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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

गोपिभाव 1




सुना है
तुम्हें खेलने का बहुत शौक रहा
खेलने आये और खेल कर चल दिए

अब
यहाँ कोई मौसम नहीं ठहरता

हम नहीं जानतीं सच और झूठ
जीवन और मृत्यु
तुम थे तो जिंदा थीं हम
अब तुम नहीं तो
क्या तुम्हें जिंदा दिखती हैं हम ?

न, न , कोई अनुनय विनय नहीं तुमसे
कोई शिकवा शिकायत नहीं तुमसे
सोच में हैं
क्या मज़ा आता है तुम्हें
पहले पुचकार कर
फिर दुत्कार कर

हाँ , हाँ  , दुत्कारना ही तो हुआ न ये भी
जब तुम्हें अपना बना लिया
जब तेरे हम हो लिए
तभी तुमने मुख मोड़ लिए

अब कहाँ जाएँ
जो जिया की जलन मिट जाए
अब कहाँ पायें
जो अंखियों की हसरत पूरी हो जाये

सुनो जानती हैं हम
तुम दूर नहीं हमसे
हम दूर नहीं तुमसे
मगर बताओ तो जरा
वो रास रंग फिर से कहाँ पायें
जो तेरी मुरली की धुन सुन
दौड़ी दौड़ी चली आयें
घर परिवार को भी बिसरा आयें

ए मोहन ! तुम प्रेम निभाना क्या जानो
तुम हिय में उठती अगन क्या जानो
तुम किसी का होना क्या जानो
तुम किसी के लिए मिटना क्या जानो

यहाँ दिन नहीं होते अब 

सूरज नहीं निकलता अब
एक अरसा हुआ
तुम्हारी तरह ही काली अंधियारी रात्रि ने डेरा डाला हुआ है
और
हम जानती हैं
अब इन अंधेरों की कोई सुबह नहीं .....................

तुम तो गए वक्त से गुजर गए
हमारे साँझ सवेरे भी साथ ले गए 

आज शरद की पूनो फिर आई है 
चाँद अपनी पूर्णता पर इठला रहा है 
जो तुम सामने होते तो
रास की मधुर बेला में रास रचा हम भी इठलाते , पूर्णता पा जाते 
और कुछ पल जी जाते ........


अब इसे खेल न कहें तो क्या कहें ........बोलो तो ज़रा !!!