्या सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो कमाता है ? ऐसा कई बार होता है कि कोई मुश्किल आये और पति न हो तो क्या पत्नी उसके इंतज़ार में आर्थिक निर्णय न ले ? या फिर पत्नी की हैसियत घर की चारदीवारी तक ही बंद है जबकि हम देखते हैं कि कितने ही घरों में आज और पहले भी आर्थिक निर्णय महिलाएं ही लेती हैं........पति तो बस पैसा कमाकर लाते हैं और उनके हाथ में रख देते हैं ..........उसके बाद वो जाने कैसे पैसे का इस्तेमाल करना है ..........जब पति पत्नी को एक दूसरे पर इतना भरोसा होता है तो फिर ये कौन होते हैं एक स्वच्छ और मजबूत रिश्ते में दरार डालने वाले.............ये कुछ लोगों की मानसिकता क्या दर्शा रही है कि हम आज भी उस युग में जी रहे हैं जहाँ पत्नी सिर्फ प्रयोग की वस्तु थी ............मानती हूँ आज भी काफी हद तक औरतों की ज़िन्दगी में बदलाव नहीं आया है तो उसके लिए सिर्फ हाउस वाइफ  के लिए ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा जबकि कितनी ही वोर्किंग वुमैन  भी आज भी निर्णय नहीं ले पातीं ...........उन्हें सिर्फ कमाने की इजाजत होती है मगर खर्च करने या आर्थिक निर्णय लेने की नहीं तो फिर क्या अंतर रह गया दोनों की स्थिति में ? फिर ऐसा प्रश्न पूछना कहाँ तक जायज है कि निर्णय कौन लेता है ? और ऐसा प्रश्न क्या घरेलू महिलाओं के अस्तित्व और उनके मन सम्मान पर गहरा प्रहार नहीं है ?


 ऐसी कम्पनियों पर लगाम नहीं लगाया जाना चाहिए ..........उन्हें इससे क्या मतलब निर्णय कौन लेता है .........वो तो सिर्फ अपना प्रयोजन बताएं बाकि हर घर की बात अलग होती है कि कौन निर्णय ले ...........ये उनकी समस्या है चाहे मिलकर लें या अकेले........उन्हें तो इससे फर्क नहीं पड़ेगा न ........फिर क्यूँ ऐसे प्रश्न पूछकर घरेलू महिलाओं के अस्तित्व को ही सूली पर लटकाते हैं ?


क्या आप भी ऐसा सोचते हैं कि -----------

घरेलू महिलाएं निर्णय लेने में सक्षम नहीं होतीं?
उन्हें अपने घर में दायरे तक ही सीमित रहना चाहिए?
आर्थिक निर्णय लेना उनके बूते की बात नहीं है ?
जो ये कम्पनियाँ कर रही हैं सही कर रही हैं?

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

क्या होती है माँ

माँ की महिमा अनंत है कितना ही कह लो हमेशा अधूरी ही रहेगी ...........क्या माँ के प्यार को शब्दों में बांधा जा सकता है ? उसके समर्पण का मोल चुकाया जा सकता है ? जैसे ईश्वर को पाना आसान नहीं उसी तरह माँ के प्यार की थाह पाना आसान नहीं क्यूँकि माँ इश्वर का ही तो प्रतिरूप है फिर कैसे थाह पाओगे? कैसे उसका क़र्ज़ चुकाओगे? 

माँ के प्रति सिर्फ फ़र्ज़ निभाए जाते हैं , क़र्ज़ नहीं चुकाए जा सकते . माँ के भावों को समझा जाता है उसके त्याग का मोल नहीं लगाया जा सकता ...........उसको उसी तरह उम्र के एक पड़ाव पर सहेजा जाता है जैसे वो तुम्हें संभालती थी जब तुम कुछ नहीं कर सकते थे ...........जानते हो जैसे एक बच्चा अपनी उपस्थिति का अहसास कराता है .........कभी हँसकर , कभी रोकर , कभी चिल्ला कर , कभी किलकारी मारकर......... उसी तरह उम्र के एक पड़ाव पर माँ भी आ जाती है जब वो अकेले कमरे में गुमसुम पड़ी रहती है और कभी -कभी अपने से बातें करते हुए तो कभी हूँ , हाँ करते हुए तो कभी हिचकी लेते तो कभी खांसते हुए अपने होने का अहसास कराती है और चाहती है उस वक्त तुम रुक कर उससे उसका हाल पूछो , दो शब्द उससे बोलो कुछ पल उसके साथ गुजारो जैसे वो गुजारा करती थी और तुम्हारी किलकारी पर , तुम्हारी आवाज़ पर दौड़ी आया करती थी और तुम्हें गोद में उठाकर पुचकारा करती थी , तुमसे बतियाती थी ........ऐसे ही तुम भी उससे कुछ पल बतियाओ , उसकी सुनो चाहे पहले कितनी ही बार उन बातों को तुम सुन चुके होते हो पर उसे तो याद नहीं रहता  ना तो क्या हुआ एक बार और सही .........उसने भी तो तुम्हारे एक ही शब्द को कितनी बार सुना होगा , जब समझ नहीं आता होगा मगर तब भी उस शब्द में तुम्हारी भाषा समझने की कोशिश करती होगी ना ............वैसे ही क्या तुम नहीं सुन सकते ? क्या कुछ पल का इन छोटे छोटे लम्हों में उसे सुकून नहीं दे सकते ? बताओ क्या तुम ऐसा कर पाओगे ? नहीं , तुम ऐसा कभी नहीं कर पाओगे. तुम्हारे पास वक्त ही कहाँ है ? तुम तो यही उम्मीद करते हो कि इतनी उम्र हो गयी माँ की मगर अक्ल नहीं है कब क्या कहना है .........ज़रा सी बात पर ही  दुत्कार दोगे ...........बहुत मुश्किल है माँ होना और बहुत आसान है बेटा बनना ...............ये तो एक बानगी भर है उसने तो अपनी ज़िन्दगी दी है तुम्हें ...........अपने लहू से सींचा है ..........क्या कभी भी कोई भी बेटा या बेटी इसका मोल चुका सकते हैं ?  क्या कभी भी मातृॠण  से उॠण  हो सकते हैं ? ये तो सिर्फ अपना फ़र्ज़ भी ढंग से निभा लें और माँ को प्यार से दो रोटी दे दें दो मीठे बोल बोल दें और थोडा सा ध्यान दे दें तो ही गनीमत है .............इतना करने में भी ना जाने कितने अहसान उस बूढी काया पर डाल दिए जायेंगे और वो अकेली बैठी दीवारों से बतियाएगी मगर अपना दुःख किसी से ना कह पाएगी आखिर माँ है ना ........कैसे अपने ही बच्चों के खिलाफ बोले ................हर दर्द पी जायेगी और ख़ामोशी से सफ़र तय कर जायेगी ..........जाते जाते भी दुआएँ दे जायेगी .........बस यही होती है माँ ..........जिसके लिए शब्द भी खामोश हो जाएँ .

वक्त की सलीब पर लटकी
एक अधूरी ख्वाहिश है माँ
बच्चे के सुख की चाह में पिघली
एक जलती शमा है माँ
ज़िन्दगी के नक्कारखाने में
बेआवाज़ खामोश पड़ी है माँ
वक्त पर काम आती है  माँ
मगर वैसे बेजरूरत है माँ
घर के आलीशान सामान में
कबाड़ख़ाने का दाग है माँ
सांसों संग ना महकती है माँ
अब तो उम्र भर दहकती है माँ 
जब किसी काम ना आये
तो उम्र भर का बोझ है माँ
वक्त की सलीब पर लटकी
एक अधूरी ख्वाहिश है माँ

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

आम के पेड़ पर बौर आने लगे
कोयलिया भी गुनगुनाने लगी
कलियाँ भी खिलखिलाने लगीं
पुष्पों पर वासंतिक रंग छाने लगे
दिल में उमंगों के गीत आने लगे
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

कालिंदी भी लहराने लगी
प्रेम मयूर ह्रदय आँगन में
मदमस्त हो नृत्याने लगा
कुञ्ज गलियाँ भी बुलाने लगीं
मुरलिया भी प्रेम धुन गाने लगी
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
अब तो प्रेम रस सब बहाने लगे
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

प्रेम चुनरिया धानी कर दो
प्रेम रस में मुझको पग दो
आनंद सिन्धु आनंद बरसा दो
महारास में शामिल कर लो
प्रीत की रीत निराली कर दो
प्रेम रंग वासंतिक कर दो
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

अनूठा परिवर्तन्………क्या आप भी ऐसा सोचते हैं?

आज एक सोच ने जन्म लिया है यार , पता नहीं तू या दुनिया उसे कैसे ले मगर सोचता हूँ कि काश ऐसा हो सके तो आधे से ज्यादा परिवार सुख शांति का जीवन बसर कर सकें ........कहते कहते राकेश  सोच में डूब गया .

अरे ऐसी कौन सी सोच ने तुझे जादू की पुडिया थमा दी कि तू दुनिया की मुश्किलात का हल ढूँढने लगा ...........बोल ना राकेश ..........अबे साइंटिस्ट कहाँ खो गया , अब कुछ बोल भी , कहते हुए विनीत राकेश को देखने लगा .

हलकी सी मुस्कान बिखेरता हुआ , आँखों में गहराई लिए राकेश बोला ,देख विनीत , आधे से ज्यादा रिश्ते आपस में आई दूरी की वजह से टूट जाते हैं खास तौर से पति पत्नी का रिश्ता ...........दोनों एक उम्र तक तो एक दूसरे को झेल लेते हैं मगर उसके बाद जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब दोनों में एक ठंडापन सा आने लगता है , एक दूसरे से कटने लगते हैं , छोटी छोटी बातें   इतना उग्र रूप धारण कर लेती हैं कि परिवार बिखर जाते हैं मगर कोई भी उस मोड़ पर अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता ..........इसे ज़िन्दगी का अहम् बना लेता है और अपने अहम् से कोई नीचे नहीं आना चाहता , एक पल के लिए रुकते हुए राकेश बोला ,"ऐसे में अगर कुछ ऐसा हो जाये जिससे ज़िन्दगी में नयी ऊर्जा का संचार हो जाए तो क्या वो रिश्ते जो इतने सालों से एक दूसरे से बंधे थे , टूटने से बच ना जाएँ .

इतना सुनकर विनीत बोला," बात तो सही है मगर महाराज ये भी बताइए कि कैसे होगा ये सब ? कौन सा जादू का मंतर फेर कर रिश्तों को टूटने से बचाया जा सकता है ."


देख, आज कल ज्यादातर रिश्ते किसी दूसरे के ज़िन्दगी में आने से टूटते हैं , ये तो मानता है ना तू .ज्यादातर मामले ये ही होते हैं . अनैतिक सम्बन्ध भी ज्यादातर एक उम्र के बाद ही पनपते हैं जब रिश्तों में बासीपन महसूस होने लगता है या दोनों अपनी ही दुनिया में मस्त होजाते हैं और दूसरे से अपेक्षा रखते हैं कि वो उन्हें अब तक नहीं समझा तो ऐसे रिश्ते का बोझ क्या ढोना ?तब इंसान दूसरी तरफ , जहाँ उसकी सोच और उसे समझने वाला कोई मिलता है तो उसकी तरफ उसका रुझान बढ़ने लगता है और कब ऐसे रिश्ते मर्यादा की सीमाएं पार कर लेते हैं और फिर अच्छा भला  घर कब टूट जाता है, पता भी नहीं चलता . मगर अपने जीवन साथी से कोई कुछ नहीं कहता कि एक दूसरे से वो क्या चाहते हैं और शायद दोनों में से कोई एक दूसरे से इतने वर्ष साथ रहने का बाद कहने की इच्छा भी नहीं रखता ये सोचकर कि जो अब तक नहीं समझा वो अब कहने पर क्या समझेगा ? और बस आपस में दूरियां बढ़ने लगती हैं और फिर धीरे धीरे जब  किसी का जीवन में प्रवेश होता है तो वो उसे अपना सा लगने लगता है ...........और यहीं घर परिवार टूटने लगता है.


हाँ , आजकल तो यही देखने में ज्यादा आ रहा है वरना तो ज़िन्दगी कभी हँसते तो कभी रोते सभी गुजार ही लेते हैं मगर किसी दूसरे का दखल अपनी शादी शुदा ज़िन्दगी में कोई नहीं चाहता .


तो फिर सोच अगर ये दखल एक सकारात्मक रूप ले ले तो ?


अरे वो कैसे? चौंकता हुआ विनीत बोला .


तब राकेश हँसता हुआ बोला.........देख हम सभी की ज़िन्दगी में ये क्षण आते ही हैं मगर हर कोई उसका डटकर मुकाबला नहीं कर पाता  सिर्फ कुछ दृढ निश्चयी  लोग होते हैं जो इस फेज  से गुजर जाते हैं मगर बाकी की ज़िन्दगी अस्त व्यस्त हो जाती है ............ऐसे में अगर वो इस रिश्ते को सिर्फ एक ऐसे रूप में लें जैसे राधा कृष्ण का था , जैसे वहाँ वासना का कोई स्थान नहीं था मगर रिश्ता इतना गहरा था कि जितना कृष्ण की पत्नियाँ भी कृष्ण को नहीं जानती थीं उतना राधा जानती थी ..........इतना पवित्र , पावन रिश्ता हो और सबसे बड़ी बात ये दोनों को पता भी हो चाहे पति हो चाहे पत्नी , किसी का भी रिश्ता हो मगर पता दोनों को हो कि वो उसे चाहता है या चाहती है मगर उस चाहत में वासना नहीं है सिर्फ एक दूसरे को समझने की शक्ति है जो उनके अहसासों को  समझते हैं , उनकी अनकही बातों को दिशा देने वाला कोई है उनके जीवन में , वो बातें  जो कोई भी पति या पत्नी कई बार एक दूसरे से नहीं कह पाता वो एक अनजान जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर समझता है उससे कह देता है और फिर वो अपने को कितना हल्का महसूस करने लगता है और ज़िन्दगी दुगुने जोश से जीने लगता है क्योंकि सिर्फ एक यही अहसास काफी होता है कई बार जीने के लिए कि कोई है जो उसे उससे ज्यादा समझता है, जिससे वो अपने दिल की उन सब बातों को कह सकता है जो अपने साथी से नहीं कह पाता  ..........इसी से ज़िन्दगी में आशा और उर्जा का संचार होने लगता है और ज़िन्दगी एक नयी करवट लेने लगती है ..........बस सबसे बड़ी बात ये हो कि पति और पत्नी दोनों को एक दूसरे पर इतना विश्वास जरूर हो कि वो इस सम्बन्ध को अपनी मर्यादा से आगे नहीं लाँघेगा .............फिर देखो ज़िन्दगी कितनी हसीन हो जाएगी .............बशर्ते वहाँ भाव प्रधान हों वासना नहीं ...........कहकर राकेश चुप हो गया और विनीत खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, "बेटे , ये दुनिया अभी इतनी बोल्ड नहीं हुई है जिसने आज तक राधा कृष्ण के सम्बन्ध को नहीं स्वीकारा उस पर भी आक्षेप लगाती रहती है उसमे कहाँ ये उम्मीद करता है कि इस बात को स्वीकार करेगी ............अरे ऐसे रिश्ते की आड़ में ना जाने कौन कैसे खेल खेल जाएगा ..........वैसे मैं तेरी बात भी समझ रहा हूँ मगर सिर्फ मेरे समझने से क्या होगा ............शायद तेरा ख्याल समाज को एक नयी दिशा दे मगर इतना बड़ा दिल कहाँ से लायेगा कोई ?जो सुनेगा हंसेगा या पागल कह देगा और वैसे भी कानून में भी इसे मान्यता नहीं मिलेगी ............अभी सोच में इतने बदलाव नहीं आये हैं ........अब मुझे ही देख , यदि तू कहे कि मैं तेरी बीवी को तुझसे ज्यादा जानता हूँ और जो वो महसूस करती है उसका मुझे ज्यादा पता है तो इतना सुनते ही मैं आग बबूला हो जाऊँगा और शायद कोई गलत कदम भी उठा लूं या तुझसे हमेशा के लिए नाता तोड़ लूं ...........मैं ये मानता हूँ कि दूसरे के लिए कहना आसान है मगर व्यावहारिकता में लाना उतना ही मुश्किल ..........जब मैं तेरी बात मानकर भी नहीं मानना चाहता तो सोच ये दुनिया कैसे इसे स्वीकार कर सकती है? कहकर विनीत राकेश का मुँह देखने लगा और राकेश एक गहरी सोच में डूब गया और बोला ............परिवर्तन के लिए एक बार तलवार का दंश खुद ही झेलना पड़ता है , गोली अपने सीने पर ही खानी पड़ती है.........अब देख आज समाज ने कितने परिवर्तन स्वीकार कर ही लिए ना जैसे लिव इन रिलेशन हो या गे , धीरे धीरे सब स्वीकार्य कर ही लेता है समाज क्योंकि सब अपने मन के मालिक है और व्यस्क हैं तो कोई किसी पर उस हद तक दबाब बना ही नहीं पाता  ............बेशक कदम क्रांतिकारी है मगर सबके मन को एक बार सोचने पर मजबूर तो करेगा ही आखिर कौन चाहेगा कि आपसी ठंडेपन के कारण उनकी बसी बसाई  गृहस्थी उजड़ जाए .........कई बार कहा भी जाता है ना कि कुछ दिन एक दूसरे से दूर रहो और फिर महसूस करो कि तुम दोनों के जीवन में  एक दूसरे के लिए कितनी अहमियत है बस उसी अहमियत का अहसास बिना दूर जाये भी बना रहेगा अगर रिश्ते को थोड़ी स्पेस देने लगें हम  और अपने विचारों में थोडा खुलापन ला सकें और एक दूसरे को उसके अंदाज़ में जीने की थोड़ी सी स्वतंत्रता देने लगें मगर मर्यादा में रहकर ही तो देखना दुनिया में ज्यादातर घर कभी टूटें ही ना .........उनके घरोंदे हमेशा आबाद रहें .............सिर्फ ज़रा सा सोच में परिवर्तन करने से और देखना एक दिन आएगा विनीत जब दुनिया इस बात को भी स्वीकारेगी और मुझे उस दिन का इंतज़ार है और देखना , जो सकता है इसकी पहल मुझे  ही करनी पड़े .......कहकर राकेश अपने विचारों की दुनिया में खो गया .

राकेश द्वारा दिया विचार क्या समाज स्वीकार कर पायेगा?
क्या रिश्तों को इस रूप में नयी दिशा दी जा सकती है?
क्या आप अपने जीवन साथी की ज़िन्दगी में किसी और का प्रवेश भावनात्मक स्तर पर स्वीकार कर सकते हैं ?
अपनी गृहस्थी बचाए रखने के लिए ऐसे स्वस्थ परिवर्तन को मान्यता दी जानी चाहिए ........जहाँ साथ रहना आसान भी ना हो और अलग भी नहीं होना चाहते हों उस स्थिति में क्या ये परिवर्तन सुखद नहीं होगा?


आप क्या सोचते हैं?