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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

सिर्फ़ एक झलक दिखा जाओ


सुना है कान्हा
निधि वन मे रास रचाते हैं
गोपियों को नाच नचाते हैं
मै गोपी बन कर आ गयी
मुझे मिले ना श्याम मुरारी
मेरी चुनर रह गयी कोरी
श्याम ने खेली ना प्रीत की होरी
ललिता से प्रीत बढाते हैं
राधा संग पींग बढाते हैं
हर गोपी के मन को भाते हैं
पर मुझसे मूँह चुराते हैं
और मुझे ही इतना तडपाते हैं
ये कैसा रास रचाते हैं
जिसमे मुझे ना गोपी बनाते हैं
मेरी प्रीत परीक्षा लेते है
पर अपनी नही बनाते हैं
और मधुर मधुर मुस्काते हैं
अधरों पर बांसुरी लगाते हैं
मुझे ना बांसुरी बनाते हैं
सखि री
वो कैसा रास रचाते हैं
मुझे मुझसे छीने जाते हैं
पर दूरी भी बनाते हैं
पल पल मुझे तडपाते हैं
उर की पीडा को बढाते हैं
पर पीर समझ ना पाते हैं
हाय्………श्याम क्यों मुझसे ही रार मचाते हैं
बृज गोपिन की धूल भी
न मुझे बनाते हैं
लता पता ही बना देते
कुछ यूं ही अपना मुझे बना लेते
मेरी चूनर मे अपनी
प्रीत का दाग लगा देते
मै भी मतवारी हो जाती
चरण कमल मे खो जाती
उनकी दीवानी हो जाती
इक मीरा और  बना देते
मुझे श्याम रंग मे समा लेते
तो उनका क्या घट जाना था
मान ही तो बढ जाना था
और मुझे किनारा मिल जाना था
अब कश्ती भंवर मे डोल रही है
मनमोहन को खोज रही है
आ जाओ हाथ पकड लो सांवरिया
मै तो हो गयी तेरी बावरिया
मुझे अपनी जोगन बना जाओ
प्रीत मे अपनी भिगा जाओ
एक झलक दिखा जाओ
सिर्फ़ एक झलक दिखा जाओ
हर आस को पूरण कर जाओ
प्रेम परिपूरण कर जाओ
प्रीत को परवान चढा जाओ
श्याम बस इक बार झलक दिखा जाओ……………।

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

" नदी हूँ फिर भी प्यासी "

 
ए .....ले चलो 
मुझे मधुशाला  
देखो
कितनी प्यासी है मेरी रूह
युग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण  क्रंदन
न सुनाई दिया 
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में 
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए .........एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते 
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ..........प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस .............और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद 
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ..........और सांस थम जाए 
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ...........
ए ...........एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ........... रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

इकतरफ़ा प्रेम के स्वामी


इकतरफ़ा प्रेम के स्वामी
करते हो अपनी मनमानी
राधे को आधार बनाया
यूँ अपना पिंड छुडाया
सभी गोपियन को भरमाया
कैसा तुमने जाल बिछाया

सही कहा ………इकतरफ़ा प्रेम के स्वामी

क्या नही हो मोहन?
तुमने तो प्रेम करना जाना ही नहीं
बस सब तुम्हें चाहें
और तुम ना किसी को चाहो
उस पर तुर्रा ये कि
सिर्फ़ मुझे चाहो
बाकी सारी दुनिया छोड दो
वाह रे गुरुघंटाल
खूब धमाचौकडी तुमने मचायी है
पहले खुद संसार रचाया
उसमें इंसान बनाया
उसे कर्म का पाठ पढाया
भाईचारे की शिक्षा दी
और जब उसने वो मार्ग अपनाया
तब तुमने अपना रंग दिखलाया
मुझे चाहना है तो सबको छोड दो
वाह ……क्या कहने तुम्हारे
और तब भी तुम मिलो ना मिलो
ये भी तुम्हारी मर्ज़ी
तुम दरस दो ना दो
ये भी तुम्हारी मर्ज़ी
जब सब तुम्हारी ही मर्ज़ी से होना है
तो क्यों इंसान पर दोष लगाते हो
वो तो तुम्हारी तरफ़ आता है
फिर उसे पुआ हाथ मे ले
बार - बार दिखाते हो
जो जब तुम्हारी तरफ़ आता है
तो संसार मे फ़ंसाते हो
उसके प्रलोभन दिखाते हो
और जब तुमसे दूर जाता है
तो अपनी तरफ़ बुलाते हो
अजब ढंग तुमने अपनाये हैं
मोहन ये कैसे खेल रचाये हैं
बस तुम्हें तो खेल खेलना है
खिलौना हमें बनाये हो
तभी तो इकतरफ़ा प्रेम में फ़ंसाये हो
मगर खुद नहीं फ़ँसते हो …………जादूगर !
बस यही तुम्हारा तिलिस्म है
यही तुम्हारा जादू है
सब भ्रमित रहते हैं
तुम्हारे मोहजाल मे फ़ंसते हैं
और तुम्…………नटवर !
नट की तरह करतब दिखाते हो
और प्रेमी को
इकतरफ़ा प्रेम की सूली पर चढाते हो
यहाँ तक कि
राधा को भी भरमाते हो
तुम्हें सर्वस्व बनाया राधे
जो तुम्हें पूजेगा वो ही मुझे पायेगा
आहा! क्या भ्रमजाल फ़ैलाया
सबको एक ही जाल मे उलझाया
और खुद सारी डोरियाँ हाथ में पकडे
सारथि बने प्रेम के घोडों को
ऐंड लगाते कैसे मुस्काते हो
मोहन ! ये चित्ताकर्षक मुस्कान बिखेरे
तुम खेल तो खूब रचाते हो
मगर देखो ……
पकडे भी जाते हो ……पकडे भी जाते हो ……है ना :)

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

मैं शून्यकाल का अगीत …………



मैं शून्यकाल का अगीत
तुम हो मोहन मेरे मीत


नृत्य करूँ या झांझर बजाऊँ
कहो तो मोहन कैसे रिझाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


बन मीरा गली गली अलख जगाऊँ
या राधा सी बावरिया बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


देहपुंज को कैसे बिसराऊँ
तुम पर कैसे वारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कौन सी कहो महावर रचाऊँ

जो तुम्हारे साधिकार दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………

कैसे आँख का अंजन बन जाऊं

जो तेरे नैनों की शोभा बढ़ाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो हार बन जाऊँ

जो तेरे गले से मैं लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो बांस बन जाऊँ

जो मुरली बन अधरों से लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कहो तो चरणों की रज बन जाऊँ

पायलिया बन उनसे लिपट जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


अंधेरी राह का दीप बन जाऊँ
निराकार को साकार बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


ह्रदय वेदना कैसे बुझाऊँ
कहो मोहन कौन सी गंगा नहाऊँ
जो तेरे दर्शन मैं पाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


मोहिनी मूरत पर वारी जाऊँ

श्याम तुम पर बलिहारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे माया का पर्दा गिराऊँ
जो तुझे साकार मैं पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे अपना आप मिटाऊँ
जो तुझमे खुद को समाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कह निर्झर बहता दरिया बन जाऊँ
बस ह्रदय कुंज मे तुम्हें बसाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


सुधि ना तेरी कभी बिसराऊँ
बस श्याम नाम के ही गुण मैं गाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


रसना को नाम का चस्का लगाऊँ
बस सांसों की सरगम पर रटना लगाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


जब भी तेरी गली का फ़ेरा लगाऊँ
बस सलोने मुखडे के दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


एक शून्य मे तुम मिल जाओ
तुम्हें पाकर एक शून्य मै बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


दृष्टि सृष्टि विलीन हो जाये
एक तेरा ही अक्स रह जाये
जिसमे मै एकाकार हो जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


आकुलता व्याकुलता का चरम हो
वो क्षण जीव का परम हो
जब तेरे दिव्य दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कालगति भी वहीं ठहर जाये
जब परमसत्य मे मैं मिल जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे घट को घट में समाऊँ

घटाकाश को व्यापक बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

मीरा होना आसान नही



मीरा होना आसान नही
मीरा बन जाओ तो बताना
देखो तुम्हे एक दिन है दिखाना
मीरा यूँ ही नही बना करतीं
श्याम को पति यूँ ही वरण नही किया करतीं
प्रेम दीवानी , मतवाली बन
गली गली यूँ ही अलख नही जगाया करती
मीरा बनने से पहले
खुद को मिटाना होगा
मीरा बनने से पहले
श्याम को रिझाना होगा
मीरा बनने से पहले
विष पी जाना होगा
ना केवल पीने वाला
बल्कि सांसारिक कटु
आलोचनाओं का विष
संबंधियों द्वारा ठुकराये जाने का विष
अपनों के विश्वास के
उठ जाने का विष
क्या तैयार हो तुम
ए कर्मभूमि के वासियों
मीरा बनने के लिए........
जहाँ पति को पत्नी में
सिर्फ औरत ही दिखती है
जहाँ औरत में समाज को
एक अबला ही दिखती है
जहाँ सिर से पल्लू उतरने पर
बवाल मच जाया करता है
जहाँ कन्याओं को गर्भ में ही
मार दिया जाता है
तो कभी चरित्रहीन करार
दिया जाता है
तो कभी प्रेम करने के जुर्म में
ऑनर किलिंग की सजा का
हकदार बना दिया जाता है
तो कभी अकेली स्त्री से
व्यभिचार किया जाता है
फिर चाहे वो किसी भी उम्र की क्यों ना हो
बच्ची हो या बूढी या जवाँ
सिर्फ लिंग दोहन की शिकार होती है
और उफ़ करने की भी
ना हक़दार होती है
क्या ऐसे समाज में
है किसी में हिम्मत मीरा बनने की
गली गली विचरने की
है मीरा जैसा वो पौरुष
वो ललकार , वो आत्मसमर्पण
जिसने अपना सर्वस्व श्याम को अर्पित कर दिया
और निकल पड़ी हाथ में वीणा संभाले
जिसे ना संसार में श्याम के अलावा
दूजा पुरुष दिखा
ऐसा नहीं कि उस वक्त राहें सरल थीं
शायद इससे भी गयी गुजरी थीं
नारी के लिए तो हमेशा समाज की दृष्टि
वक्र ही रही है
तो क्या मीरा ने ये सब ना झेला होगा
जरूर झेला होगा
किया होगा प्रतिकार हर रस्म-ओ-रिवाज़ का
और दिया होगा साथ अपने श्याम का
फिर कैसे वो विमुख रह सकते थे
कैसे ना वो मीरा का योगक्षेम वहन करते
लेकिन सर्वस्व समर्पण सा वो भाव
आज तिरोहित होता है
बस हमारा ये काम हो जाये
हमारा वो काम हो जाए
इसी में हम जीवनयापन करते हैं
तो कैसे मीरा बन सकते हैं
कैसे श्याम को रिझा सकते हैं
मीरा बनने के लिए मीरा भाव जागृत करना होगा
और मीरा भाव जागृत करने के लिए
मीरा को आत्मसात करना होगा
और मीरा को आत्मसात करने के लिए
खुद को राख बनाना होगा
और उस राख का फिर तर्पण करना होगा
तब कहीं जाकर मीरा का एक अंश प्रस्फुटित होगा
तब कहीं जाकर मीरा भाव से तुम्हारा ह्रदय द्रवीभूत होगा
यूँ ही मीरा नहीं बना जाता
यूँ ही नहीं श्याम को रिझाया जाता