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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

क्योंकि अगर होती सच्चाई तो देते जवाब जरूर ................


इबारतों के बदलने का समय यूँ ही नहीं आता
एक जूनून से गुजरना पड़ता है इतिहासकारों को
और तुमने मुझे विषय सबसे दुरूह पकड़ा दिया
देखती हूँ
कर जाते हो कानों में सरगोशी सी और
मैं ढूंढती रहती हूँ उसके अर्थ
क्या कहा था
कहीं गलत तो नहीं सुन लिया
क्या चाहा  तुमने
कभी कभी पता ही नहीं चलता
आज भी तुमने कुछ कहा था
तब से बेचैन हूँ
पकड़ना चाह  रही हूँ सिरा
बात प्रेम की थी
तुम्हारे खेल की थी
कैसे भूलभुलैया में डाला है तुमने
मुझसे प्रेम करो
मगर मैं न तुम्हें चाहूँगा
और तुम करो निस्वार्थ प्रेम
वैसे सोचती हूँ कभी कभी
यदि निस्वार्थ प्रेम करना ही है
तो तुमसे ही क्यों
सुना है प्रेम प्रतिकार चाहता है
प्रेमी भी चाहत की परिणति चाहता है
अच्छा बताओ तो ज़रा
कैसा खेला रचाया है तुमने
बस मुझे खोजो
कोई चाहत न रखो
निस्वार्थ चाहो
अब मेरी मर्ज़ी
मैं मिलूँ या नही
दिखूं या नहीं
ये ज्यादती नहीं है क्या
कोई तुमसे करे तो ............
मगर तुमने प्रेम किया ही नहीं कभी
किया होता तो दर्द को जाना होता
और हम मूढ़ हैं न कितने
बिना तुझे देखे तेरे दीवाने हो गए
और अब तुम अपनी चलाते हो
अजब मनमानी है
तुम पर कोई है नहीं न
कान उमेठने के लिए
एक तरफ भुलावे में रखते हो
कर्त्तव्य को ऊंचा बताते हो
दूसरी तरफ कहते हो
मानव मात्र से प्रेम करो
और जब वो प्रेम करता है
तो उसे कहते हो
आपस में प्रेम नहीं
दिव्य प्रेम करो
अरे ये क्या है
है न तुम्हारी दोगली नीति
कैसे संभव हो सकता है ऐसा
जो संस्कार बचपन से पड़े हों
उनसे कैसे छूट सकता है इन्सान
जिसने सदा प्रेम का पाठ  पढ़ा हो
कैसे इन्सान से विमुख हो सकता है
और सिर्फ तुम्हें चाह सकता है
जिसे कभी देखा नहीं
बस सुना है तुम्हारे बारे में
क्या प्रेम खिलवाड़ है तुम्हारे लिए
कि तुम्हें तो बिना देखे करे
और जिनके साथ
बचपन से लेकर एक उम्र तक
तक साथ निभाया हो
उन्हें भूल जाए उनसे प्रेम न करे
और उस पर कहते हो
अब सबसे मुख मोड़ लो
क्या इतना आसान हो सकता है
सब जानते हो तुम
बस हमें ही गोल - गोल
अपनी परिधि में घुमाते हो
लगता है तुमने ऐसा
अपनी सहूलियत के लिए किया है
तभी सामने नहीं आते
बस भरमाते हो
दिव्य प्रेम के नाम पर
क्योंकि सामने आने पर
प्रेम का उत्तर प्रेम से देने पर
घाटे  का सौदा कर लोगे
और रात  दिन सबकी
चाहतों को  पूरा करने में ही लगे रहोगे
आम इन्सान की तरह
और तुम्हें आम इन्सान बनना पसंद नहीं है
तभी खास बने रहते हो
डरते हो तुम
और देखो हमें
कैसे दो नावों की सवारी कराते हो
सोचो ज़रा
दो नावों का सवार कब सागर के पार उतरा है
ये जानते हो तुम
इसलिए अपने मायाजाल में उलझा रखा है
और खुद तमाशा देखते हो
ओ उलझनों के शहंशाह
या तो बात कर
सामने आ
और प्रेम का अर्थ समझा
मगर यूँ कानों में
हवाओं में
सरगोशियाँ मत किया कर
नहीं समझ पाते हम
तेरी कूटनीतिक भाषा
अगर इंसानी प्रेम से ऊंचा तेरा प्रेम है
तो साबित कर
आ उतरकर फिर से धरती पर
और दे प्रेम का प्रतिकार प्रेम से
रहकर दिखा तू भी हमारी तरह
दाल रोटी के चक्कर में फंसकर
और फिर दे प्रेम का उत्तर प्रेम से
और करके दिखा निस्वार्थ प्रेम
गोपी सा प्रेम, राधा सा प्रेम, मीरा सा प्रेम
तब रखियो ये चाहत
कि  प्रेम करो तो निस्वार्थ करो
या दिव्य प्रेम करो
कभी कभी तुम्हारी ये बातें कोरी  भावुकता से भरी काल्पनिक लगती हैं
क्योंकि अगर होती सच्चाई तो देते जवाब जरूर ................

शनिवार, 24 नवंबर 2012

क्या करते हो तुम ऐसों का ?


देखो प्रभु
सुना है तुमने 
दीनों को है तारा
बडे बडे पापियों 
भी है उबारा
जो तुम्हारे पास आया
तुमने उसका हाथ है थामा
और जिसने तुम्हें ध्याया
उसके तो तुम ॠणी बन गये
जन्म जन्मान्तरों के लिये
तुम खुद कहते हो
फिर चाहे गोपियाँ हों या राधा
तुम उनके प्रेमॠण से 
कभी उॠण नही हो सकते
ये तुमने ही कहा है
मगर मेरे जैसी का क्या करते हो

देखो मै तो नही जानती कोई
पूजन, अर्चन, वन्दन
मनन, संकीर्तन
ना ही कोई 
व्रत , उपवास , नियम करम करती
ना दान  पुण्य मे विश्वास रखती
ना दीनों पर दया करती
क्यूँकि खुद से दीन हीन किसी को ना गिनती
तुम्हारे बताये किसी मार्ग पर नहीं चलती
ना सुमिरन होता
ना माला जपती
ना तुम्हें पाने की लालसा रखती
ना तुम्हे बुरा भला कहती
ना ही गुण है कोई मुझमें
और अवगुणों की तो खान हूँ
बेशक अत्याचार नही करती
मगर तुम्हें भी तो नही भजती
ना मीरा बनती ना राधा
ना शबरी सी बेर खिलाती
ना विदुरानी से प्रेम पगे केले खिलाती
ना बलि सा तुम्हें बांधने 
का प्रयत्न करती
ना भाव विभोर होकर
नृत्य करती
ना पीर इतनी ऊँची करती
जो तुझसे ट्करा जाये
ना ही वन वन भटकती
ना कोई तपस्या करती
ना पाँव मे छाले पड्ते
ना जोगन बनती
और गली गली भटकती
ना तुम्हें बुलाती
ना तुम्हारे पास आती
ना तुम्हारा कहा कुछ सुनती
ना ही तुम्हारा कहा मानती
अपनी ही मन मर्ज़ी करती
बताओ तो ज़रा मोहन प्यारे
ऐसों के साथ तुम क्या करते हो?

क्या मिले हैं तुम्हें
मुझे जैसे भी कोई
जो तुमसे कोई 
आस नही रखते
और ना ही तुम्हें भजते 
क्या करते हो तुम ऐसों का
क्योंकि सुना है
जो जैसे भी तुम्हारे पास आया
चाहे प्रेम से
चाहे मैत्री से
चाहे शत्रुता से
चाहे किसी भी भाव से
चाहे तुम्हें सखा बनाया
चाहे पति या पिता
चाहे बालक या माँ
तुमने सबका उद्धार किया
शत्रु भाव रखने वाले को भी
तुमने तार दिया
अपना परम धाम दिया
मगर मै तो ना तुम्हारे 
पास आती हूँ
ना तुमसे कुछ चाहती हूँ
तो बताओ ना मोहन
मुझ जैसों का तुम क्या करते हो?

क्या मुझ जैसों को भी
वो ही गति देते हो
या दे सकते हो
और खुद को सबका 
हितैषी सुह्रद सिद्ध कर सकते हो
वैसे सुना तो नहीं
ना कहीं पढा
कि तुमने बिना कारण 
किसी को तार दिया हो
और मेरी जैसी
अकर्मण्य तुम्हें 
दूसरी नही मिलेगी
जो तुम्हारी सत्ता को ही
चुनौती देती है

हाँ ---आज कहती हूँ 
नही कर सकती
मैं तुम्हारा श्रृंगार
ना है मेरे पास 
आंसुओं की धार
नही कर सकती
अनुनय विनय
क्या फिर भी कर सकते हो
तुम मुझे भवसागर पार
मोहन हो इस प्रश्न का जवाब
तो जरूर देना
मुझे इंतज़ार रहेगा
क्योंकि 
बिना कारण के कार्य नही होता
और मैने ना कोई 
तुम्हारे अनुसार कार्य किया
हो यदि ये चुनौती स्वीकार
तो सिर्फ़ एक बार
तुम जवाब देने जरूर आना
क्योंकि
कोई परीक्षा देने का
मेरा कोई इरादा नहीं है
ना ही तुमसे कोई
वादा लिया है
बस आज तुम्हें ये भी
चैलेंज दिया है
ये भाव यूँ ही नही 
उजागर हुआ है
कोई तो इसका कारण हुआ है
शायद
तभी आज तुम्हारे चमन पर
बिजलियों का पहरा हुआ है
बच सको तो बच जाना …………

शनिवार, 17 नवंबर 2012

अरे मैं कौन ?


अरे मैं  कौन 
सब  उसी  का  है 
सबमे  उसी  का  वास  है 
वो  ही  प्रस्फुटित  होता  है  शब्द  बनकर

अंतर्नाद जब बजता है
सुगम संगीत का प्रवाह 
मन तरंगित करता है 
इसमें भी तो 
वो ही निवास करता है 
हर राग में
हर तरंग में 
हर ध्वनि में 
वो ही तो प्रस्फुटित होता है सरगम बनकर 

प्रणव कहूं या मैं कहूं
उच्चारित तो वो ही होता है 
ना मैं का लोप होता है
ना मैं का अलोप होता है
हर निर्विकार में 
हर साकार में
सिर्फ उसी का आकार होता है 
फिर कैसे ना कहूं 
ब्रह्मनाद के आनंद में
वो ही तो आनंदित होता है आनंद बनकर 

कहो अब 
किसका दर्शन होता है
कौन सा दृश्य होता है
कौन द्रष्टा होता है
सब दृष्टि का विलास होता है
वास्तव में तो 
ब्रह्म में ही ब्रह्म का वास होता है ब्रह्म बनकर .....ज्योतिर्पुंज बनकर 

बुधवार, 14 नवंबर 2012

निर्मोही !मेरा श्याम कितने रंग बदलता है



निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
कभी मीरा बन संवरता है
कभी राधा बन हँसता है
यूँ भी कभी अकडता है
बिन माखन ना पिघलता है
देख तो सखी!
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

पिताम्बरी ओढा करता है
कनेर का फूल लगाया करता है
अधरों पर बांसुरी को
सजाया करता है
अपनी तिरछी चाल से
सबको लुभाया करता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

जन्म जन्म की दासी हूँ
उसके दरस की प्यासी हूँ
ये सब वो जाना करता है
फिर भी छुपा फ़िरता है
विरहाग्नि बढाता है
लुकाछिपी का खेल उसे
बहुत भाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

छलिया छल छल जाता है
फिर भी सबको लुभाता है
बस यही रंग तो उसका भाता है
जो उसकी तरफ़ दिल खिंचा खिंचा जाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

बावरिया बनाया करता है
जोग दिलाया करता है
प्रेम का रोग लगाया करता है
देख तो सखि फिर कैसे
इठलाया फ़िरता है
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है


यही तो अदा निराली है
जिस पर हर गोपी बलि्हारी है
कहने से ना चूकती है
वो सिर्फ़ मेरा है
जबकि जानती है बावरी
वो या तो किसी का नहीं
या फिर सबका है
कैसे कैसे बावरा बना नचाता है
अद्भुत खेल दिखाता है
तभी तो नटवर कहलाता है
देख तो सखि
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

शनिवार, 10 नवंबर 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना ……3


ये तीसरा भाव
उलाहना

सभी गोपियाँ तुझे हैं प्यारी
वंशी की धुन ऐसी बजायी
सारी गोपियाँ दौड़ी आयीं
मेरी बारी श्याम क्यों देर लगायी
कब से तुमसे टेर लगायी
अंखिया मेरी राह तकत हैं
जन्म जन्म से बाट जोहत हैं
फिर क्यूँ ना प्रेम धुन मुझे सुनाई
क्यूँ ना वंशी ने आवाज़ लगायी
मेरी याद ही क्यूँ बिसरायी
माना हूँ मैल की गागर
भक्ति का ना लगाया काजल
फिर भी आस जोह रही हूँ
सुना है तुम हो दया के सागर
दीन हीन पापियों को सदा है तारा
फिर मेरी बार क्यूँ मुँह है मोड़ा
वंशी तुम्हारी सभी को बुलाती
नाम ले लेकर आवाज़ लगाती
क्या मेरा नाम भूल गए हो
या रास्ता अपना पलट गए हो

ना जाने कौन सा शास्त्र लिखवा रहे हो
जो उहापोह में फँसा रहे हो
कभी अमावास का चाँद बन जाते हो
कभी पूनम सा खिल जाते हो
कभी संदेहास्पद बन जाते हो
कभी उत्तरपुस्तिका बन जाते हो
मोहन ना जाने कौन से खेल रच जाते हो
मेरी पीड़ा जो इतनी बढ़ाते हो
अपना आप भी खो बैठती हूँ
तुम्हें ही झिलकारे देती हूँ
फिर भी तुम मुस्काते हो
ना जाने श्याम ये कौन सी लीला दिखाते हो
जब मन बुद्धि चित रूप में
तुम ही व्यापते हो
फिर ये कौन से खेल रचते हो
जो जीव को भ्रमित करते हो
जानती हूँ 
जब सर्वस्व समर्पण किया हो
वहाँ ना किसी चाह का जन्म हुआ हो
फिर भी प्रश्न रूप में
तो कभी संदेह रूप में
आ खड़े होते हो
ये कैसे -कैसे रूप तुम धरते हो
जीव को मायाजाल में उलझाते हो
ये कैसा मिथ्याजाल बिछाते हो
क्या है ये मोहन
कभी लगता है
ये भी तुम्हारी ही चाहत है
जो मेरे मन में उठती है
क्यूँकि बिना तुम्हारी चाह के
ना कोई भावना उठ सकती है
पर दूसरी तरफ तुम ही कहते हो
चाह को प्रबल करो
तभी तुम मिलते हो
मगर मोहन
जिसने अपनी चाह
तुम में मिला दी हो
वो कैसे तुमसे विलग हो
फिर कैसे तुमसे अलग हो
क्यों द्वैत में फंसाते हो
ये भ्रमजाल भ्रमित करता है
जब तुम पूर्ण कहाते हो
तो जिसने स्वयं को समर्पित किया हो
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी हो
उसकी कहो तो कौन सी चाह बची हो
कभी लगता है 
कोई सूक्ष्म चाह बची है
तभी ये मची खलबली है
गर ऐसा कुछ बचा है 
तो उसे भी मिटा देना
मेरा वासना रुपी वस्त्र हर लेना
मगर श्याम तुम मूँह ना मोड़ लेना
स्वयं में मिलाकर
मुझ अपूर्ण को पूर्ण कर देना
देखो मुझसे उम्मीद मत करना
मेरा वश तो यहीं तक चलता है
अब सब तुम्हारी कृपा पर ही 
निर्भर करता है
ना पहले उद्योग किया
ना अब कर सकती हूँ
तुम सब जानते हो
जैसी भी अधम पापिन हूँ
बस तुम्हारी ही हूँ
इसे स्वीकार कर लेना
श्याम इस जीव का भी उद्धार कर देना
तुम्हारा कुछ ना घटेगा
बस एक नाम और तुम्हारे यश में जुड़ेगा
मगर इस जीव का उद्धार हो जायेगा
इसका भी बेडा पार हो जायेगा

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……2

वो तो हुआ एक भाव ………अब दूजे भाव का है क्या कोई जवाब



प्रश्नोत्तरी ------पुकार

 मेरी बेबसी पर 
अट्टहास करते हो
या तुम भी 
मेरी तरह दुखी होते हो
इम्तिहान लेते हो
या इम्तिहान स्वयं देते हो
मुझे अपराधी ठहराते हो
या स्वयं कटघरे में खड़े होते हो
कभी- कभी समझ नहीं आता
कौन सा न्यारा खेल खेलते हो

मेरी दशा से तुम अन्जान नहीं
तुम्हारी दशा की मुझे पहचान नहीं 
ये भटकाव है या ठहराव
अरे तुम हो कारण
और मैं तुम्हारा कार्य
फिर कहाँ रहा भेद
कहो कैसे हो निवारण
जब तुम में और मुझमे भेद नहीं
फिर कौन किस पर अट्टहास करे
तुम्हारा रचाया खेल
तुम ही इसके सूत्रधार
बताओ फिर कौन और करे उद्धार
तुम ही कारण तुम ही निवारण
तुम ही फूल तुम ही सुगंध
तुम ही बीज तुम ही वृक्ष
तुम ही दृश्य तुम ही दृष्टा
फिर बताओ और कौन है सृष्टा 
एक तुम ही तुम व्यापते हो
हर रूप में
हर भाव में 
हर क्रोध में
हर हँसी में
इर्ष्या, द्वेष, अहंकार
क्षमा, दया, तप
कहो तो किस रूप में तुम नहीं
फिर कौन किससे विलग है
मन , बुद्धि , चित
अहंकार सा रूप ना तुम्हारा है
और जब इस मन में
संकल्प - विकल्प उठते हैं
तो वो रूप भी तो तुम्हारा ही तो हुआ ना
तुमने ही तो कहा ना
हर भाव में मैं ही हूँ
सृष्टि का आदि - अनादि कारण भी मैं ही हूँ
तो फिर अच्छा हो या बुरा
सब तुम्हारा ही तो रूप हुआ 
फिर क्यूँ महामायाजाल में उलझाया है
क्यों प्राणी को इसमें फंसाया है
माना ये रूप भी तुम्हारा है
तो क्यों संकल्पों- विकल्पों का 
तूफ़ान मन में उठाया है
ये मन रुपी भंवर में
जीव को क्यों उलझाया है
ओ मोहन मुक्त करो
इन विकल्पों से हमें दूर करो
अपनी मायाजाल को 
तुम ही समेटो
मत लो ऐसे इम्तिहान
जिसने अपने हर शब्द
हर भाव , हर रूप को
हर सोच को 
तुम्हें ही समर्पित किया हो
और यदि कोई 
खेल खेलना ही है तो
उससे भी तुम ही उबारना
मगर इस जीव को बस
द्रष्टा ही बना कर रखना
उसके मन पर माया का
आवरण ना डालना
प्यारे बस इतनी सी अरज सुन लेना
हम जन्म जन्मान्तरों से भटके जीव
बडी मुश्किल से तुम्हारा पता पाये हैं 
अब तुम्हारी शरण में आये हैं
हमारा उद्धार करो
कल्याण करो
या नैया डुबा दो
सबमे तुम्हारा ही गौरव होगा
मगर जीव का तो अंतिम आसरा
सिर्फ तुम्हारे चरण होगा

क्रमश:………



शनिवार, 3 नवंबर 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……1




समर्पण

प्रभु
ना पुकार में दम है
ना मेरी चाहत प्रबल है
पूजन अर्चन वंदन
सबको त्यागा है
क्या करूँ
कोई राह नहीं दिखती
तुम भी नहीं मिलते
तुम तक पुकार भी नहीं पहुँचती
फिर और किससे उम्मीद करूँ
जब तुम ही नहीं मेरे
फिर संसार तो बेगाना है
इसे कैसे अपना मानूँ
कैसे इससे उम्मीद करूँ
तुझे भी नहीं चाह पाती ना
देख चाह होती
तो ह्रदय फट जाता
तेरे लिए विकल हो जाता
मगर चाहत मेरी 
कमजोर रही
दिन रात अब मैं तड़पती हूँ
श्याम तुझ बिन भटकती हूँ
अब कोई अर्ज नहीं करती हूँ
पापी हूँ जान गयी हूँ
तेरे धाम से तभी तो वंचित हूँ
मेरी व्यथा ना कोई जाना
श्याम तू भी ना मन पहचाना
हम तेरी मायाजाल में 
फँसे नराधम
बता कहाँ जाएँ
किसे पुकारें
कौन सुने
अब पीर हमारी
श्याम मैं ना 
बन सकी तेरी राधा प्यारी 
विरह का व्याकरण 
मैं ना जानी
मीरा सा गायन वादन 
नृत्य कर तुझे रिझाना 
मुझे नहीं आया
शबरी सा निर्मल प्रेम 
ना मैंने जाना
शिकवा शिकायत
करना ना आया
ना तू  ना संसार 
मन को भाया
तभी तो ना तू आया
तेरे फैलाये जाल के 
हम फडफडाते पंछी
तड़पते हैं
मगर जाल ना काट पाते हैं
जब तक ना 
तेरी कृपा पाते हैं
कहीं कोई ठौर दिखे
कहीं कोई आस मिले
उम्मीद की कोई किरण तो दिखे
मगर तुम तो 
छुपे फिरते हो
मुझको ना कहीं दीखते हो
हे नाथ 
अधूरी हूँ
अधूरी ही रहूँगी
जान गयी हूँ
पहचान गयी हूँ
तुम्हारे लायक ना बनी हूँ
शिकवा नहीं
शिकायत नहीं
तड़प नहीं 
चाहत नहीं
अब मेरे पास श्याम कुछ भी नहीं
तुम्हारे चक्रव्यूह में फँस गयी हूँ
तुम्हारे बिछाए जाल में उलझ गयी हूँ
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी जबसे
श्याम मेरी वाणी ही मूक हो गयी तबसे
बता अब कैसे पुकारूँ
किसे पुकारूँ
कैसे तुझसे शिकायत करूँ श्याम
अब तुम जानो तुम्हारा काम
जी रही हूँ बस लेकर तेरा नाम 
अब अपना बनाओ या ठुकराओ
फिर संसार जाल में उलझाओ
या अपने चरणों में लगाओ
चित को मेरे चुराओ या
चित मेरा भटकाओ
इसे अपने पांसों में उलझाओ
या जीत की बाजी दोहराओ
गंदगी में डु्बोओ या बंदगी की राह चलाओ 
श्याम अब ये तुम ही जानो
डुबाओ या उबारो
मेरी प्रश्नोत्तरी सुलझाओ 
या स्वयं उत्तर बन 
मेरे जीवन में उतर आओ
जीत करो या हार
सब तुम्हारा तुमको ही 
अर्पण करती हूँ
श्याम सर्वस्व समर्पण करती हूँ
अब तुम्हारी बारी है ......श्याम 
मैं तो ये ज़िन्दगी तेरे नाम पर वारी है