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गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

प्रेम की चरमोत्कर्ष अवस्था

प्रेम तो है ही शांति का प्रतीक और जो प्रेम का महासागर है, जिससे प्रेम उपजता है एक बूँद के रूप में वो कैसे स्वीकार सकता है एक कंकड की भी हलचल या एक लहर की तरह उछाल लेना……सत्यम शिवम सुन्दरम का आकार पाने के लिये , निराकार से एकाकार होने के लिये , हर तरंग का शांत होना जरूरी है तभी संभव है सम्पूर्ण प्रेम को पाना जहाँ कोई जल्दी नहीं , कोई वेग नहीं , कोई प्रवाह नहीं ………होती है तो एक अजस्र धारा सिर्फ़ बहती हुयी और उसमें चाहे जो समाये वो ही हो जाता है ………निर्द्वन्द, निर्विकल्प, निराकार …………प्रेम जिसका कोई आकार नहीं मगर फिर भी होता है साकार………प्रेमी के लिये उसके प्रेम के लिये उसको पूर्णता प्रदान करने के लिये…………प्रेम की गरिमा और  भंगिमा को छूना सबके लिये संभव नहीं …………बस खुदी को मिटाना और निशब्द हो जाना ही तो प्रेम को पाना है …………क्योंकि मौन में ही तो प्रेम भासता है।

प्रेम को खोजन जो प्रेम चला ……बस प्रेम प्रेम प्रेममय हो गया………प्रेम मे होना होता है ………खोजना नहीं …………प्रेम खोजने से परे की विषय वस्तु है…………प्रेम जितना सरल है उतना ही गूढ ………तात्विक विवेचन संभव ही नहीं ………तभी तो प्रेमपंथ सबसे कठिन कहा गया है क्योंकि जिसकी कब चाल बदल जाये पता ही नहीं चलता कभी मीरा बना देता है तो कभी मोहन …………और कभी दर दर का भिखारी एक अपनी ही अलख जगाता ………व्याख्यातित करने चलोगे तो कुछ नहीं मिलेगा वो ही कोरे का कोरा मिलेगा अंत में …………बस एक धुन बजाओ और डूब जाओ बिना जाने उसका उदभव कहाँ है, बिना जाने उसका अंत कहाँ है ………विवेक पर पट्टी बाँध जिसने चोला रंगा है वो ही प्रेम को जाना है और जिसने तार्किक शास्त्र गढा है उसने सिर्फ़ शोध किया है प्रेम नहीं और प्रेम शोध का विषय नहीं…
लेन देन के व्यापार से परे की स्थिति है प्रेम, हर चाह के मिटने की स्थिति का नाम है प्रेम, सर्वस्व समर्पण करने का नाम है प्रेम।जो करने से हो वो प्रेम नहीं ……ये तो स्वत:स्फ़ूर्त अनुभूति है , अजस्र बहती धारा कब किसे कैसे अपने साथ बहा ले जाती है पता नहीं चलता इसलिये कौन प्रेमी और कौन प्रेमास्पद्………हर भेद का मिट जाना ही प्रेम की चरमोत्कर्ष अवस्था है ।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सोचती हूँ क्या दूँ तुम्हें ?

लोक लाज त्याग 
मेरे हठी 
प्रेम ने प्रेम के गले में 
प्रेम की वरमाला डाल 
प्रेम को साक्षी मान 
प्रेम की भाँवरें डाल 
प्रेम को परिपूर्ण किया 
अब विदा होकर 
प्रेम के आँगन में 
पदार्पण कर 
प्रथम मिलन के इंतज़ार में 
सोचती हूँ 
क्या दूँ तुम्हें ?
प्रेम तो कब का 
तुम्हारा हो चुका 
अब तो सिर्फ जाँ बची है 
क्या मुँह दिखाई की रस्म जाँ लेकर ही निभाओगे ...................ओ मोहन !

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

धू धू कर जल रही है चिता मेरी


प्रेम 
जीवन का आधार 
जीने के लिए आवश्यक विषय 
मगर मानव इसी से अंजान 
कभी मुश्किल सवाल सा 
तो कभी इससे आसान कुछ नहीं 
कभी कश्मकश सा 
तो कभी तरंगित करता 
फिर भी जाने क्यूँ रहता अधूरा 
जिसने भी पढ़ा 
कहीं न कहीं कुछ न कुछ छूट ही गया 
चाहे वो इस विषय का 
एक अध्याय हो या एक प्रश्न 
या एक पंक्ति 
कहीं शोध का विषय बना 
कहीं कोई पूरा ही डूब गया 
और कोई तो 
न पूरा डूबा और न पूरा तरा 
बस गोते ही खाता रहा 
कभी असमंजस की नाव पर 
तो कभी पूर्ण विराम पर 
एक तर्कसंगत विषय बना 
कभी सभी तर्कों से परे 
सिर्फ अनुभूति की कसौटी पर ही परखा गया 

मगर मैंने तो सिर्फ सुना ही सुना सब 
मैंने तो सिर्फ पढ़ा ही पढ़ा सब 
कभी अनुभूति की प्रक्रिया से गुजरी ही नहीं 
कभी शोध के लिए आवश्यक 
सामग्री मिली ही नहीं 
और एक अजब सी असमंजस में डूब गयी 
आखिर कैसे होता है देह से परे 
अनुभूति की तरंगों पर आत्मिक प्रेम 
आखिर कैसे कोई कृष्ण किसी राधा के प्रेम में 
हिचकियाँ लेता है 
कैसे कोई कृष्ण प्रेम में इतना डूब जाता है 
कि श्वास श्वास पर सिर्फ राधा राधा ही गुनता है 
आखिर कैसे साज श्रृंगार कर राधा बन जाता है 
आखिर कैसे स्वयं को किसी के लिए 
विस्मृत कर देता है 
आखिर कैसे भाव तरंगों पर 
तादात्म्य हो जाता है 
जो एक पर गुजरती है 
वो दूसरे की  अनुभूति बन जाती है 
कैसे कोई एक इतना प्यारा लगने लगता है 
कि उसके अलावा संसार है 
या इस संसार में कोई और भी है 
वो भूल जाता है 
और प्रेम की आंच पर ही
खाली देग सा धधकता है 
नहीं जान पायी आज तक 
क्यूंकि 
गुजरी ही नहीं ऐसी किसी अनुभूति से 
क्यूंकि 
मिला ही नहीं कोई कृष्ण 
जो  प्रेम में बावरा बन घूम सकता 
यहाँ तो सिर्फ 
स्वार्थमयी ही दिखा सारा संसार 
यहाँ तो सिर्फ 
देह तक ही दिखा हर व्यवहार 
फिर कैसे सम्भव है 
तारों की ओढ़नी ओढ़ अपने चाँद की परिक्रमा करना 
जहाँ सारा आकाश सिर्फ 
देह की कँटीली झाड़ियों में ही उलझा हो 
या फिर स्वार्थ की वेदी पर 
सिर्फ स्व की आहुति दी जाती हो अर्थ के लिए 
वहाँ कैसे सम्भव है 
प्रेम के खगोलशास्त्र का भूगोल दर्शन 


पीर फ़क़ीर दरवेश 
मीरा राधा रुक्मणी 
बस अलंकार से लगते हैं 
जिन्हें सजा दूं किसी पंक्ति में 
और बढ़ा दूं उसका सौंदर्य 
लगता है जैसे 
किंवदंतियाँ हैं जिन्हें 
समयानुसार प्रयोग भर किया जा सकता है 
मगर 
मुझे मुझमें नहीं मिलता 
एक अंश , एक कण , एक क्षण भी प्रेम का 
फिर कैसे मानूँ प्रेम के स्वरुप को 
कैसे स्वीकारूँ प्रेम के रूप को 
कैसे साकार करूँ निराकार को 
जो ना मेरे मन के अरण्य में विचरता है 
ना मेरी अनुभूतियों से गुजरा है 
फिर कैसे जान सकती हूँ कि  
कैसे कोई इकतरफा प्रेम में 
बावरा बन गली गली नृत्य करता है 
और मगन रहता है 
सुख का अनुभव करता है 
प्रियतम न उससे दूर होता है 
मेरे हाथों में तो सूखी रेत है 
और दूर दूर तक कोई सागर नहीं 
जो भिगो सके और करा सके अहसास 
नमी का , भीगने का , डूबने का 
शायद तभी 
अधूरा ही रहता है प्रेमग्रंथ 
शायद तभी 
अधूरे ही रहते हैं प्रेमीयुगल 
क्यूंकि 
खारे पानी से कब किसी की प्यास बुझी है 
क्यूंकि 
कहाँ अनुभूति की प्रक्रिया से हर रूह गुजरी है 
क्यूंकि 
कहाँ कोई निराकार प्रेम की उद्दीप्त तरंगों पर साकार हुआ है 
और जब तक गुजरुँगी नहीं इस प्रक्रिया से 
कैसे मानूँ , कैसे जानूँ , कैसे स्वीकारूँ 
प्रेम के अस्तित्व को 

पागलपन का सुना है दूजा नाम प्रेम ही होता है 
और मुझे लग चुका है ये छूत का रोग 
अब मेरे पागलपन की दवा सिर्फ इतनी भर है 
प्रेम की अनुभूति से गुजरने के लिए एक अदद प्रेमी का होना 

और तभी है जीना सार्थक
और प्रेम का होना सार्थक जब 
तुम जवाब दो मेरे इस प्रश्न का 
क्या बन सकोगे वैसे ही मेरे भी प्रेमी जैसे तुम बने थे राज राजेश्वरी के लिए …………ए कृष्ण !!!

अनुभूति की चाहत के अरण्य में धू धू कर जल रही है चिता मेरी 
और परिक्रमा को मेरी सुलगती रूह के सिवा कुछ भी नहीं ……………