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बुधवार, 27 जुलाई 2011

कृष्ण लीला ………भाग 4

जब प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ
वासुदेव ने लाकर कंस को दिया
शिशु को देख कंस का दिल पसीज गया
ये बालक है मेरा क्या बिगाड़ेगा
मुझे डर तो आठवें से है
ये तो पहला है ,सोच छोड़ दिया
पर कान के कच्चे पर
कोई कैसे करे विश्वास
हरि इच्छा से नारद जी
पहुंचे कंस के पास
एक फूल के माध्यम से
सारा सच समझा दिया
और हर पंखुड़ी को फूल की
आठवां गिना दिया
इतना सुन कंस ने
बालक को बुलवा लिया
और पत्थर पर पटक
बालक का प्राणांत किया
वासुदेव देवकी को
कारागार में डाल दिया

उनके छहों पुत्रों को
इसी तरह मार दिया 
सातवें पुत्र के रूप में
शेषनाग का अवतार थे
जो भगवान के प्रिय भक्त थे
भक्त का अहित भगवान
होने देते नहीं
उसके लिए सृष्टि के
नियम ताक पर रख देते हैं
 सातवाँ गर्भ वासुदेव की
दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में
स्थानांतरित किया
और सारे में ये फ़ैल गया
देवकी के गर्भपात हुआ
इतना सुन कंस खुश हुआ
सोचा मेरे डर से बालक
ने ना जन्म लिया
अब वैकुंठनाथ
जगत मंगल के लिए
गर्भ में आ गए
सब मंगल जग में छा गए
मुख कान्ति देवकी की
चमकने लगी
जिसे देख कंस की नींद
उड़ने लगी
मन ही मन कंस
डरने लगा
हर ओर सोते जागते
कृष्ण का चिंतन करने लगा
हर तरफ उसे 

बाल गोपाल दिखने लगा
वैर से ही सही वो
भगवान का स्मरण करने लगा
कंस ने पहरे कठिन बैठा दिए
सात ताले कोठरियों में लगवा दिए
भगवद जन्म  के समय
देवता सारे आ गए
अदृश्य रूप से स्तुति
प्रभु की करने लगे
प्रभु को पृथ्वी का
भार हरण करने के लिए
जल्द जन्म लेने को कहने लगे
जब से वैकुंठनाथ गर्भ में आये
परमानन्द छाने लगा था
बिन ऋतुओं के भी 

वृक्षों पर फल फूल आने लगे
ग्रह , नक्षत्र , तारे
सौम्य शांत होने लगे
दिशायें स्वच्छ प्रसन्न होने लगीं
तारे आकाश में जगमगाने लगे
घर घर मंत्राचार होने लगे
हवानाग्नी स्वयं प्रज्ज्वलित
 होने लगी
मुनियों के चित्त प्रसन्न होने लगे
रात्रि में सरोवरों में
कमल खिलने लगे
शीतल मंद सुगंध वायु बहने लगी
देवता दुन्दुभी बजाने लगे
गन्धर्व ,किन्नर मधुर स्वर से गाने लगे
अप्सराएं नृत्य करने लगीं
जल भरे मेघ वृष्टि करने लगे
चारों तरफ प्रकृति में
हर्षोल्लास मनने लगे
भाद्रपद का महीना
अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र
अर्ध रात्रि में जग नियंता
जगदीश्वर प्रभु ने
स्वयं को प्रगट किया
अंधियारी कुटिया में
उजियारा हो गया
वासुदेव देवकी कर जोड़
प्रभु की स्तुति करने लगे
स्तुति में अपनी व्यथा कहने लगे
तब प्रभु ने समझाया
जैसा मैं कहूँ
अब तुम वैसा ही करना
मुझे तुम नंदगाँव में
नंदबाबा के घर छोड़ आना
वहाँ मेरी माया ने जन्म लिया होगा
उसे यहाँ उठा लाना
मेरे भक्तों ने बहुत दुःख पाया है
अब कंस का अंत निकट आया है
ताले सारे खुल जायेंगे
रास्ते सारे तुम्हें मिल जायेंगे
जैसे पहला कदम उठाओगे
सब पहरेदार सो जायेंगे
किसी को कुछ भी
पता ना चलेगा
और अपना स्वरुप
पूर्ववत तुम  पा जाओगे

शनिवार, 23 जुलाई 2011

कृष्ण लीला………भाग 3

अब पृथ्वी बहुत घबरायी थी
गौ का रूप रख ब्रह्मा के पास आई थी
ब्रह्मा जी कहने लगे
इसका उपाय तो
विष्णु जी ही बताएँगे
और गौ को ले सभी देवता
महादेव सहित क्षीरसागर किनारे
करबद्ध प्रार्थना करने लगे
प्रभु तारनहारे
हमारी नैया पार लगा देना
जैसे ग्राह से गज को छुड़ाया
परशुराम अवतार लिया
पृथ्वी को क्षत्रिय रहित किया
ब्राह्मणों का उद्धार किया
राम रूप में भी
पृथ्वी का भार हरण किया
हर बार पृथ्वी के भार
को आपने दूर किया
इस बार भी उसकी
नैया पार लगाइए
अब देर ना लगाओ प्रभु
पृथ्वी भयातुर हो गयी है
आपकी शरण में आ गयी है
अब इसकी रक्षा कीजिये
पृथ्वी भार हरण के लिए
अब प्रभु अवतार लीजिये
स्तुति सुन आकाशवाणी हुई
पृथ्वी तुम डरो नहीं
जल्द मैं अवतार लूँगा
देवकी के गर्भ से जन्म लूँगा
यशोदा को  पालन का सुख दूंगा
जो भी सेवा करना चाहे
बाल लीलाओं का आनंद लेना चाहे
जाकर गोकुल में जन्म ले ले
इतना सुन सब आनंदमग्न हो गए
प्रभु गुणों को गाते
निज स्थानों पर गए
अब प्रभु जन्म की आस में
ज़िन्दगी बिताने लगे
देवताओं , गन्धर्व , किन्नर
ऋषि मुनि आदि ने
ब्रजक्षेत्र  में जन्म लिया
वेदों की ऋचाओं  ने
गोपी रूप धारण किया


इसके आगे शुकदेव जी कहने लगे
जब कंस का अत्याचार बढ़ा
तब उसने विचार किया
कुछ अच्छा कार्य करना चाहिए
सबके दिलों में सम्मान भी पाना चाहिए
इतना सोच उसने अपने
चाचा की लाडली देवकी का ब्याह तय किया
 देवकी का ब्याह कंस
वासुदेव से करने लगा
और बहुत धूम धाम से ब्याह किया
दान दहेज़ बहुत मन से दिया
प्रेम के वशीभूत हो
विदाई रथ को कंस
जब स्वयं हांकने लगा
तभी आकाशवाणी ने उद्घोष किया
जिसे इतने हर्ष से ले जाता है
उसी देवकी का आठवां पुत्र
तुझे चिरनिद्रा में सुलाएगा
तू काल के फंदे से ना बच पायेगा
इतना सुन कंस क्रोध से भर गया
अंग प्रत्यंग क्रोध  से जलने लगा
देवकी के बाल खींच जब
तलवार से उसे मारने लगा
तब वासुदेव जी ने विचार किया
अब ये इसकी बहन नहीं
मेरी भार्या है
और इसकी रक्षा करना
मेरा धरम होगा
वासुदेव धर्मनिष्ठ और सत्यव्रती थे
ये कंस जानता था
जब वासुदेव ने वचन दिया
अपना हर पुत्र तुम्हें भेंट करूँगा
चाहे जो कर लेना
मगर देवकी से कोई खतरा नहीं तुम्हें
इसलिए उसे छोड़ देना
सूर्य चंद्रमा को साक्षी जान
तुम्हें वचन मैं देता हूँ
इतना सुन कंस ने उन्हें छोड़ दिया



क्रमश:

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कृष्ण लीला ----भाग 2

तब शुकदेव जी कहने लगे
आहुक राजा के दो पुत्र थे
देवक और उग्रसेन
उग्रसेन महाप्रतापी  राजा था
पवन रेखा  उसकी भार्या
अति सुन्दरी पतिव्रता थी
कालसंयोग से इक दिन
वनविहार के समय
बिछड़ गयी राजा और सखियों से
घने जंगल में पहुँच गयी
द्रुम्लिक नामक दैत्य के
मन को भा गयी
उसकी कुदृष्टि से बच ना पाई
राजा का धर वेश उसने
रानी का शील हरण किया
और फिर निज स्वरुप में आ गया
उसे देख रानी का कलेजा थर्राया
रानी ने राक्षस को धिक्कारा
और श्राप देने का उपक्रम किया
तब वो राक्षस  बोल उठा
रानी श्राप मत देना
तेरी बंद कोख को खोला है
और अपने धर्म का फल
तुझे दिया है
अब जो पुत्र तेरे उत्पन्न होगा
महाप्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा
और परमेश्वर के हाथों
उसका उद्धार होगा
मैं पिछले जन्म का कालनेमि हूँ
हनुमान जी के हाथों मारा गया था
इतना कह राक्षस चला गया
पवन रेखा  ईश्वर इच्छा समझ
स्वयं को धैर्य देने लगी
जब शिशु जन्म का समय आया
पृथ्वी पर भारी उपद्रव हुआ
दिशायें सारी भयभीत हुईं
दिन में अँधियारा  होने लगा
बादल सिंह गर्जन करने लगे
दामिनी भी कड़कने लगी
वृक्ष धराशायी होने लगे
आंधियां तेज़ चलने लगीं
तारे टूटने लगे
उल्कापात होने लगे
ऐसे में बालक ने जन्म लिया

राजा ने पुत्र जन्म का
खूब उत्सव किया
दान दक्षिणा से याचकों का
घर बार भर दिया
ज्योतिषियों से बालक की
कुंडली बंचवायी है
कुंडली सुन राजा परम दुखी हुआ
जब पता चला
गौ , ब्राह्मण, देवताओं को
दुख  देने वाला होगा
यज्ञ ,दान, तपस्या करने वालों
पर अत्याचार करेगा
राजसिंघासन  छीन प्रजा को दुःख देगा
जब पृथ्वी दुखी होगी
तब परमात्मा जन्म लेकर
इसका उद्धार करेंगे
इतना सुन राजा दुखी हुआ
परमेश्वर की इच्छा जान संतोष किया 

राजा ने एक डलिया मे
बालक को लिटाया है
और यमुना मे बहाया है
बहते बहते बालक शूरसेन को मिल गया
वो उसे अपने घर लाये हैं
और वसुदेव संग दोनो ने
साथ साथ शिक्षा पाई है
जब दोनो बडे हो गये
तब इक दिन नारद जी
उससे मिलने आये हैं
और उसे उसके जीवन का
सब हाल बतलाये हैं
इतना सुन कंस क्रोधित हो उठा
और बदला लेने को
आतुर हो गया
उसने जा घोर तपस्या कर
ब्रह्मदेव को प्रसन्न कर
दस हजार हाथियो का बल पाया
और राजधानी मे आ उत्पात मचाया
अपने पिता को बंदी बनाया 
जैसा भूदेवों ने बतलाया था
वैसा ही उसने आचरण पाया था
कंस के अत्याचारों से
पृथ्वी का ह्रदय डोलने लगा
दस हजार हाथियों का बल
तपस्या में पाया था
उसके अत्याचार से
सबका मन थर्राया था
पूजा पाठ यज्ञ हवन
बंद करवा दिए

इक दिन जरासंध का 
एक हाथी पगला गया था
रास्ते से जाते कंस ने
उसे वश किया था
जरासंध ने उसके पौरुष
पर खुश हो
अपनी दो बेटियों
अस्ति और प्राप्ति
का उससे ब्याह किया
अस्ति और प्राप्ति
जैसे नाम थे वैसे ही
कंस के आचरण बनने लगे
अस्ति का मतलब" है "
और प्राप्ति कर अर्थ " इतना और पाना है "
बस इसी उहापोह में लग गया
घमंड से फूला ना समाता था
प्रजा पर मनमाने अत्याचार किया करता



क्रमश:

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

कृष्ण लीला ………भाग 1

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
श्री गणेशाय नमः
श्री सरस्वत्यै नमः
श्री सदगुरुभ्यो नमः

दोस्तों
आज से श्रीमद भागवत के दशम स्कंध में जो भगवान कृष्ण की लीलाएं हैं उनको काव्य के रूप में लिखने की कोशिश की है ............अब ये हमारे कान्हा की मर्ज़ी है कब तक और क्या क्या लिखवाते हैं और आप सबको पढवाते हैं. ये मेरा इस तरह का पहला प्रयास है कोई त्रुटि हो तो माफ़ी चाहती हूँ.

मेरे ख्याल से गुरुपूर्णिमा से उत्तम कोई दिन नहीं होगा ये श्रृंखला शुरू करने का .........सब प्रभु प्रेरणा से हो रहा है.

जब शुकदेव जी परीक्षित को भगवान के दिव्य चरित्र सुना रहे थे और नौ स्कंध तक भगवान के विभिन्न अवतारों की कथा सुना चुके और देख लिया कि अब प्याला भर गया है तब इतना कह शुकदेव जी चुप हो गए उस वक्त परीक्षित व्याकुल हो गए क्योंकि अब तो प्रभु के चरित्रों का समय आया था और इसी वक्त शुकदेव जी चुप हो गए तब परीक्षित उनसे प्रार्थना करने लगे .........शायद शुकदेव जी भी देखना चाहते थे कि प्यास कितना बढ़ी है .




चतुर्थ दिवस की कथा ने कराया
परीक्षित को ज्ञान बोध
कर जोड़ कहने लगे 

शुकदेव जी
सूर्य वंशी राजाओं का
उद्भव आपने सुनाया है
जो मेरे मन को भाया है
ज्ञानोदय अब हो गया
मुक्ति का मार्ग दिख गया
कर कृपा अब कुछ
यदुवंशियों का हाल सुनाइए
और मेरे जीवन को सफल बनाइये
जिसमे जन्मे चन्द्र किरण स्वरूपी
आनंदघन कन्हैया लाल हैं 

उनकी बाल लीलाओं का अब दिग्दर्शन कराइए
उनके दिव्य चरित्रों का अब पान कराइए
कैसे मारा कंस को वो सब बतलाइए
इस अमृत तत्व रुपी सुधा का पान कराइए
मेरे मन मंदिर में
कान्हा प्रेम का सागर बहाइये
मेरे ह्रदय कमल पर
ठाकुर जी को बिठाइए 


इतना सुन शुकदेव जी कहने लगे
राजन चार दिन से तुमने
कुछ ना खाया पीया है
कुछ खा पीकर चित्त ठिकाने कर लेना
उसके बाद कृपामृत का पान कर लेना
इतना सुन राजन यो कहने लगे
नौ स्कंधों में जो आपने
अमृत पान कराया है
कर्ण दोने से मैंने वो
अमृत पान किया है
अब ना क्षुधा तृषा कोई सताती है
अब तो सिर्फ मनमोहन की
कथा ही याद आती है
इतना सुन प्रफुल्लित शुकदेव जी
प्रभु के चरणों में ध्यान लगा यो कहने लगे
शूरसेन राजा की पञ्च कन्याएं
और दश पुत्र हुए
बड़े पुत्र वासुदेव का विवाह किया
सत्रह पटरानियों को उसने
अंगीकार किया
अठारहवीं शादी जब
देवकी से होने लगी
आकाशवाणी तब ये होने लगे
आठवां पुत्र देवकी का
कंस को मारेगा
इतना सुन कंस ने
वासुदेव देवकी को कैद किया
वहीँ कैद में परब्रह्म ने जन्म लिया
इतना सुन राजा यों कहने लगा
गुरुदेव कृपा कर बतलाइए
विस्तार से सारी कथा सुनाइए
मेरे प्रभु की यूँ ना पहेलियाँ बुझाइए
जिसे सुनने को मेरा मन मचलता है
उस आनंद के सागर में मेरी भी
डुबकी लगवाइए
वो अलौकिक दिव्य अमृतपान कराइए 





क्रमश:

रविवार, 10 जुलाई 2011

तोसे नैना लड गये जो इक बार

तोसे नैना लड गये जो इक बार
अब खुद को ढूँढे इत उत बावरी बयार
श्याम प्रेम मे री्झ गये दो नैना मतवार
दरस प्यास बुझत नाही चाहे देखे आठों याम


श्याम प्रेम रस माधुरी भीजत है जो इक बार

श्याममय हो जाय है सुध बुध सारी बिसार

मेरी अज्ञान मटकी फ़ोड दयी जा दिन से श्याम
अब श्याम बिना ना दीखत है दिन रात

मन माखन चुराय लिया जा दिना सों श्याम
ह्रदय सिंघासन बैठ गये वा दिना सों श्याम

अपनी सुध बिसार के हो गयी श्याम की डोर
जित ले जायेंगे उडाय के संग चलेगी डोर



नैनन की धोवन मे जब बहते श्याम हो अधीर
अंजुलि भर पी जाऊँ मै वो नैनन को नीर





दोस्तों
इस रसमयी धारा के प्रवाह को आगे बढाने के लिये मै
एक श्रंखला शुरु करने वाली हूँ जिसमे आनन्द की बयार 
बह रही होगी और उम्मीद करती हूँ आप सब का प्यार उसे 
भी इसी तरह मिलता रहेगा………ये शुभ कार्य मै गुरु 
पूर्णिमा से शुरु करने वाली हूँ।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

पाठन से उपजा चिन्तन

दोस्तों,
आज की ये रचना एक कविता की उपज है...........मैंने रश्मि प्रभा जी की कविता कैकेयी की ख्वाहिश पढ़ी जिसमे केकैयी के मातृ प्रेम और दर्द को दर्शाया गया था जो सच मे एक अनूठी कल्पना है उसे पढ़कर मुझे ये सारा प्रसंग याद आ गया तो सोचा केकैयी के जीवन का एक उज्जवल पक्ष भी आपके सामने रखना चाहिए .........आखिर उसने ऐसा किया क्यों ? और जब आप ये जानेंगे तो उसके व्यक्तित्व को भी सलाम करेंगे . उम्मीद् करती हूँ रश्मि जी इसे अन्यथा नही लेंगी क्योंकि ये मैने वो ही लिखा है जो मैने कथाओ मे सुन रखा है जिसके बारे मे धर्म ग्रंथों मे वर्णित है।





लिख रही है दुनिया
मन के भावों को
उन अनजानी राहों को
जिन पर चलना मुमकिन ना था
उस दर्द को कह रही है
जो संभव है हुआ ही ना था
कभी किसी ने ना जाना
इतिहास और धर्म ग्रंथों
को नहीं खंगाला
गर खंगाला होता तो
सच जान गए होते
फिर ना ऐसे कटाक्ष होते
हाँ , मैं हूँ केकैयी
जिसने राम को वनवास दिया
और अपने भरत को राज दिया
मगर कोई नहीं जानता
प्रीत की रीतों को
नहीं जानता कोई कैसे
प्रेम परीक्षा दी जाती है
स्व की आहुति दे
हवनाग्नि प्रज्ज्वलित  की जाती है
मेरी प्रीत को तुम क्या जानो
राम की रीत को तुम ना जानो
जब राम को जानोगे
तब ही मुझे भी पहचानोगे
मेरा जीवन धन राम था
मेरा हर कर्म राम था
मेरा तो सर्वस्व  राम था
जो भी किया उसी के लिए किया
जो उसके मन को भाया है
उसी में मैंने जीवन बिताया है
हाँ कलंकनी कहायी हूँ
मगर राम के मन को भायी हूँ
अब और कुछ नहीं चाह थी मेरी
राम ही पूँजी थी मेरी
जानना चाहते हो तो
आज बताती हूँ
तुम्हें राम और मेरी
कथा सुनाती हूँ
जब राम छोटे थे
मुझे मैया कहते थे
मेरे प्राणधन थे
भरत से भी ज्यादा प्रिय थे
बताओ कौन ऐसा जग में होगा
जिसे ना राम प्रिय होगा
हर चीज़ से बढ़कर किसे ना
राम की चाह होगी
बेटे , पति , घर परिवार
कभी किसी को ना
राम से बढ़कर चाहा
मुझमे तो सिर्फ
राम ही राम था समाया
इक दिन राम ने
प्रेम परीक्षा ली मेरी
मुझसे प्रश्न करने लगे
बताओ मैया
कितना मुझे तुम चाहती हो
मेरे लिए क्या कर सकती हो
इतना सुन मैंने कहा
राम तू कहे तो अभी जान दे दूँ
तेरे लिए इक पल ना गंवाऊँगी
जो तू कहे वो ही कर जाऊँगी
राम ने कहा जान तो कोई भी
किसी के लिए दे सकता है
मज़ा तो तब है जब जीते जी 
कांटों की शैया पर सोना होगा
ये ना प्रेम की परिभाषा हुई
इससे बढ़कर तुम क्या कर सकती हो
क्या मेरे लिए अपने पति, बेटे
घर परिवार को छोड़ सकती हो
क्या दुनिया भर का कलंक
अपने सिर ले सकती हो
उसकी बातें सुन मैं सहम गयी
लगा आज राम ने ये कैसी बातें कहीं
फिर दृढ निश्चय कर लिया
मेरा राम मेरा अहित नहीं करेगा
और यदि उसकी इच्छा ऐसी है
तो उसके लिए भी तैयार हुई
कहा राम तेरी हर बात मैं मानूंगी
कहो क्या करना होगा
तब राम यों कहने लगे
मैया सोच लेना
कुछ छोटी बात नहीं माँग रहा हूँ
तुमसे तुम्हारा जीवन माँग रहा हूँ
तुम्हें वैधव्य भी देखना होगा
मेरे लिए क्या ये भी सह पाओगी
अपने पुत्र की नफ़रत सह जाओगी
ज़िन्दगी भर माँ तुम्हे नही कहेगा
क्या ये दुख सह पाओगी
आज मेरे प्रेम की परीक्षा थी
उसमे उत्तीर्ण होने की ठानी थी
कह दिया अगर राम तुम खुश हो उसमे
तो मैं हर दुःख सह जाउंगी
पर तुमसे विलग ना रह पाऊँगी
तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ
तुम्हारे किसी काम आ सकूँगी
तभी जीवन लाभ पा सकूँगी
कहो क्या करना होगा
तब राम ये कहने लगे
मैया जब मुझे राजतिलक होने लगे
तब तुम्हें भरत को राज दिलाना होगा
और मुझे बनवास भिजवाना होगा
ये सुन मैं सहम गयी
राम वियोग कैसे सह पाऊँगी
राम से विमुख कैसे रह पाऊँगी
तब राम कहने लगे
मैया मैं पृथ्वी का भार हरण करने आया हूँ
इसमें तुम्हारी सहायता की दरकार है
तुम बिन कोई नहीं मेरा
जो इतना त्याग कर सके
तुम पर है भरोसा मैया
इसलिए ये बात कह पाया हूँ
क्या कर सकोगी मेरा इतना काम
ले सकोगी ज़माने भर की
नफ़रत का अपने सिर पर भार
कोई तुम्हारे नाम पर
अपने बच्चों का नाम ना रखेगा
क्या सह पाओगी ये सब व्यंग्य बाण
इतना कह राम चुप हो गए
मैंने राम को वचन दिया
जीवन उनके चरणों मे हार दिया
अपने प्रेम का प्रमाण दिया
तो क्या गलत किया
प्रेम में पाना नहीं सीखा है
प्रेम तो देने का नाम है
और मैंने प्रेम में
स्व को मिटाकर राम को पाया है
मेरा मातृत्व मेरा स्नेह
सब राम में बसता था
तो कहो जगवालों
तुम्हें कहाँ मुझमे
भरत के लिए दर्द दिखता था
मैंने तो वो ही किया
जो मेरे राम को भाया था
मैंने तो यही जीवन धन कमाया था
मेरी राम की ये बात सिर्फ
जानकार ही जानते हैं
जो प्रेम परीक्षा को पहचानते हैं 
ए जगवालों 
तुम न कोई मलाल करना
ज़रा पुरानों में वर्णित
मेरा इतिहास पढ़ लेना
जिसे राम भा जाता है
जो राम का हो जाता है
उसे न जग का कोई रिश्ता सुहाता है
वो हर रिश्ते से ऊपर उठ जाता है
फिर उसे हर शय में राम दिख जाता है
इस तत्वज्ञान को जान लेना
अब तुम न कोई मलाल करना    

रविवार, 3 जुलाई 2011

आखिर कब तक ऐसा होगा?


(केरल में 18 वीं सदी में बने पद्मनाभास्वामी मंदिर के तहखाने से निकला एक टन सोना, 50000 करोड़ का खजाना बड़ी मात्र में हीरे जवाहरात , ९ फुट लम्बी सोने कि चैन, हजारों साल पुराने सोने के सिक्के  और ना जाने क्या क्या निकला है और दूसरा तहखाना खोला जाना बाकी है
ऐसे में कहा जा रहा है कि इस दौलत के दम पर पद्मनाभास्वामी मंदिर ट्रस्ट तिरुपति बालाजी ट्रस्ट को दौलत के मामले में पीछे छोड़कर देश का सबसे धनवान ट्रस्ट का खिताब हासिल कर सकता है। )


अभी ऊपर लिखी ये पोस्ट पढ़ी रूबी सिन्हा की........तो ये ख्याल आया
आखिर कब तक ऐसा होगा?

आज जहाँ देखो वहाँ जिस मंदिर में देखो वहीँ हर जगह सिर्फ यही सुनने को मिलता है कि अमुक मंदिर में  इतने किलो का मुकुट या इतने किलो की चेन चढ़ाई गयी .......
मंदिरों में इतना पैसा होना क्या आश्चर्य की बात नहीं है ? सभी जानते हैं कि  मंदिरों में श्रद्धालु अपनी कामना पूरी होने पर कुछ ना कुछ चढाते ही हैं  लेकिन मेरा कहना है कि यदि इतना पैसा मंदिरों में  है तो फिर 
हम सब क्यों सिर्फ इसी में लगे रह जाते हैं कि कौन सा मंदिर आगे हो गया और कौन सा पीछे , हमारी सोच सिर्फ यहीं आकर क्यूँ सिमट जाती है कि कौन सा मंदिर खजाने में आगे है और कौन सा पीछे ........हम ये क्यों नहीं सोच पाते कि ये पैसा भी काम आ सकता है  ....क्या फायदा इतना पैसा मंदिरों में पड़ा सड़ता रहे और देश की गरीब जनता दो वक्त की रोटी के लिए तरसती रहे ...........क्या भगवान पैसा चाहता है या बिना पैसे के खुश नहीं होता? बेशक कहना ये होगा कि लोग चढाते हैं तो कोई क्या करे ? जिनके काम पूरे होते हैं तो वो चढाते हैं इसमें मंदिर का क्या दोष? मगर प्रश्न अब भी अपनी जगह है कि ..........क्या मंदिर के कर्ताधर्ताओं का कोई फ़र्ज़ नहीं बनता?  जितना मंदिर की देखभाल और जरूरी खर्चों के लिए जरूरी हो उतना रखकर यदि उस पैसे का सही सदुपयोग करें तो क्या उससे भगवान नाराज हो जायेंगे? क्या उस पैसे को समाज , देश और गरीब जनता के कल्याण के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता? और यदि ऐसा किया जाता है तो ना जाने कितने लोगों का भला होगा और मेरे ख्याल से तो इससे बढ़कर और बेहतर काम दूसरा कोई हो ही नहीं सकता .............मगर ना जाने कब हम ये बात समझेंगे...........अब देखिये जम्मू कश्मीर श्राइन बोर्ड ने जनता कि सुविधा के लिए वहाँ का नक्शा ही बादल दिया चाहे वैष्णो देवी जाना हो या अमरनाथ .......और सबसे बड़ी बात इस कार्य में सरकार ने भी सहयोग दिया .......जब वैष्णो देवी के रास्तों को संवारा गया तब श्री जगमोहन जी ने वहाँ की कायापलट कर दी  .......तो क्या और मंदिरों या ट्रस्टों  के लोग ऐसा नहीं कर सकते ?............अब चाहे पैसा भ्रष्टाचार के माध्यम से बाहर गया हो या देश के मंदिरों में सड रहा हो क्या फायदा ऐसे पैसे का ? क्या इस पैसे के बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता ? क्या इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई जा सकती ?  मेरे ख्याल से तो मेरा देश कल भी सोने की चिड़िया था तो आज भी है जिस देश के मंदिरों में आज भी इतना पैसा बरसता हो वो कैसे गरीब रह सकता है ये तो हमारी ही कमजोरी और लालच है जो हमें आगे बढ़ने से रोकता है.............आखिर कब हमारी सोच में बदलाव आएगा? आखिर कब हम खुद से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए सोचेंगे?

शनिवार, 25 जून 2011

ललिता पूछे राधा से , ए राधा

ललिता पूछे राधा से , ए राधा
कौन शरारत कर गया
तेरे ख्वाबों में ,ख्वाबों में

आँख का अंजन बिखेर गया गालों पे-२-
ये चेहरा कैसे उतर गया ए राधा
दो नैनों में नीर कौन दीवाना भर गया ए राधा
ललिता पूछे राधा से ए राधा ...............


वो छैल छबीला आया था ओ ललिता -२-
मन मेरा भरमाया था ओ ललिता
मुझे प्रेम सुधा पिलाया था ओ ललिता
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
मेरा चैन वैन सब छीन गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा..................

वो मुरली मधुर बजाय गया सुन ललिता
वो प्रेम रस  पिलाय गया ओ ललिता
मुझे अपना आप भुलाय गया ओ ललिता
मुझे मोहिनी रूप दिखाय गया ओ ललिता
बंसी की धुन सुनाय गया सुन ललिता
और चित मेरा चुराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब ध्यानमग्न मैं बैठी हूँ सुन ललिता
उसकी जोगन बन बैठी हूँ सुन ललिता
ये कैसा रोग लगाय गया ओ ललिता
ये कैसा रास रचाए गया ओ ललिता
मोहिनी चितवन डार गया सुन ललिता
ये कैसी प्रीत सुलगाय गया वो छलिया
मुझे अपनी जोगन बनाय गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब हाथ छुडाय भाग गया वो छलिया
मुझे प्रेम का रोग लगाय गया वो छलिया
मेरी रूप माधुरी चुराय गया वो छलिया
मुझे कमली अपनी बनाय गया वो छलिया
अब कैसे धीरज बंधाऊं री ललिता
अब कैसे प्रीत पहाड़ चढाऊँ री ललिता
मोहे प्रीत की डोर से बाँध गया वो छलिया
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा .................











सोमवार, 20 जून 2011

कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा

ज़रा गौर फरमाइए इधर भी.........कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा ...........पता नहीं कैसे हुआ मगर हो गया .........अगर जानना है तो यहाँ देखिये ...........इस लिंक पर 


 दोस्तों
   "क्या संन्यासी या योग गुरु से छिन जाते हैं मौलिक अधिकार?"
ये लिंक है इस आलेख का
http://www.mediadarbar.com/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81/


 इस आलेख को मिला है प्रथम पुरस्कार मिडिया दरबार की ओर से .........हर हफ्ते आयोजित होने वाली प्रतियोगिता में ..........जानिए वो विचार जो मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गए .........मुझे नहीं पता कैसे मिल गया .........मुझे तो लगा ही नहीं था कि ऐसा खास लिखा है कि प्रथम पुरस्कार मिलेगा ........अब आप सब खुद पढ़ कर देखिये और बताइए .

शनिवार, 18 जून 2011

मन भूला भूला फिरता है

ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है

बुधवार, 15 जून 2011

चंचल चंचल रे मना

चंचल चंचल रे मना
काहे चंचल होय
श्याम की ब्रजमाधुरी तो
वृन्दावन में होय

धीरज धीरज रे मना

थोडा धीरज बोय
चाहे सींचे सौ घड़ा
ऋतु आवन फल होय

भागे भागे रे मना

काहे भागे रोये
श्याम सुख सरिता तो
मन आँगन में होय 


निर्मल निर्मल रे मना
निर्मल मन जो होए
श्याम प्रेम का वास तो
वा तन में ही होय   





सोमवार, 6 जून 2011

आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?

आजकल तो
छुपे छुपे रहते हैं
अक्स खुद से भी
छुपाते हैं
डरते हैं
कोई बैरन कहीं
नज़र ना लगा दे
बताओ भला
कारे को भी कभी
कारी नज़र लगी है

जो खुद नज़र का टीका हो
उसे भला नज़र कब लगती है
सखी री कोई तो बताओ
कोई तो उन्हें आईना दिखाओ
प्यार करने वालों की
नज़र नहीं लगती
ये फलसफा उन्हें भी समझाओ 

कहना उनसे ज़रा
घूंघट तो उठाएं
मोहिनी मूरत तो दिखाएं
आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?

बुधवार, 1 जून 2011

हे कृष्ण ! तुम प्रश्नचिन्ह हो

हे कृष्ण !
तुम प्रश्नचिन्ह हो 
समझ में न आने वाले
ऐसा जटिल प्रश्न 
जिसका उत्तर 
जितना खोजो
उतना उलझता है 
कभी तो द्रौपदी का 
चिर बढ़ाते हो
कभी गोपियों का 
चीर चुराते  हो 
कभी अर्जुन को 
युद्ध का उपदेश देते हो
कभी कालयवन के डर से
भाग खड़े होते हो 
कभी तो नित्य 
तृप्त लगते हो
और कभी
गोपियों से माखन
माँग माँग कर 
खाते हो 
कभी जेल में 
जन्म लेते हो
तो कभी जीव को
संसारी बेड़ियों से
मुक्त करते हो 
तुम अव्यक्त होकर
व्यक्त होते हो
तो कभी व्यक्त 
होकर भी 
अव्यक्त रह जाते हो
कृष्ण तुम
आदि भी हो
अंत भी और
अनंत  भी 
हे कृष्ण तुम
समझ न आने वाले 
वो अलक्ष्य लक्ष्य हो
जिसे  जानना होगा 
प्रेम करना होगा
सिर्फ प्रेम की 
डोरी से बाँधना होगा
वरना तो तुम 
कभी किसी की 
समझ न आने 
वाले प्रश्नचिन्ह हो 
फिर कोई कैसे और 
कहाँ उत्तर खोजे
कुछ प्रश्न अनुत्तरित 
ही रहते हैं 
तो फिर तुम तो
खुद एक प्रश्नचिन्ह हो  

शुक्रवार, 27 मई 2011

अब कैसे कहूं याद आ रही है

वो जो हर पल
नैनों में समाये रहते हैं
जहाँ पलकें भी
स्थिर हो  जाती हैं
दृष्टि निर्मिमेष
हो जाती है
वहाँ कैसे कहूँ
याद आ रही है

वो जो हर पल
धड़कन में
समाये रहते हैं
मुरली मधुर बजाते हैं
मुझे हरदम
नाच नाचते हैं
वहाँ कैसे कहूँ
याद आ रही है

वो जो हर पल
सांसों के मनकों में
समाये रहते हैं
हर आती जाती
सांस संग धड़कते हैं
सांसों की आवाजाही में
मोती बन चमकते हैं
वहाँ कैसे कहूँ
याद आ रही है

याद तो उसे करूँ
जिसे भुलाया हो कभी
याद तो उसे करूँ
जिसे बिसराया हो कभी
जो स्वयं से जुदा
 हुआ हो कभी
याद तो उसे करूँ
जो अलग वजूद
बना हो कभी
जो मुझमे समाया रहता है
जिसमे मैं समायी रहती हूँ
जहाँ जिस्मों से परे
आत्मिक मिलन
हो गया हो
वहाँ कैसे कहूं
याद आ रही है
कोई तो बता दे
अब कैसे कहूं
याद आ रही है

रविवार, 22 मई 2011

अब कैसे मिलन हो पाए?







किशोरी जी तुम बिन
चैन ना आये
कान्हा बुलाये
मन भरमाये
तुम बिन चैन ना आये
एक बार दर्शन
करने को
खुद वृन्दावन आये
फिर भी चैन ना आये
तुम्हारे चरणन के दर्शन को
कान्हा भी दौडा आये
प्रेम की गागर
छलक - छलक जाये
प्रीत की रीत
निभा न पाए 
तुम बिन चैन ना पाये
कान्हा तुम बिन
चैन ना पाये
चरण कमल पर 
बलि बलि जाए
फिर भी उॠण
न हो पाए
प्रेम का मोल
कैसे चुकाए
इतना समझ न पाए
किशोरी जी
कान्हा तुम बिन 
चैन न पाए 
तुम्हरे चरणों में
वास करन को
कान्हा भी अकुलाये  
दिव्य प्रेम के 
आगे उसकी
एक न चलने पाए 

किशोरी जी तुम्हरे
दरस बिन
कान्हा अश्रु बहाये
पर तुम बिन 
चैन न पाए
किशोरी जी
तुम बिन कैसे
कान्हा मुरली बजाये 
हर पल तुम्हारे विरह में
तड़प - तड़प जाये
पर तुम बिन चैन ना पाए
विरह अगन की तीव्र वेदना
कान्हा को झुलसाये
जो बीती तुम्हरे जीया पर
वो कान्हा खुद पर
सहता जाये
पर तुम बिन चैन ना पाये
किशोरी जी 
अब कैसे मिलन हो पाए?
दोस्तों 
ये दुर्लभ चित्र मुझे फ़ेसबुक पर कल मिला
तो सोचा आप सबको भी 
इसके दीदार कराऊँ
और मन मे जो भाव जागृत हुये
वो आपसे साझा कर रही हूँ 
उम्मीद है पसंद आएगा

शनिवार, 14 मई 2011

कैसे धार्मिक हैं हम ?

 दोस्तों ,
 ब्लोगर की खराबी के कारण ये पोस्ट डिलीट हो गयी और अब इसे दोबारा पोस्ट कर रही हूँ .........कृपया अपने विचारों से दोबारा अवगत कराएं .......ये पोस्ट १३ मई  को ब्लोग्स इन मीडिया में भी छपा है जिसका लिंक साथ में लगा रही हूँ .
http://blogsinmedia.com/2011/05/%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A4%AE-%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%A8/




हमने धार्मिकता सिर्फ ओढ़ी हुई है मगर अपनाई नहीं है . अगर अपनाई होती तो आज ये हालत ना होती ...........आज आप देखिये हमारे देवी - देवता और बड़े- बड़े साधू संतों की तस्वीरें और मूर्तियाँ कैसे जमीन में धूल चाट रही होती हैं , या पैरों के नीचे आ रही होती हैं ..........जिस दिन मिलेंगी तो बहुत करीने से सहेजेंगे हम सब और यदि ना मिले तो लेने की भूख .......हर हाल में लेकर ही रहते हैं आखिर मुफ्त का माल होता है .......और घर लाकर उसे कुछ दिन दीवार की शोभा बना देते हैं या मंदिर में बिठा देते हैं ..........उसके बाद जब वो पुरानी हो जाती हैं तो हम क्या करते हैं ?


हम सभी उन्हें उठाते हैं और किसी पीपल पर या चौराहे पर रख देते हैं या नदी में प्रवाहित कर देते हैं . मगर कभी सोचा उसके बाद उनका क्या हुआ ? हमने तो अपना काम करके इतिश्री कर ली मगर उसके बाद उन प्रतिमाओं और तस्वीरों का क्या हश्र होता है कोई जानना नहीं चाहता............

आज के वक्त में अगर नदी में प्रवाहित करते हैं तो वो प्रदूषित हो जाती है तो इससे बचने के लिए लोग उन्हें पीपल पर या चौराहे पर रखने लगे मगर कभी नहीं जानना चाहा कि अगले दिन उनके साथ क्या हुआ ?

वैसे पता सबको होता है मगर ये सोचकर कि हमने तो अपना काम कर दिया अब जो चाहे सो हो करके खुद को तसल्ली दे देते हैं जबकि अगले दिन उन तस्वीरों और प्रतिमाओं को जमादार सफाई करते हुए अपने साथ कूड़े में समेट कर ले जाता है , यहाँ तक देखा गया है कि उनके ऊपर ही कूड़ा उठा रहा होता है ......देखकर ही दिल दुखता है और आँखें शर्म से झुक जाती हैं और यदि उस जमादार को कहो कि ये क्या कर रहा है तो उसका तो सीधा सा जवाब होता है कि क्या करूँ जी मेरा तो काम ही कूड़ा उठाना है ...............तो ये होता है हमारे देवी देवताओं और संतों की प्रतिमाओं का हश्र?

क्या हमारा धर्म हमें यही सिखाता है ? या हम सब इतने नासमझ हैं वैसे तो धर्म के नाम पर एक दूसरे को मारने काटने को तैयार हो जाते हैं, और यदि कोई दूसरा हमारे देवी देवताओं के चित्रों का दुरूपयोग करे तो भी हम उसे नहीं छोड़ते और उसे माफ़ी मांगने पर मजबूर कर देते हैं इसका ताज़ा उदहारण तो अभी बिकिनी पर हामारे देवी देवताओं कि तसवीरें हैं ............चलो वो तो विदेशी ठहरे उन्हें किया और हमने आपत्ति उठाई तो उन्होंने माफ़ी मांग ली मगर क्या हम खुद ऐसा ही नहीं कर रहे ...........जब भी कहीं धार्मिक आयोजन होते हैं उसमे हर जगह न जाने कितने देवी देवताओं की तसवीरें छपी होती हैं और जिस दिन आयोजन समाप्त होता है तो वो ही तसवीरें पैरों के नीचे कुचली जा रही होती हैं ...........क्या तब हमारी गैरत मर जाती है ? हमें तब शर्म क्यूँ नहीं आती है ? तब क्यूँ नहीं सोचते कि जो बात हम गैर से मनवा सकते हैं वो अपने ही लोगों में जन जाग्रति लाकर क्यूँ नहीं मनवा सकते ? मगर कभी ये नहीं सोचते कि क्या ऐसा होने से रोकना हमारा धर्म नहीं?

क्यूँ सोचें भाई ? इसके लिए दुनिया पड़ी है और किसके पास वक्त है इतना ? लेकिन क्या हमारी अन्तरात्मा हमें नहीं धिक्कारती . इससे तो अच्छा है कि हम कम से कम तस्वीरें रखें जितनी हम संभाल सकें और यदि ख़राब हो जाये या मन से उतर जायें तो अपने घर में कामवाली बाई को दे दें क्यूंकि वो लोग तो ऐसी तसवीरें खरीद नहीं पातीं तो अपने घरों में लगा लेती हैं और उसे भी पूछकर दिया जाये की लगाएगी तो ले जा वर्ना नहीं या फिर उसे किसी उद्यान में ,या अपने ही बगीचे में या अपने गमलों में या किसी खेत खलिहान में मिटटी में दबा दें कम से कम ना तो प्रदुषण होगा और ना ही अपमान और धार्मिकता भी बनी रहेगी ...........हम लोग हवन करते हैं तो सारी हवन की राख़ आखिर में नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है और हम उसका पालन करते हैं ये सोचकर कि ऐसा नहीं किया तो कुछ गलत हो जायेगा मगर ये नहीं सोचा कि इससे प्रदुषण बढेगा .......अब यदि इसी को हम बागों में , खेतों में मिटटी में दबा दें तो वहाँ ना तो धर्म और ना ही मर्यादा का उल्लंघन होगा और उसके परमाणु से आस- पास का वातावरण भी शुद्ध होगा.............अगर हम सब इन छोटी - छोटी चीजों पर ध्यान दें तो ये हमारे और हमारे धर्म और भविष्य सबके लिए हितकर होगा .

ये हम सबका कर्तव्य है कि हम सब मिलकर अपने धर्म की रक्षा करें और उसे पांव तले ना रौंदें. ये सब मैंने आँखों देखा ही कहा है ज्यादातर मंदिरों आदि में भी ऐसा हो रहा है .........इसलिए हम सबको इस तरफ ध्यान देना चाहिए और अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना चाहिए तभी हम सही मायने में हिन्दू या धर्मनिष्ठ कहलाने के अधिकारी हैं .

मंगलवार, 10 मई 2011

रे मन ! तू इतना सा भी ना समझ पाता है

मोह का छोटा सा अंकुर भी
कैसे झुलसा जाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

तेरे वर्षों के तप को
खंडित कर जाता  है
फिर दूर बैठा मुस्काता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

तुझसे तेरा ही
सब छीन ले जाता है
देख कैसी
धमाचौकड़ी मचाता है
कहीं का नहीं
फिर छोड़ पाता है
जब अपनों की
लात खाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

ये आदमखोर है ऐसा
जो जीते जी को खाता है
पर इसके पंजों से
ना छूट  पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

ये मोह की ऐसी
जोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कान्हा तुम्हारी याद में राधा पुकारती

कान्हा तुम्हारी याद में कलियाँ पुकारती -२-
काँटों की शैया पर कैसे रातें  गुजारतीं
कान्हा तुम्हारी याद में.........................

कान्हा तुम्हारी याद में राधा पुकारती -२-
रो - रो के प्रेम दीवानी जीवन गुजारती 
 कान्हा तुम्हारी याद में....................

कान्हा तुम्हारी याद में मीरा पुकारती-२-
पग घुँघरू बाँध दीवानी तुमको रिझाती 
 कान्हा तुम्हारी याद में........................

कान्हा तुम्हारी याद में शबरी पुकारती-२-
राम आयेंगे इस आस में रस्ता बुहारती 
 कान्हा तुम्हारी याद में ........................

कान्हा तुम्हारी याद में गोपियाँ पुकारती -२-
परसों आऊँगा की बाट में  रस्ता निहारतीं 
 कान्हा तुम्हारी याद में .........................

कान्हा तुम्हारी याद में भक्त मण्डली पुकारती -२-
गा - गा के गीत तुम्हारे जीवन गुजारती 
 कान्हा तुम्हारी याद में ........................

कान्हा तुम्हारी याद में दासी पुकारती -२- 
नयनों की प्यास को अब कैसे संभालती 
कान्हा तुम्हारी याद में ..........................

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

"मै" और" मेरा"

अहंकार के दो बच्चे
"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे
वक्त के साथ
परवान चढते रहे
अहंकार के शिखर
तक पहुंच गये
और फिर लगी
इक ठेस
और धरातल भी
नसीब ना हुआ
"मै" तो पल मे
चकनाचूर हुआ
दर्प अहंकार का
नेस्तनाबूद हुआ
जब "मेरा" ने
उसे दुत्कार दिया
"मै" ने "मेरा" को
कुछ ऐसे पोषित किया
"मेरा" ने "मै" का
सब कुछ छीन लिया
अब ना "मै" है
ना "मेरा" है
जीवन मे आया
नया सवेरा है
छोड दिया "मै" ने
"मेरा" को और
ओढ ली चादर
हरि नाम की
तन राखा संसार मे
मन कर दिया अर्पण
कृपानिधान को

रविवार, 17 अप्रैल 2011

मुझे शिला बनाया होता

मुझे शिला बनाया होता
अहिल्या सा तारने को
फिर राम बनकर आया होता

मुझे गंवारिन  ही बनाया होता   
शबरी सा तारने को 
फिर राम बनकर आया होता

मुझे सखी अपनी बनाया होता
द्रौपदी की लाज बचाने को
फिर श्याम बन कर आया होता 

श्याम कुछ तो अपना बनाया होता
चाहे खाक ही चरणों की बनाया होता
फिर धूल झाड़ने को ही सही
अपना हाथ तो बढाया होता 

मुझे भी गले से लगाया होता
एक बार श्याम मेरे 
मन मंदिर में तो आया होता 
एक फूल प्रेम का
मुझमे भी खिलाया होता  
फिर चाहे राम बनकर 
चाहे श्याम बनकर
आया होता  
मुझे भी प्रेमरस 
पिलाया होता

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

फॅमिली बैकग्राउंड

दोस्तों
अभी कुछ दिन पहले मुझसे रश्मि जी ने ये प्रश्न पूछा था और उसका जवाब मैंने ये लिखकर दिया था ...........ये तो थी मेरी सोच अब आप बताइए आप इस बारे में क्या सोचते हैं 


फॅमिली बैकग्राउंड का क्या अर्थ है ? पूरी तरह से सोचकर लिखें ... शब्दिकता पर न जाएँ.




आज के युग में लोग फॅमिली का ही अर्थ नहीं जानते तो फॅमिली बैकग्राउंड  का अर्थ कहाँ समझेंगे . फिर भी एक कोशिश करती हूँ इसे अपने नज़रिए से अर्थ देने की.


मेरे ख्याल से फॅमिली बैकग्राउंड से सीधा अर्थ तो ये ही निकलता है कि-----------

  1. एक फॅमिली के लोग और उनके पूर्वज कैसे थे या कैसे हैं , उन सबके ख्यालात कैसे हैं ?
  2. आधुनिकता की सिर्फ चादर ओढ़े हैं या असलियत में उनके विचारों में परिपक्वता है ?
  3. उनके रहन सहन का तरीका कैसा है?
  4. बोलचाल की भाषा कैसी है ?
  5. सभ्य और सुसंस्कृत है या जैसा देश वैसा भेष वाली है ?
  6. वो क्या काम करते हैं? काम को लेकर कितने serious हैं ?
  7. धार्मिकता का सिर्फ लबादा ही ओढ़ रखा है या वास्तव में संस्कार वान हैं ?
  8. समाज में उनका क्या स्थान है ? कहीं ऐसा तो नहीं सामने तो सब झुककर सलाम करते हों और पीछे से गाली देते हों ?
  9. इन्सान का व्यवहार ही उसकी पहचान होता है .छोटों से कैसा और बड़ों से कैसा व्यवहार करते हैं और हमउम्र से कैसे मिलते हैं ?
  10. अभिमान और दंभ ही तो उनके आभूषण नहीं ? या सहनशीलता , दया और परोपकार ही उनके आभूषण हैं ?

इस तरह की अनेकों चीजें होती हैं जो एक फॅमिली के लिए धरातल बनाती हैं जिनसे उस फॅमिली के बारे में सही आकलन किया जा सकता है .




इसकी तह तक कैसे जायेंगे और क्या वही होता है जिसके लिए हम तथाकथित बैक ग्राउंड देखते हैं ?


ये एक बहुत ही मुश्किल प्रश्न है और जिसका उत्तर तलाशने निकले इन्सान को उसका सही जवाब मिल जाये ये कहना मुमकिन नहीं है क्योंकि हम सभी सिर्फ कुछ पहलुओं पर ही गौर करके आगे की कार्यवाही रोक देते हैं और सोचते हैं कि  जिसकी इतनी बातें सही हैं तो वो सच में सही होगा फिर बाद में धोखा खाने पर हाथ मलने के सिवा और कुछ नहीं मिलता .
हर काम को जितनी लगन और सहनशीलता से किया जाये वो उतना ही अच्छा फल देता है और अगर किसी का फॅमिली  बैकग्राउंड देखना हो तो उसके लिए तो बहुत ही धैर्य से काम लेना होगा .........अपनी आँख और कान चौकन्ने रखने होंगे, किसी की कही बातों पर विश्वास न करके खुद जांचना परखना चाहिए .........हर कदम फूंक फूंक कर रखना चाहिए तभी ये संभव हो सकता है कि मनोवांछित परिणाम प्राप्त हो ............और यदि एक बार धैर्य और लगन से काम कर लिया जाए , छानबीन कर ली जाए तो ज़िन्दगी भर का आराम और दिमागी तसल्ली  मिल जाती है ..........ये पता चल जाता है कि जिसके बारे में हमने जानकारी हासिल की है - वो कैसा है ? हमारी कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं .........एक बार पता चल जाये तो निर्णय लेने में आसानी होती है और ज़िन्दगी को नयी दिशा मिल जाती है .
सिर्फ किसी के कहने भर से या किसी को जानने भर से हम उसके बारे में कोई आकलन नहीं कर सकते .इसी का असर हमारे निर्णय पर पड़ता है और एक सही निर्णय ही ज़िन्दगी को सहज और सरल बना सकता है और गलत उम्र भर की मुसीबत . 
इसलिए मेरी दृष्टि में तो इन सब बातों पर गौर करने के बाद ही हम किसी के बारे में या उसकी फॅमिली के बारे में सही आकलन कर सकते हैं. 



बुधवार, 6 अप्रैल 2011

साथी हाथ बढाना…………


भ्रष्टाचार को अब तो
समूल नष्ट करना होगा
सोये हुओ को अब जगना होगा
वरना अन्जाम से डरना होगा
ये सोया शेर जागा है आज
इससे बचना है तो
हथियार डालने होंगे
एक अन्ना के साथ
लाखों करोडों सितारे होंगे
अब आसमाँ को झुकना होगा
जमीन को उसका हक देना होगा
देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना होगा
वरना क्रांति ऐसी आयेगी
सब बहा ले जायेगी
शासन की जडें हिला जायेगी
जागो ……सोने वालों
अब तो जागो………
आज सोने की चिडिया को अपने ही लोग खा रहे हैं । भारत तो कल भी सोने की चिडिया था और आज भी है ……क्या कमी है कुछ नही तभी तो देखो इतना धन है कि लोग अपने हाथो खोखला कर रहे हैं……………कल परायो ने लूटा आज अपने लूट रहे हैं अगर ऐसा बिल आ गया होता तो आज देश का नक्शा ही दूसरा होता………विश्व पटल पर जब आज भारत की छवि इतनी ऊँचाइयां प्राप्त कर रही है तो ज़रा सोचिये अगर वो धन जो स्विस बैंक मे जमा है वो यहीं उपयोग होता तो देश कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता मगर जब पालनहार ही मारनहार बन जाये तो आम जनता कहाँ जायेगी और देश तो बर्बादी के कगार पर पहुंचेगा ही ऐसे मे अन्ना जी जैसे महापुरुष का कदम एक तडपते हुये इंसान के मूँह मे दो बूँद गंगाजल डालने के बराबर है और इसमे हम सब को सहयोग करना चाहिये ये किसी एक इंसान की नही सारे देश की जनता की आवाज़ है और हम सब इस मुहिम मे उनके साथ हैं…………जय हिंद

मंगलवार, 29 मार्च 2011

अब कैसे नव सृजन हो ?...................100 वीं पोस्ट

शब्द निराकार हो गए
अर्थ बेकार हो गए
अब कैसे नव सृजन हो ?

चिंतन बिखर गया
आस की ओस
हवा मे ही
खो गयी
निर्विकारता
निर्लेपता का
आधिपत्य हो गया
अब कैसे नव सृजन हो ?

ह्रदय तरु पर
कुंठाओ का पाला
पड गया
संवेदनायें अवगुंठित
हो गयीं
दृश्य अदृश्य हो गया
अब कैसे नव सृजन हो?

शून्यता मे आरुढ
हर आरम्भ और अंत
भेदभाव विरहित
आत्मानंद
सृष्टि का विलोपन
अब कैसे नव सृजन  हो?

रविवार, 27 मार्च 2011

निस्वार्थ्

कभी कभी शब्द एक खेल बन जाते हैं दिल और दिमाग के बीच ……कभी दिल के हाथ बिकते हैं तो कभी दिमाग के हाथों नीलाम होते हैं.………पर क्या कभी शब्दो को सही मुकाम हासिल होता है? क्या शब्दों की अपनी दुनिया मे उनका कोई निज़ी अस्तित्व होता है जब तक की अभिव्यक्त ना हो जायें ……किसी के हाथ की कठपुतली ना बन जायें तब तक शब्द सिर्फ़ शब्द बन कर ही रह जाते हैं …………अस्तित्व होते हुये भी अस्तित्वहीन …………क्या स्त्री और शब्दों मे कोई समानता है? शायद हाँ, तभी अपने स्वतंत्र अस्तित्व होते हुये भी अपनी पह्चान के लिये किसी के हाथों की कठपुतली बन जाते है दोनो………शायद दोनो का एक ही स्वभाव है………दूसरे को पहचान देना…………दूसरे के भावो को स्वंय मे समाहित करना और बिखर जाना…………खुद को मिटा देना मगर अपना जीना सार्थक कर देना ……………शायद ज़िन्दगी ऐसे भी जी जाती है ……निस्वार्थ्।

बुधवार, 23 मार्च 2011

मुझे भी अपना बना लेना

पुकारना नही आता
पूजन नही आता
वन्दन नही आता
नमन नही आता
बस
स्मरण करना
व्याकुल होना
और अश्रु बहाना
यही मेरी पूंजी है
मोहन ये आह
क्या तुम तक
पहुंचती है?
क्या तुम्हे भी
याद आती है
क्या तुम भी
विरह मे
तडपते हो?
निर्विकार
निर्मोही
निर्लेप हो
जानती हूँ
फिर भी
सुना है
किसी के लिये
तुम भी तड्पते हो
उस किसी मे
एक नाम मेरा भी
जोड लेना
राधा नही बनना
बस बंसी बना
अधरों पर
सजा लेना
मुझे भी
श्री अंग लगा लेना
प्राण रस फ़ूंक देना
अमृत रस बरसा देना
श्याम ,मुझे भी
अपना बना लेना



ये उस दिन सुबह लिखी गयी थी जिस दिन जापान मे सुनामी का कहर बरपा था और शायद एक कहर इस तरह मेरे दिल पर भी बरपा था या शायद आगत का कोई संदेशा था ये और दिल से ये उदगार फ़ूट पडे।

रविवार, 20 मार्च 2011

मै तो हर मोड पर उनको ढूँढा सदा्

मै तो हर मोड  पर
उनको ढूँढा सदा्
होली के बहाने
रंगो को लगाने
ना जाने कौन गली
छुपे हैं सांवरिया
किस बैरन ने
छुपाय लीन्हो
सजनवा हमार
हरण कर लीन्हो
कोई तो पता
बताय दीन्हो
होली म्हारी
सरस कर दीन्हो

टेसू के फ़ूल
कुम्हला गये हैं
अबीर गुलाल भी
रोने लगे हैं
सजन के बिन
मायूस हुये हैं
अब तो पता
बताय दो गुजरिया
फ़ाग को रंग
चढाय दो गुजरिया
हमका सजन से
मिलाय दो गुजरिया
प्रीत रस मे
भीजन दो गुजरिया
हमका सांवरिया से
मिलाय दो गुजरिया
आज प्रेम अटरिया
चढ्न दो बावरिया
होली के बहाने
प्रेम की होली
खेलन दो गुजरिया
श्याम को मेरा
होने दो गुजरिया

गुरुवार, 17 मार्च 2011

आज बिरज मे होरी रे रसिया

आज बिरज मे होरी रे रसिया-2-
मेरे  बिरज मे ना हुई बरजोरी रे रसिया

मै भी प्रेम रंग घोल के बैठी
श्याम मिलन की आस मे बैठी
मुझ संग हुई ना ठिठोली रे रसिया
आज बिरज मे होरी रे रसिया-2-

श्याम रंग की मै हूँ दीवानी
मीरा सी नाचूँ मस्तानी
मुझ संग होरी ना खेले रे सांवरिया
आज बिरज मे होरी रे रसिया

शनिवार, 12 मार्च 2011

कैसे खेलूँ मैं कन्हाई

कैसे खेलूँ मैं कन्हाई 
तेरे संग प्रीत की होरी 

ब्रज गोपियाँ  
ढूँढें गली गली 
प्रेम की ओढ़ चुनरिया 
 यहाँ वहां जहाँ तहां देखा
मिला न श्याम सलोना  
 जा बैठा छुप के 
मैया के आँचल में
कैसे ढूंढूं मैं कन्हाई 
कैसे खेलूँ मैं कन्हाई
तेरे संग प्रीत की होरी  


श्याम रंग की 
भर पिचकारी 
जब सखियों ने मारी
मैं भी हो गयी श्याम रंग में 
मैं भी रंग गयी श्याम रंग में
सुन मेरे ओ कन्हाई
अब तो आ जा रे सांवरिया
अब तो मिल जा रे सांवरिया
कैसे खेलूँ मैं कन्हाई
तेरे संग प्रीत की होरी 


प्रीत की रीत मैं नाही जानूं 
होरी को बन गयो बहानो 
श्याम से मिलने है जानो 
अब न चलेगो कोई बहानो
आ जा आ जा रे सांवरिया
गले लगा जा रे सांवरिया
श्याम रंग में भिगो जा रे सांवरिया
दुल्हनिया अपनी बना जा रे सांवरिया
प्रेम रस पिला जा रे सांवरिया
फाग मेरी भी मना जा रे सांवरिया
होरी की रीत निभा जा रे सांवरिया
पूरण कर जा हर आस रे सांवरिया
छूटे अब ये भव त्रास रे सांवरिया
होरी का रंग ऐसा चढा जा रे सांवरिया
सुध बुध खो बन जाऊँ जोगनिया
मै तेरी तू मेरा बन जाये रे सांवरिया
इक दूजे मे खो जायें रे सांवरिया
रंग मे रंग मिल जाये रे सांवरिया
इक रंग हो जायें रे सांवरिया 
होरी हो जाये सार्थक रे सांवरिया
प्रीत चढ जाये गगन रे सांवरिया

मंगलवार, 8 मार्च 2011

कान्हा कान्हा
मै जोगन बन जाऊंगी
तेरे प्रेम मे
मै जोगन बन जाऊँगी

श्याम प्यारे मोहन प्यारे
रटती रही नाम तुम्हारे
अब तुम बिन कटते नही
दिन रैन हमारे
इक बार आ जाओ
मोहन प्यारे
गले से लगा जाओ
श्याम सखा रे
कान्हा कान्हा
मै जोगन बन जाऊंगी


कर में लेकर इकतारा
प्रेम दीवानी मीरा बन जाऊँ
श्याम नाम की रटना लगाऊं
श्याम धुन में हो मतवाली
गली गली नाचूं
बन श्याम दीवानी
कान्हा कान्हा
मैं जोगन बन जाउंगी



मंगलवार, 1 मार्च 2011

वक्त वक्त की बात है

अरे शिखा कहाँ भागी जा रही है ? ढंग से चप्पल तो पहन ले और फिर बैठकर आराम से नाश्ता कर ले. ये क्या तरीका है भागते- भागते एक कौर मूंह  में और एक हाथ में और दूसरे हाथ में सामान. ये कोई तरीका है कितनी बार कहा है आराम से बैठकर खाया कर मगर तू तो सुनती ही नहीं है. उमा बोले जा रही थी और शिखा फटाफट काम करती जा रही थी और हंसती जा रही थी, अरे माँ, क्यूँ परेशान हो रही हो ? मैंने खा लिया है तुम्हें तो पता है न देर हो रही है और देर से ऑफिस जाउंगी तो डांट पड़ेगी शिखा कहती रही मगर उमा तो अपने ही ख्यालों में थी . बोली , "न जाने क्या होगा तेरा मुझे तो समझ ही नहीं आता, कैसे तेरा गुजारा होगा ? अरे पराये घर भी जाना है , यहाँ तो मैं हूँ सब कुछ पका -पकाया तैयार मिलता है वहां तो तुझे ही सब करना भी पड़ेगा और खुद को जाना भी होगा तब कैसे करेगी"? 
शिखा बोली,"ऐसा कुछ नहीं होगा ,देख लेना, सभी तो होंगे , मिलजुलकर करेंगे तो जल्दी से हो जायेगा सुनते ही उमा बोली , कौन से ख्वाब में जी रही है मेरी बिटिया , आज तक तो मैंने देखा नहीं एक भी ऐसा घर, बस घर की बहू ही सबके लिए काम करे और कमाकर भी लाये . इस पर शिखा बोली, माँ तुम देखना, अब ऐसा कुछ नहीं होने वाला . आज सब  अपना- अपना काम खुद  करते हैं और वहां भी सभी को करना होगा . वो किसी अनोखी मिटटी के नहीं बने जैसे मैं वैसे वो. और फिर आजकल काफी से ज्यादा काम तो मशीनों से ही हो जाते हैं . तुम चिंता मत करो. इस पर उमा बोली , "चिंता ! तेरी तो सबसे ज्यादा चिंता है . खुद को कुछ आता है नहीं कैसे सबको खुश रखेगी? और पति का भी ध्यान रखना पड़ेगा तुझे ही .....सुनते ही शिखा खिलखिलाकर हंस पड़ी और बोली, "मैं ख्याल रखूँगी "? क्यूँ क्या वो कोई दूध पीता बच्चा होगा? सुनकर उमा बोली, " कैसी बात करती है ? पति की जरूरतों का ध्यान रखना ही तो पत्नी का फ़र्ज़ होता है . उसके काम तो करने ही पड़ते हैं".
इतना  सुनना था कि शिखा तिलमिला कर बोली , क्यूँ उसके काम करूँगी, मैं क्या कोई उसकी गुलाम होंगी जो काम करूँगी. अरे माँ, ये बताओ मुझमे क्या कमी है जो मैं घर और बाहर दोनों जगह अपने को पीसती रहूँगी . अच्छे ओहदे पर हूँ , अच्छी तनख्वाह है , किस बात की कमी है मुझमे. और फिर आजकल पति और पत्नी दोनों को मिल जुलकर ही काम करना पड़ता है और करना भी चाहिए तभी ज़िन्दगी आराम से गुजरती है . 
सुनकर उमा बोली , कैसी बातें करती है शिखा , मुझे तो कभी -कभी डर लगता है पता नहीं तेरी कैसे निभेगी? बराबरी  करने से  कुछ नहीं होता .......कितना भी ऊँचा ओहदा हो हर औरत को घर के कामकाज , देखभाल करनी ही पड़ती है . आखिर वो भी तो पैसा  लाता  है घर में  और उसका घर होता है तो क्यूँ नही चाहेगा तुम से ऐसी अपेक्षा कहकर उमा शिखा का मुँह ताकने लगी. माँ , पैसे लाने से ही सब कुछ नहीं होता मैं भी तो लाती हूँ . बराबर के अधिकार और कर्त्तव्य होते हैं दोनों के. कोई छोटा बड़ा नहीं होता पति- पत्नी के रिश्ते में . अब ये बताओ तुमने अपनी बेटी में ऐसी कौन सी कमी देखी जो वो किसी के आगे झुकेगी. जितना वो अपने बेटे पर पैसा खर्च करते हैं क्या तुमने उससे किसी भी तरह कम पैसा खर्चा किया है क्या ? क्या उन लोगों से कम शिक्षा दिलवाई है ? या मुझमे किसी तरह की कोई कमी है ? जब मुझमे कोई कमी नहीं है तो तुम क्यों चिंता करती हो . अब वो ज़माने नहीं रहे . आज स्त्री और पुरुष दोनों कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तभी सफलता पाते हैं और तुम देखना मेरे साथ ऐसा ही होगा और बहुत खुशहाल जीवन होगा हमारा . तुम निश्चिन्त रहो , इतना कहकर शिखा तो चली गयी मगर उमा अपनी ही उधेड़बुन में पड़ी रही . उसे चिंता सताती कि इसके ऐसे विचारों के कारण न जाने कैसे इसकी निभेगी ?

मगर वक्त अपनी रफ़्तार से चलता है . शिखा ने जो कहा वो ही करके दिखाया  भी . आज शिखा और रोहित दोनों ही खुशहाल जीवन जी रहे हैं . मिलबाँट कर काम करते हैं बच्चों को भी अच्छी परवरिश दे रहे हैं ये देखकर उमा ख़ुशी से फूली नहीं समाती और सोचती वक्त के साथ सब बदलता है फिर चाहे  सामाजिक मान्यताएं हो या इंसानी सोच. उनके वक्त में तो ऐसा सोच भी नहीं सकते थे मगर आज की पीढ़ी काफी व्यावहारिक हो गयी है और एक दूसरे की जरूरतों को समझती है तभी इतनी कुशलता से घर , ऑफिस , बच्चों और समाज में तालमेल बैठा लेती है . आज की पीढ़ी की कार्यकुशलता , ऊर्जा और हिम्मत देख उमा की सारी सोच को विराम मिल गया था और भविष्य के प्रति वो आश्वस्त हो चुकी थी.

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

क्या हाऊस वाईफ का कोई अस्तित्व नहीं ?

क्या हाऊस वाईफ  का कोई अस्तित्व नहीं ?
क्या उसे financial decision लेने का कोई अधिकार नहीं ?
क्या   हाऊस वाईफ सिर्फ बच्चे पैदा  करने और घर सँभालने के लिए होती हैं ?
क्या हाऊस वाईफ का परिवार , समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य हैं ?
यदि नहीं हैं तो
क्यों ये आजकल के लाइफ insurance , बैंक या mutual fund आदि से फ़ोन पर पूछा  जाता हैं कि आप हाऊस वाईफ हैं या वर्किंग  ?
financial decision तो सर लेते होंगे ?
इस तरह के प्रश्न करके ये लोग  हाऊस वाईफ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं कर रहे ?

क्यों आज ये पढ़े लिखे होकर भी ऐसी अनपढ़ों जैसी बात पूछी जाती हैं और सबसे मज़ेदार बात ये कि पूछने वाली भी महिला होती हैं .
क्यूँ उसे पूछते वक्त इतनी शर्म नहीं आती कि महिलाएं वर्किंग हों या हाऊस वाईफ उनका योगदान देश के विकास में एक पुरुष से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं . जबकि  आज सरकार ने भी घरेलू  महिलाओं के योगदान को सकल घरेलू  उत्पाद में शामिल करने का निर्णय लिया हैं .................अपने त्याग और बलिदान से , प्रेम और सहयोग से हाऊस वाईफ इतना बड़ा योगदान करती हैं ये बात ये पढ़े लिखे अनपढ़ क्यूँ नहीं समझ पाते ?

आज एक स्वस्थ और खुशहाल समाज इन्ही हाऊस वाईफ की देन हैं यदि ये भी एक ही राह पर निकल पड़ें तो पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करने में कोई कमी नहीं रहेगी और उसका खामियाजा वो चुका रहे हैं तभी वो भी हम पूरब वालों की तरफ देख रहे हैं और हमारे रास्तों का अनुसरण कर रहे हैं . आज बच्चों की परवरिश और घर की देखभाल करके जो हाऊस वाईफ अपना योगदान दे रही हैं वो किसी भी वर्किंग वूमैन से काम नहीं हैं ---------क्या ये इतनी सी बात भी इन लोगों को समझ नहीं आती ?

इस पर भी कुछ लोगों को ये नागवार गुजरता है और वो उनके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं ..........पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक इकाई की तरह होते हैं फिर सिर्फ आर्थिक निर्णय लेने की स्थिति में एक को ही महत्त्व क्यूँ? क्या सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो कमाता है ? ऐसा कई बार होता है कि कोई मुश्किल आये और पति न हो तो क्या पत्नी उसके इंतज़ार में आर्थिक निर्णय न ले ? या फिर पत्नी की हैसियत घर की चारदीवारी तक ही बंद है जबकि हम देखते हैं कि कितने ही घरों में आज और पहले भी आर्थिक निर्णय महिलाएं ही लेती हैं........पति तो बस पैसा कमाकर लाते हैं और उनके हाथ में रख देते हैं ..........उसके बाद वो जाने कैसे पैसे का इस्तेमाल करना है ..........जब पति पत्नी को एक दूसरे पर इतना भरोसा होता है तो फिर ये कौन होते हैं एक स्वच्छ और मजबूत रिश्ते में दरार डालने वाले.............ये कुछ लोगों की मानसिकता क्या दर्शा रही है कि हम आज भी उस युग में जी रहे हैं जहाँ पत्नी सिर्फ प्रयोग की वस्तु थी ............मानती हूँ आज भी काफी हद तक औरतों की ज़िन्दगी में बदलाव नहीं आया है तो उसके लिए सिर्फ हाउस वाइफ  के लिए ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा जबकि कितनी ही वोर्किंग वुमैन  भी आज भी निर्णय नहीं ले पातीं ...........उन्हें सिर्फ कमाने की इजाजत होती है मगर खर्च करने या आर्थिक निर्णय लेने की नहीं तो फिर क्या अंतर रह गया दोनों की स्थिति में ? फिर ऐसा प्रश्न पूछना कहाँ तक जायज है कि निर्णय कौन लेता है ? और ऐसा प्रश्न क्या घरेलू महिलाओं के अस्तित्व और उनके मन सम्मान पर गहरा प्रहार नहीं है ?


 ऐसी कम्पनियों पर लगाम नहीं लगाया जाना चाहिए ..........उन्हें इससे क्या मतलब निर्णय कौन लेता है .........वो तो सिर्फ अपना प्रयोजन बताएं बाकि हर घर की बात अलग होती है कि कौन निर्णय ले ...........ये उनकी समस्या है चाहे मिलकर लें या अकेले........उन्हें तो इससे फर्क नहीं पड़ेगा न ........फिर क्यूँ ऐसे प्रश्न पूछकर घरेलू महिलाओं के अस्तित्व को ही सूली पर लटकाते हैं ?


क्या आप भी ऐसा सोचते हैं कि -----------

घरेलू महिलाएं निर्णय लेने में सक्षम नहीं होतीं?
उन्हें अपने घर में दायरे तक ही सीमित रहना चाहिए?
आर्थिक निर्णय लेना उनके बूते की बात नहीं है ?
जो ये कम्पनियाँ कर रही हैं सही कर रही हैं?

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

क्या होती है माँ

माँ की महिमा अनंत है कितना ही कह लो हमेशा अधूरी ही रहेगी ...........क्या माँ के प्यार को शब्दों में बांधा जा सकता है ? उसके समर्पण का मोल चुकाया जा सकता है ? जैसे ईश्वर को पाना आसान नहीं उसी तरह माँ के प्यार की थाह पाना आसान नहीं क्यूँकि माँ इश्वर का ही तो प्रतिरूप है फिर कैसे थाह पाओगे? कैसे उसका क़र्ज़ चुकाओगे? 

माँ के प्रति सिर्फ फ़र्ज़ निभाए जाते हैं , क़र्ज़ नहीं चुकाए जा सकते . माँ के भावों को समझा जाता है उसके त्याग का मोल नहीं लगाया जा सकता ...........उसको उसी तरह उम्र के एक पड़ाव पर सहेजा जाता है जैसे वो तुम्हें संभालती थी जब तुम कुछ नहीं कर सकते थे ...........जानते हो जैसे एक बच्चा अपनी उपस्थिति का अहसास कराता है .........कभी हँसकर , कभी रोकर , कभी चिल्ला कर , कभी किलकारी मारकर......... उसी तरह उम्र के एक पड़ाव पर माँ भी आ जाती है जब वो अकेले कमरे में गुमसुम पड़ी रहती है और कभी -कभी अपने से बातें करते हुए तो कभी हूँ , हाँ करते हुए तो कभी हिचकी लेते तो कभी खांसते हुए अपने होने का अहसास कराती है और चाहती है उस वक्त तुम रुक कर उससे उसका हाल पूछो , दो शब्द उससे बोलो कुछ पल उसके साथ गुजारो जैसे वो गुजारा करती थी और तुम्हारी किलकारी पर , तुम्हारी आवाज़ पर दौड़ी आया करती थी और तुम्हें गोद में उठाकर पुचकारा करती थी , तुमसे बतियाती थी ........ऐसे ही तुम भी उससे कुछ पल बतियाओ , उसकी सुनो चाहे पहले कितनी ही बार उन बातों को तुम सुन चुके होते हो पर उसे तो याद नहीं रहता  ना तो क्या हुआ एक बार और सही .........उसने भी तो तुम्हारे एक ही शब्द को कितनी बार सुना होगा , जब समझ नहीं आता होगा मगर तब भी उस शब्द में तुम्हारी भाषा समझने की कोशिश करती होगी ना ............वैसे ही क्या तुम नहीं सुन सकते ? क्या कुछ पल का इन छोटे छोटे लम्हों में उसे सुकून नहीं दे सकते ? बताओ क्या तुम ऐसा कर पाओगे ? नहीं , तुम ऐसा कभी नहीं कर पाओगे. तुम्हारे पास वक्त ही कहाँ है ? तुम तो यही उम्मीद करते हो कि इतनी उम्र हो गयी माँ की मगर अक्ल नहीं है कब क्या कहना है .........ज़रा सी बात पर ही  दुत्कार दोगे ...........बहुत मुश्किल है माँ होना और बहुत आसान है बेटा बनना ...............ये तो एक बानगी भर है उसने तो अपनी ज़िन्दगी दी है तुम्हें ...........अपने लहू से सींचा है ..........क्या कभी भी कोई भी बेटा या बेटी इसका मोल चुका सकते हैं ?  क्या कभी भी मातृॠण  से उॠण  हो सकते हैं ? ये तो सिर्फ अपना फ़र्ज़ भी ढंग से निभा लें और माँ को प्यार से दो रोटी दे दें दो मीठे बोल बोल दें और थोडा सा ध्यान दे दें तो ही गनीमत है .............इतना करने में भी ना जाने कितने अहसान उस बूढी काया पर डाल दिए जायेंगे और वो अकेली बैठी दीवारों से बतियाएगी मगर अपना दुःख किसी से ना कह पाएगी आखिर माँ है ना ........कैसे अपने ही बच्चों के खिलाफ बोले ................हर दर्द पी जायेगी और ख़ामोशी से सफ़र तय कर जायेगी ..........जाते जाते भी दुआएँ दे जायेगी .........बस यही होती है माँ ..........जिसके लिए शब्द भी खामोश हो जाएँ .

वक्त की सलीब पर लटकी
एक अधूरी ख्वाहिश है माँ
बच्चे के सुख की चाह में पिघली
एक जलती शमा है माँ
ज़िन्दगी के नक्कारखाने में
बेआवाज़ खामोश पड़ी है माँ
वक्त पर काम आती है  माँ
मगर वैसे बेजरूरत है माँ
घर के आलीशान सामान में
कबाड़ख़ाने का दाग है माँ
सांसों संग ना महकती है माँ
अब तो उम्र भर दहकती है माँ 
जब किसी काम ना आये
तो उम्र भर का बोझ है माँ
वक्त की सलीब पर लटकी
एक अधूरी ख्वाहिश है माँ

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

आम के पेड़ पर बौर आने लगे
कोयलिया भी गुनगुनाने लगी
कलियाँ भी खिलखिलाने लगीं
पुष्पों पर वासंतिक रंग छाने लगे
दिल में उमंगों के गीत आने लगे
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

कालिंदी भी लहराने लगी
प्रेम मयूर ह्रदय आँगन में
मदमस्त हो नृत्याने लगा
कुञ्ज गलियाँ भी बुलाने लगीं
मुरलिया भी प्रेम धुन गाने लगी
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
अब तो प्रेम रस सब बहाने लगे
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

प्रेम चुनरिया धानी कर दो
प्रेम रस में मुझको पग दो
आनंद सिन्धु आनंद बरसा दो
महारास में शामिल कर लो
प्रीत की रीत निराली कर दो
प्रेम रंग वासंतिक कर दो
आ जाओ कान्हा मन मधुबन में
प्रकृति भी प्रेम रस बहाने लगी

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

अनूठा परिवर्तन्………क्या आप भी ऐसा सोचते हैं?

आज एक सोच ने जन्म लिया है यार , पता नहीं तू या दुनिया उसे कैसे ले मगर सोचता हूँ कि काश ऐसा हो सके तो आधे से ज्यादा परिवार सुख शांति का जीवन बसर कर सकें ........कहते कहते राकेश  सोच में डूब गया .

अरे ऐसी कौन सी सोच ने तुझे जादू की पुडिया थमा दी कि तू दुनिया की मुश्किलात का हल ढूँढने लगा ...........बोल ना राकेश ..........अबे साइंटिस्ट कहाँ खो गया , अब कुछ बोल भी , कहते हुए विनीत राकेश को देखने लगा .

हलकी सी मुस्कान बिखेरता हुआ , आँखों में गहराई लिए राकेश बोला ,देख विनीत , आधे से ज्यादा रिश्ते आपस में आई दूरी की वजह से टूट जाते हैं खास तौर से पति पत्नी का रिश्ता ...........दोनों एक उम्र तक तो एक दूसरे को झेल लेते हैं मगर उसके बाद जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब दोनों में एक ठंडापन सा आने लगता है , एक दूसरे से कटने लगते हैं , छोटी छोटी बातें   इतना उग्र रूप धारण कर लेती हैं कि परिवार बिखर जाते हैं मगर कोई भी उस मोड़ पर अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता ..........इसे ज़िन्दगी का अहम् बना लेता है और अपने अहम् से कोई नीचे नहीं आना चाहता , एक पल के लिए रुकते हुए राकेश बोला ,"ऐसे में अगर कुछ ऐसा हो जाये जिससे ज़िन्दगी में नयी ऊर्जा का संचार हो जाए तो क्या वो रिश्ते जो इतने सालों से एक दूसरे से बंधे थे , टूटने से बच ना जाएँ .

इतना सुनकर विनीत बोला," बात तो सही है मगर महाराज ये भी बताइए कि कैसे होगा ये सब ? कौन सा जादू का मंतर फेर कर रिश्तों को टूटने से बचाया जा सकता है ."


देख, आज कल ज्यादातर रिश्ते किसी दूसरे के ज़िन्दगी में आने से टूटते हैं , ये तो मानता है ना तू .ज्यादातर मामले ये ही होते हैं . अनैतिक सम्बन्ध भी ज्यादातर एक उम्र के बाद ही पनपते हैं जब रिश्तों में बासीपन महसूस होने लगता है या दोनों अपनी ही दुनिया में मस्त होजाते हैं और दूसरे से अपेक्षा रखते हैं कि वो उन्हें अब तक नहीं समझा तो ऐसे रिश्ते का बोझ क्या ढोना ?तब इंसान दूसरी तरफ , जहाँ उसकी सोच और उसे समझने वाला कोई मिलता है तो उसकी तरफ उसका रुझान बढ़ने लगता है और कब ऐसे रिश्ते मर्यादा की सीमाएं पार कर लेते हैं और फिर अच्छा भला  घर कब टूट जाता है, पता भी नहीं चलता . मगर अपने जीवन साथी से कोई कुछ नहीं कहता कि एक दूसरे से वो क्या चाहते हैं और शायद दोनों में से कोई एक दूसरे से इतने वर्ष साथ रहने का बाद कहने की इच्छा भी नहीं रखता ये सोचकर कि जो अब तक नहीं समझा वो अब कहने पर क्या समझेगा ? और बस आपस में दूरियां बढ़ने लगती हैं और फिर धीरे धीरे जब  किसी का जीवन में प्रवेश होता है तो वो उसे अपना सा लगने लगता है ...........और यहीं घर परिवार टूटने लगता है.


हाँ , आजकल तो यही देखने में ज्यादा आ रहा है वरना तो ज़िन्दगी कभी हँसते तो कभी रोते सभी गुजार ही लेते हैं मगर किसी दूसरे का दखल अपनी शादी शुदा ज़िन्दगी में कोई नहीं चाहता .


तो फिर सोच अगर ये दखल एक सकारात्मक रूप ले ले तो ?


अरे वो कैसे? चौंकता हुआ विनीत बोला .


तब राकेश हँसता हुआ बोला.........देख हम सभी की ज़िन्दगी में ये क्षण आते ही हैं मगर हर कोई उसका डटकर मुकाबला नहीं कर पाता  सिर्फ कुछ दृढ निश्चयी  लोग होते हैं जो इस फेज  से गुजर जाते हैं मगर बाकी की ज़िन्दगी अस्त व्यस्त हो जाती है ............ऐसे में अगर वो इस रिश्ते को सिर्फ एक ऐसे रूप में लें जैसे राधा कृष्ण का था , जैसे वहाँ वासना का कोई स्थान नहीं था मगर रिश्ता इतना गहरा था कि जितना कृष्ण की पत्नियाँ भी कृष्ण को नहीं जानती थीं उतना राधा जानती थी ..........इतना पवित्र , पावन रिश्ता हो और सबसे बड़ी बात ये दोनों को पता भी हो चाहे पति हो चाहे पत्नी , किसी का भी रिश्ता हो मगर पता दोनों को हो कि वो उसे चाहता है या चाहती है मगर उस चाहत में वासना नहीं है सिर्फ एक दूसरे को समझने की शक्ति है जो उनके अहसासों को  समझते हैं , उनकी अनकही बातों को दिशा देने वाला कोई है उनके जीवन में , वो बातें  जो कोई भी पति या पत्नी कई बार एक दूसरे से नहीं कह पाता वो एक अनजान जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर समझता है उससे कह देता है और फिर वो अपने को कितना हल्का महसूस करने लगता है और ज़िन्दगी दुगुने जोश से जीने लगता है क्योंकि सिर्फ एक यही अहसास काफी होता है कई बार जीने के लिए कि कोई है जो उसे उससे ज्यादा समझता है, जिससे वो अपने दिल की उन सब बातों को कह सकता है जो अपने साथी से नहीं कह पाता  ..........इसी से ज़िन्दगी में आशा और उर्जा का संचार होने लगता है और ज़िन्दगी एक नयी करवट लेने लगती है ..........बस सबसे बड़ी बात ये हो कि पति और पत्नी दोनों को एक दूसरे पर इतना विश्वास जरूर हो कि वो इस सम्बन्ध को अपनी मर्यादा से आगे नहीं लाँघेगा .............फिर देखो ज़िन्दगी कितनी हसीन हो जाएगी .............बशर्ते वहाँ भाव प्रधान हों वासना नहीं ...........कहकर राकेश चुप हो गया और विनीत खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, "बेटे , ये दुनिया अभी इतनी बोल्ड नहीं हुई है जिसने आज तक राधा कृष्ण के सम्बन्ध को नहीं स्वीकारा उस पर भी आक्षेप लगाती रहती है उसमे कहाँ ये उम्मीद करता है कि इस बात को स्वीकार करेगी ............अरे ऐसे रिश्ते की आड़ में ना जाने कौन कैसे खेल खेल जाएगा ..........वैसे मैं तेरी बात भी समझ रहा हूँ मगर सिर्फ मेरे समझने से क्या होगा ............शायद तेरा ख्याल समाज को एक नयी दिशा दे मगर इतना बड़ा दिल कहाँ से लायेगा कोई ?जो सुनेगा हंसेगा या पागल कह देगा और वैसे भी कानून में भी इसे मान्यता नहीं मिलेगी ............अभी सोच में इतने बदलाव नहीं आये हैं ........अब मुझे ही देख , यदि तू कहे कि मैं तेरी बीवी को तुझसे ज्यादा जानता हूँ और जो वो महसूस करती है उसका मुझे ज्यादा पता है तो इतना सुनते ही मैं आग बबूला हो जाऊँगा और शायद कोई गलत कदम भी उठा लूं या तुझसे हमेशा के लिए नाता तोड़ लूं ...........मैं ये मानता हूँ कि दूसरे के लिए कहना आसान है मगर व्यावहारिकता में लाना उतना ही मुश्किल ..........जब मैं तेरी बात मानकर भी नहीं मानना चाहता तो सोच ये दुनिया कैसे इसे स्वीकार कर सकती है? कहकर विनीत राकेश का मुँह देखने लगा और राकेश एक गहरी सोच में डूब गया और बोला ............परिवर्तन के लिए एक बार तलवार का दंश खुद ही झेलना पड़ता है , गोली अपने सीने पर ही खानी पड़ती है.........अब देख आज समाज ने कितने परिवर्तन स्वीकार कर ही लिए ना जैसे लिव इन रिलेशन हो या गे , धीरे धीरे सब स्वीकार्य कर ही लेता है समाज क्योंकि सब अपने मन के मालिक है और व्यस्क हैं तो कोई किसी पर उस हद तक दबाब बना ही नहीं पाता  ............बेशक कदम क्रांतिकारी है मगर सबके मन को एक बार सोचने पर मजबूर तो करेगा ही आखिर कौन चाहेगा कि आपसी ठंडेपन के कारण उनकी बसी बसाई  गृहस्थी उजड़ जाए .........कई बार कहा भी जाता है ना कि कुछ दिन एक दूसरे से दूर रहो और फिर महसूस करो कि तुम दोनों के जीवन में  एक दूसरे के लिए कितनी अहमियत है बस उसी अहमियत का अहसास बिना दूर जाये भी बना रहेगा अगर रिश्ते को थोड़ी स्पेस देने लगें हम  और अपने विचारों में थोडा खुलापन ला सकें और एक दूसरे को उसके अंदाज़ में जीने की थोड़ी सी स्वतंत्रता देने लगें मगर मर्यादा में रहकर ही तो देखना दुनिया में ज्यादातर घर कभी टूटें ही ना .........उनके घरोंदे हमेशा आबाद रहें .............सिर्फ ज़रा सा सोच में परिवर्तन करने से और देखना एक दिन आएगा विनीत जब दुनिया इस बात को भी स्वीकारेगी और मुझे उस दिन का इंतज़ार है और देखना , जो सकता है इसकी पहल मुझे  ही करनी पड़े .......कहकर राकेश अपने विचारों की दुनिया में खो गया .

राकेश द्वारा दिया विचार क्या समाज स्वीकार कर पायेगा?
क्या रिश्तों को इस रूप में नयी दिशा दी जा सकती है?
क्या आप अपने जीवन साथी की ज़िन्दगी में किसी और का प्रवेश भावनात्मक स्तर पर स्वीकार कर सकते हैं ?
अपनी गृहस्थी बचाए रखने के लिए ऐसे स्वस्थ परिवर्तन को मान्यता दी जानी चाहिए ........जहाँ साथ रहना आसान भी ना हो और अलग भी नहीं होना चाहते हों उस स्थिति में क्या ये परिवर्तन सुखद नहीं होगा?


आप क्या सोचते हैं?