प्रेम तो है ही शांति का प्रतीक और जो प्रेम का महासागर है, जिससे प्रेम उपजता है एक बूँद के रूप में वो कैसे स्वीकार सकता है एक कंकड की भी हलचल या एक लहर की तरह उछाल लेना……सत्यम शिवम सुन्दरम का आकार पाने के लिये , निराकार से एकाकार होने के लिये , हर तरंग का शांत होना जरूरी है तभी संभव है सम्पूर्ण प्रेम को पाना जहाँ कोई जल्दी नहीं , कोई वेग नहीं , कोई प्रवाह नहीं ………होती है तो एक अजस्र धारा सिर्फ़ बहती हुयी और उसमें चाहे जो समाये वो ही हो जाता है ………निर्द्वन्द, निर्विकल्प, निराकार …………प्रेम जिसका कोई आकार नहीं मगर फिर भी होता है साकार………प्रेमी के लिये उसके प्रेम के लिये उसको पूर्णता प्रदान करने के लिये…………प्रेम की गरिमा और भंगिमा को छूना सबके लिये संभव नहीं …………बस खुदी को मिटाना और निशब्द हो जाना ही तो प्रेम को पाना है …………क्योंकि मौन में ही तो प्रेम भासता है।
प्रेम को खोजन जो प्रेम चला ……बस प्रेम प्रेम प्रेममय हो गया………प्रेम मे होना होता है ………खोजना नहीं …………प्रेम खोजने से परे की विषय वस्तु है…………प्रेम जितना सरल है उतना ही गूढ ………तात्विक विवेचन संभव ही नहीं ………तभी तो प्रेमपंथ सबसे कठिन कहा गया है क्योंकि जिसकी कब चाल बदल जाये पता ही नहीं चलता कभी मीरा बना देता है तो कभी मोहन …………और कभी दर दर का भिखारी एक अपनी ही अलख जगाता ………व्याख्यातित करने चलोगे तो कुछ नहीं मिलेगा वो ही कोरे का कोरा मिलेगा अंत में …………बस एक धुन बजाओ और डूब जाओ बिना जाने उसका उदभव कहाँ है, बिना जाने उसका अंत कहाँ है ………विवेक पर पट्टी बाँध जिसने चोला रंगा है वो ही प्रेम को जाना है और जिसने तार्किक शास्त्र गढा है उसने सिर्फ़ शोध किया है प्रेम नहीं और प्रेम शोध का विषय नहीं…लेन देन के व्यापार से परे की स्थिति है प्रेम, हर चाह के मिटने की स्थिति का नाम है प्रेम, सर्वस्व समर्पण करने का नाम है प्रेम।जो करने से हो वो प्रेम नहीं ……ये तो स्वत:स्फ़ूर्त अनुभूति है , अजस्र बहती धारा कब किसे कैसे अपने साथ बहा ले जाती है पता नहीं चलता इसलिये कौन प्रेमी और कौन प्रेमास्पद्………हर भेद का मिट जाना ही प्रेम की चरमोत्कर्ष अवस्था है ।
प्रेम को खोजन जो प्रेम चला ……बस प्रेम प्रेम प्रेममय हो गया………प्रेम मे होना होता है ………खोजना नहीं …………प्रेम खोजने से परे की विषय वस्तु है…………प्रेम जितना सरल है उतना ही गूढ ………तात्विक विवेचन संभव ही नहीं ………तभी तो प्रेमपंथ सबसे कठिन कहा गया है क्योंकि जिसकी कब चाल बदल जाये पता ही नहीं चलता कभी मीरा बना देता है तो कभी मोहन …………और कभी दर दर का भिखारी एक अपनी ही अलख जगाता ………व्याख्यातित करने चलोगे तो कुछ नहीं मिलेगा वो ही कोरे का कोरा मिलेगा अंत में …………बस एक धुन बजाओ और डूब जाओ बिना जाने उसका उदभव कहाँ है, बिना जाने उसका अंत कहाँ है ………विवेक पर पट्टी बाँध जिसने चोला रंगा है वो ही प्रेम को जाना है और जिसने तार्किक शास्त्र गढा है उसने सिर्फ़ शोध किया है प्रेम नहीं और प्रेम शोध का विषय नहीं…लेन देन के व्यापार से परे की स्थिति है प्रेम, हर चाह के मिटने की स्थिति का नाम है प्रेम, सर्वस्व समर्पण करने का नाम है प्रेम।जो करने से हो वो प्रेम नहीं ……ये तो स्वत:स्फ़ूर्त अनुभूति है , अजस्र बहती धारा कब किसे कैसे अपने साथ बहा ले जाती है पता नहीं चलता इसलिये कौन प्रेमी और कौन प्रेमास्पद्………हर भेद का मिट जाना ही प्रेम की चरमोत्कर्ष अवस्था है ।