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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

अपरिचित हूँ मैं .........

ना जाने कैसे कह देते हैं
हाँ , जानते हैं हम 
खुद  को या फ़लाने को
मगर किसे जानते हैं
ये भेद ना जान पाते हैं
कौन है वो ?
शरीर का लबादा ओढ़े 
आत्मा या ये शरीर
ये रूप
ये चेहरा -मोहरा
कौन है वो
जिसे हम जानते हैं
जो एक पहचान  बनता है
क्या शरीर ?
यदि शरीर पहचान है तो
फिर आत्मा की क्या जरूरत
मगर शरीर निष्क्रिय है तब तक
जब तक ना आत्मा का संचार हो
एक चेतन रूप ना विराजमान हो
तो शरीर तो ना पहचान हुआ 
तो क्या हम
आत्मा को जानते हैं
वो होती है पहचान 
ये प्रश्न खड़ा हो जाता है
अर्थात शरीर का तो 
अस्तित्व ही मिट जाता है
मगर सुना है
आत्मा का तो 
ना कोई स्वरुप होता है
आत्मा नित्य है
शाश्वत है
उसका ना कोई रूप है
ना रंग
फिर क्या है वो
एक हवा का झोंका 
जो होकर भी नहीं होता
फिर कैसे कह दें
हाँ जानते हैं हम
खुद को या फ़लाने को
क्योंकि ना वो आत्मा है
ना वो शरीर है
फिर क्या है शाश्वत सत्य
और क्या है अनश्वर
दृष्टिदोष तो नहीं
कैसे पृथक करें 
और किसे स्थापित करें
द्वन्द खड़ा हो जाता है
शरीर और आत्मा का 
भेद ना मिटा पाता है
कोई पहचान ना मिल पाती है
ना शरीर को
ना आत्मा को
दोनों ही आभासी हो जाते हैं
शरीर नश्वर 
आत्मा अनश्वर 
फिर कैसे पहचान बने
विपरीत ध्रुवों का एकीकरण 
संभव ना हो पाता है 
फिर कैसे कोई कह सकता है
फलाना राम है या सीता
फलाना मोहन है या गीता
ये नाम की गंगोत्री में उलझा 
पहचान ना बन पाता है
ना शरीर है अपना ना आत्मा
दोनों हैं सिर्फ आभासी विभूतियाँ
मगर सत्य तो एक ही
कायम रहता है
सिर्फ पहचान देने को
एक नाम भर बन जाने को
आत्मा ने शरीर का
आवरण ओढा होता है
पर वास्तविकता तो 
हमेशा यही रहती है
कोई ना किसी को जान पाता है
खुद को भी ना पहचान पाता है
फिर दूसरे को हम जानते हैं
स्वयं को पहचानते हैं 
ये प्रश्न ही निरर्थक हो जाता है
ये तो मात्र दृष्टिभ्रम लगता है
जब तक ना स्वयं का बोध होता है 
तो बताओ ,
कैसे परिचय दूं अपना
कौन हूँ
क्या हूँ
ज्ञात नहीं
अज्ञात को जाने की 
प्रक्रिया में हूँ तत्पर
परिचय की ड्योढ़ी पर
दरवाज़ा खटखटाते हुए
अपरिचित हूँ मैं ..........

रविवार, 19 जनवरी 2014

अदभुत आनन्दमयी बेला


अद्भुत आननदमयी बेला सखि री 
अद्भुत निराली छटा 
ना नाम ना धाम ना काम कोई 
भूल गयी मै कौन भयी 
कैसी निराली थी वो घटा 
सखि री अदभुत आनन्दमयी बेला 

इक क्षण में थी घटना घटी 
न आवाज़ हुयी न बिजली चमकी 
वो तो ज्योतिपुंज बन प्रकट हुयी 
और कर गयी मुझे निहाल सखी री 
 अदभुत आनन्दमयी बेला 

अब आनंद सिंधु बन गयी 
अपनी सुध बुध भूल गयी 
ऐसी थी वो श्यामल छटा 
कर गयी आत्मविभोर सखी री 
 अदभुत आनन्दमयी बेला 

सोमवार, 13 जनवरी 2014

एक बंजारापन का आभास

एक बंजारापन का आभास 
खुद में खुद को खोने की ख्वाहिश 
खुद से भी न मिलने की तमन्ना 
यूं ही नहीं होती 
भीड़ में अकेलापन 
शोर में सन्नाटा 
और भागम भाग भरी ज़िन्दगी में 
रुक जाना 
जैसे किसी अनादिकाल से चली आ रही 
किसी परंपरा को मिटाना 
या किसी युग को ही चित्रपट से गायब कर देना 
या शायद होने और न होने के बीच में 
जीवन बसर करने की चाह  का होना 
एक अपरंपरागत लेख सा ये जीवन 
ढूंढ लाता  है विसंगतियां 
लीक पर चलते चलते 
और कर देता है धराशायी 
उम्र की तहजीबों को 
वक्त के नालों में 
जहाँ सड़ांध ही सड़ांध होती है 
तब भागना चाहता है 
बंजारेपन की ओर 
खुद को भुलाने की ख्वाहिश में 
क्योंकि 
सामने का दृश्य चित्रपट सा होता है 
सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा 
जहाँ यथार्थ और सत्य सलीब पर लटके होते हैं 
कराहते से , सहमते से , मिटते से 
तब न ये दर न वो दर 
कोई न अपना दीखता है 
बंदिशों की बेड़ियों में जकड़े जूनून तो सिर्फ 
सर ही पटकते दिखते हैं 
छातियाँ पीटने की रवायतों का पालन करते 
क्यूँ ............आखिर क्यूं 
जीने के लिए अवतारी होना जरूरी है 
क्यूँ नहीं कोई बेल बिना सहारे के सिरे चढ़ती है 
क्यूँ नहीं हर गरजता बादल बरस पाता  है 
और इसी क्यूं की खोज में 
विश्राम से पहले 
ये सच नहीं जान पाता है 
ना खुदा ही सच ............. ना तू ही सच .............ना ये दुनिया सच 
बस बेबसियों की शाखों पर कंटीले तारों की लगी बाड से 
रक्त रंजित होना और रिसना ही आखिरी पड़ाव है ...........अंतहीन यात्रा का 
क्योंकि 
डूबने से पहले और तैरने की ख्वाहिश में हाथ पैर तो मारने ही पड़ते हैं 
जरूरी तो नहीं सबको रत्न मिलें ही या खुदा  का दीदार हो ही 

रविवार, 5 जनवरी 2014

प्यास के पनघटों पर


प्यास के पनघटों पर 
प्यास की गगरी न छलकती है 
प्यास से व्याकुल तो 
मीरा भी छनकती है 
दरस की दीवानी देखो 
गली गली भटकती है 
कहीं प्यास भी कभी 
किसी पानी से बुझती हैं 
जितना पियो ये तो 
उतनी ही रोज बढ़ती है 

लगा लो अगन 
बढ़ा लो तपन 
प्यास के शोलों में 
भड़का दो गगन 
जो सिमट जाए किसी गागर में 
ये न ऐसी शय होती है 
किसी को मिलन की प्यास है 
किसी को दरस की आस है 
किसी को किसी स्वप्न की तलाश है 
प्यास का क्या है 
ये तो हर घट में बसती है 
अब ये तुम पर है 
तुम कैसे इसे बुझाते हो 
चाहे राधा बनो चाहे श्याम 
प्यास के पंछियों का नहीं कोई मुकाम 
जो बुझ जाए वो प्यास नहीं 
जो मिट जाए वो आस नहीं 
पियो प्याला प्रेम का 
भर  नैनों में नीर 
फिर भी ना बुझे 
सदियों की जगी पीर 
बस यूँ दिगपर्यंत जो 
प्यास की लौ जलती है 
वो ही तो प्यास की
अंतिम लकीर होती है 
क्योंकि …… प्यारे 
एक युगपर्यंत चिता सी जो 
युगपर्यंत तक जलती है 
और बुझाने की कोई जुगत
न जिस पर चलती है 
बस वो ही तो अमिट प्यास होती है 
जितनी बुझाई जाए उतनी ही बढ़ती है 
प्यास के दीवानों की प्यास तो सिर्फ प्यास से ही बुझती है …… 

सागर का तीरा है 
खामोश ज़खीरा है 
और प्यास की रेत पर मीन का डेरा है 

यूँ भी प्यास के समन्दरों की प्यास भला कब बुझी है
बस अतृप्ति के आँचल में ही तो प्यास परवान चढ़ी है 

बुधवार, 1 जनवरी 2014

वैसे एक सच बताऊँ



देख रहे हो मानवी लीला 
नव वर्ष आया 
सबके लिए खुशियों के 
उपहार लाया 
हर चेहरा है खिलखिलाया 
और जानती हूँ 
तुमने ही मुँह फुलाया है 
देखो माधव 
मुँह ना फुलाओ 
जरा तुम भी मुस्काओ 
क्या , क्या कहा 
तुम्हें किसी ने मुबारकबाद नहीं दी 
इसलिए बेचैन हो 
सुनो मोहन ,चितचोर , सांवरे 
हर रूप में तुम ही तो हो 
इसलिए उन्हें कहूँ या तुम्हें 
क्या कोई फर्क पड़ता है 
और यदि पड़ता है तो 
लो प्यारे 
देती हूँ तुम्हें शुभकामनाएँ 
तुम भी सारा साल , सारी कायनात तक 
बस अपनी राधे संग मुरली बजाते रहो 
मुस्काते रहो 
और मुझे अपनी बावरी बनाते रहो 
ए  ………… देते देते लेने की अदा तुम्ही से सीखी है मोहन
फिर चाहे शुभकामनाएं ही क्यों ना हों :)


वैसे एक सच बताऊँ 
तुम्हें शुभकामना दिये बिना 
मैं भी अधूरी ही रहती 
अब चाहे तुम रूठते या नहीं 
बस यही है मेरी और मेरे जीवन की प्रथम और अन्तिम परिणति