पेज

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ …"दर्द "हो मोहन …4


और तो और 

देखो जरा
भरत की
निस्वार्थ प्रीती
कैसे प्रेम का स्वरूप
उन्होने पाया था
जिसे देख प्रेम भी
लजाया था
जिसने तुम्हारे लिये
सारा राज -पाठ
ठुकराया था
यहाँ तक कि
अपनी जननी को भी
ना अपनाया था
और उसे भी उसके
माँ होने के अधिकार के सुख 
से वंचित किया
कैसा वो वियोगी बना
जिसके आगे
प्रेम का स्वरूप भी
छोटा पडा
नवधा भक्ति का
पूर्ण रूप जिसमे समाया
उसके प्रेम का भी
ना तुमने सत्कार किया
तुम तो फिर भी
अपनी पत्नी और भाई के साथ
वन मे रहे
और कन्द मूल फ़ल
खाते रहे
ॠषि मुनियों से मिलते रहे
मगर भरत ने तो
एकान्तवास किया
पत्नी परिवार का त्याग किया
मुनि वेश धारण कर
14 वर्ष जमीन मे
गड्ढा खोदकर
उसमे शयन किया
क्योंकि पृथ्वी पर तो
तुम सोते थे
और सेवक का धर्म
यही कहता है
स्वामी से नीचे
उठना बैठना और सोना
बस वो ही तो
उन्होने व्यवहार किया
खाने मे भी
उन्होने घोडों की लीद में
जो जौ के दाने मिलते थे
उन्हें धोकर सुखाकर
फिर उनका भोजन बनाते थे
और उसका सेवन करते थे
स्वामीभक्ति का ना
ऐसा कोई उदाहरण होगा
ऐसी प्रेम की जीवन्त मूर्ति
ना किसी ने देखी होगी
पर तुम्हें ना कोई असर हुआ
तुम तो अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहे
भावनाओं प्रेम का ना
कोई मोल रहा
विरह जन्य दुख से
भरत का ह्रदय कातर हुआ
ज़िन्दगी भर सिर्फ़ और सिर्फ़
दुख ही दुख सहा
ये भी कोई प्रेम परीक्षा
लेने का ढंग हुआ
मगर तुम तो इसी मे
आनन्दित होते हो
फिर भाई हो या पत्नी
निष्कलंक सीता पर भी तो
तुमने आक्षेप लगा त्याग दिया
जिसने उम्र भर
पत्नीधर्म निभाया
दुख सुख मे साथ दिया
जो चाहती तो
महलों मे रह सुख
भोग सकती थी
क्योंकि वनवास तो
सिर्फ़ तुम्हें मिला था
मगर अपने प्रेम के कारण
उसने तुम्हारा साथ दिया
वन वन तुम्हारे साथ भटकी
यहाँ तक कि
अपह्रत भी हो गयी
फिर भी ना शिकायत की
वहाँ भी तुम्हारे नाम की रटना
वो लगाती रही
तब भी तुमने उसकी
अग्निपरीक्षा ली
चलो ये ली सो ली
मगर उसके बाद
किस दोष के कारण
तुमने उसका त्याग किया
महज स्वंय को ही
सिद्ध करने के लिये ना
स्वंय को ही प्रमाणित करने
के लिये ही ना
तुमने सीता का त्याग किया
ताकि तुम्हारा वैभव बना रहे
फिर चाहे तुम्हारे कर्म से
आने वाली कितनी ही
सीताओं की दुर्दशा बढे
मगर तुम पर ना कभी असर हुआ 

आज घर घर में सीता दुत्कारी जाती है 
तुम्हारी बिछायी नागफ़नियों पर 
लहूलुहान की जाती है
तुमने तो सिर्फ़
अपना मनचाहा ही किया
फिर चाहे उससे
कोई कितना ही पीडित हुआ
कैंसर के दर्द से भी भयंकर
तुमने दर्द का टीका दिया
जिसे भी हर प्रेमी ने
खुशी खुशी संजो लिया
भला बताओ तो
कैसे कह सकते हो तुम
कि तुम सुखस्वरूप हो
जबकि तुम तो सदा
परपीडा में ही आनन्दित हुए

कहो मोहन अब कैसे कहूँ तुम्हें आनन्दघन
मेरे लिये तो 
तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्द हो मोहन 

क्रमश : ……………

बुधवार, 19 मार्च 2014

ए री अब कैसे धरूँ मैं धीर



कर दिया खुद को खोखला 
अब जो चाहे भर दो पोर पोर में 
बन गयी हूँ तुम्हारी बाँसुरी श्याम 
अब चाहे  जैसे बजा लेना 
बस इक बार अधरों से लगा लेना 
मेरी कोरी चुनरिया 
प्रेम रंग में रंगा देना 
श्याम चरणों से अपने लगा लेना
ऐसी रंगूँ श्याम रंग में 
बस मुझे दर्पण अपना बना लेना 
अधरों पे श्याम सजा लेना 


ए री 
अब जिया ना धरत है धीर 
मेरे ह्रदय में उठत है पीर 
कित खोजूँ मैं ध्याम धन को
अब नैनन से बहत है नीर 


ए री
कोई खबर ले आओ 
कोई श्याम से मिलाओ 
कोई मुझको जिलाओ 
मेरा जिया हुआ है अधीर 


ए री 
अब कैसे धरूँ मैं धीर 

किस बैरन संग छुपे हैं सांवरिया 
लीन्ही ना कोई मोरी खबरिया 
मोरा जिया धरत नाहीं धीर 

ए री 
अब कैसे धरूँ मैं धीर 


जब से भाँवर डाली श्याम संग 
तब से रंग गयी उनके ही रंग 
कह तो सखी अब कैसे बदलूँ चीर 


ए री 
अब कैसे धरूँ मैं धीर 

रस की धार बहती जाये 
तन मन मेरा रंगती जाये 
अब दिन रैन जिया में उठती है पीर 

ए री 
अब कैसे धरूँ मैं धीर 

सोमवार, 10 मार्च 2014

तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ …"दर्द "हो मोहन ......3



3) 
चलो ये छोडो
माँ यशोदा का
क्या दोष हुआ
तुमसे उसने
निस्वार्थ प्रेम किया
अपना वात्सल्य
तुम पर लुटा दिया
पहले तो
बुढापे मे तुमने जन्म लिया
और फिर भी
ना उसके प्रेम का
तुम पर असर हुआ
जो तुम्हारे लिये ही जीती थी
तुम्हारे लिये ही सांस लेती थी
जिसका दिन
तुम्हारी खिलखिलाहट
से शुरु होता था
और तु्म्हारे सोने पर
रात्रि होती थी
उस माँ के भी
 निस्वार्थ प्रेम की
ना तुमने कद्र की
तुम्हें पल नहीं लगा
उसे छोडकर जाने में
कैसी विरह व्यथा में
वो माँ रही
कैसी उसने पीर सही
कि आँखों से अश्रु
इतना बहे कि
एक पतनाला ही
बहने लगा
जब उद्धव ने बृज में
नन्द के घर का पता पूछा
तो बताने वाले ने
यही कहा
ये जो पतनाला बह रहा है
इसके किनारे किनारे चले जाओ
और जहाँ पर इसका सिरा मिले
वो ही नन्द बाबा का घर
इसका उदगम स्थल है
कभी सोचा तुमने
उस माँ के विरह की व्यथा को
जो उम्र भर
पालने में सिर्फ़
तुम्हारा ही अक्स देखती रही
उधो को भी चुप
जिसने करा दिया
चुप हो जाओ उधो
देखो मेरा लाल सोता है
कैसे तुम्हारे प्रेम में
बावरी हो गयी
जिसकी भूख नींद प्यास
सब तुम्हारे साथ ही गयी
फिर भी ना तुमने
पीडा देने मे कोई
कसर छोडी
जो एक बार गये
तो ना मुडकर देखा
उस माँ के प्रेम की
कितनी कठिन
परीक्षा तुमने ली
कि मिले भी तो तब
जब 100 साल बाद
कुम्भ का मेला हुआ
और ये मिलन भी
कोई मिलन हुआ
ये तो सिर्फ़ तुमने
स्वंय को सिद्ध करने के लिये
और अपने वचन को
प्रमाणित करने के लिये
भरम पैदा किया
क्योंकि वचन दिया था तुमने
"मैं मिलने जरूर आऊँगा"
बस हर जगह
सिर्फ़ स्वंय को प्रमाणित
करने के लिये
तुमने दरस दिया
वरना तो किसी की पीडा
या दर्द से ना
तुम्हारा ह्रदय
व्यथित हुआ
जब एक करुणामूर्ति
माँ के लिये
ना तु्म्हारा ह्र्दय पसीजा
तो कैसे तुम्हें सुख स्वरूप कहूँ
क्योंकि
तुम तो परपीडा मे ही
आनन्दित होते हो
और उसे दर्द ही दर्द देते हो 


क्रमश: ………