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शनिवार, 20 जून 2015

क्या चाहते हैं ?

क्या चाहते हैं ? 
क्या होगा यदि पूरी हो जायेगी ?
क्या दूसरी चाहत न जन्म लेगी  ?

बस इसी फेर में गुजरती ज़िन्दगी के सिलसिले 
एक दिन ऊबकर पलायन कर जाते हैं 
और खाली कटोरे सा वजूद 
भांय भांय करता डराता है 

पलायन 
आखिर कब तक ?
और किस किस से ?
यहाँ तो हर क्रिया कलाप पर कर्म का पहरा है 
क्या कर्म से विमुख हुआ जा सकता है ?
क्या कर्तव्य विहीन जीवन तटस्थ होकर जीया जा सकता है ?

तटस्थता 
यानि बुद्ध होना 
या कुछ और ?
अर्ध रात्रि में डराते प्रश्नों के कंकाल 

जबकि पता हैं उत्तर भी 
फिर भी 
प्रश्न हैं कि दस्तक दिए जाते हैं 

कपालभाति कितना ही कर लो 
जीवन योग के अर्थ अक्सर  नकारात्मक ही मिला करते  हैं 

आत्मिक यंत्रणाओं को मापने के अभी नहीं बने हैं यंत्र 
जहाँ मन बैरागी भी है उल्लासी भी 
जहाँ मन विरक्त भी है संपृक्त भी 


अनुलोम विलोम की जाने कौन सी परिभाषा है ज़िन्दगी ?

शनिवार, 13 जून 2015

तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं


सुनो कृष्ण 
बच्चे की चाँद पकड़ने की ख्वाहिश 
जन्म ले रही है 
अलभ्य को प्राप्त करने की चाह 
है न कैसा अनोखा जूनून 
जो असंभव है 
उसे संभव करने का वीतराग 
कलियों के चटखने के भी मौसम हुआ करते हैं 
और ये बे- मौसमी आतिशबाजी 
जाने कौन सा नगर रौशन करने की चाह है 
जिस पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगाती हूँ 
बार बार खुद को समझाती हूँ 
मगर ये बेलगाम घोडा फिर 
सरपट दौड़ लगाने लगता है 

"मंजिल पता नहीं मगर तलाश जारी है "
का नोटिस बोर्ड टंगा है 
कोशिश की तमाम बेलें 
सिरे चढ़ा चुकी 
पर ख्वाहिश है कि मानती ही नहीं 
उपहास का पात्र बनाने को आतुर है 
मगर मानने को नहीं 
कि 
सबको सब कुछ नहीं मिलता 
सिर्फ एक चाह बलवती हो जाती है 
"यदि चाहोगे तो मिलेगा जरूर "

सुना है तुम पूरा करते हो 
जो कहा वो भी 
और जो न कहा वो भी 
बस इसी फेर में पड़ी ख्वाहिश 
नित परवान चढ़े जाती है 

देखो हँसना मत 
जानती हूँ बचपना है 
मैं वो कण हूँ 
जिसका कोई अर्थ नहीं 
कोई स्वरुप नहीं 
फिर भी तुमसे न कहूं तो किस्से कहूं 
सोच 
आज कहने का मन बना ही लिया 
तो मोहन 
वैसे तो तुम जानते ही हो 
लेकिन बच्चा जब तक स्वयं नहीं मांगता 
माता पिता भी तब तक नहीं देते 
वैसे ही जब तक तुम्हारे भक्त नहीं कहते 
तब तक तुम भी उसकी 
छटपटाहट का मज़ा लेते रहते हो 

तो सुनो प्यारे 
जानना है मुझे स्वरुप संसार का 
अपने जीवन रहते ही 

जानना है मुझे 
मेरे बाद मेरे अस्तित्व की परिभाषा को 

जानना है मुझे 
जब सब जल समाधि ले ले 
और तुम पत्ते पर 
अंगूठा चूसे अवतरित हों 
तब क्या होता है 
और उसके बाद भी 
तुम्हारा प्रगाढ़ निद्रा में सोना और जागना 
सब कुछ देखने की चाह 
सब कुछ जानना 
तुम्हारे भीतर से भी 
तुम्हारी इच्छा को भी 
कैसे स्वयं को अकेला महसूसते हो 
फिर कैसे सृष्टि निर्माण करते हो 
कितने ब्रह्माण्ड में विचरते हो 
कितने रूप धरते हो 

सुनो 
सुन और पढ़ तो बरसों से रही हूँ 
मगर अब देखने की चाह है 
यदि पा जाऊं जीवन में कोई मुकाम 
तो मेरे बाद मेरा जीवन में क्या हश्र होगा 
कैसे मेरा अस्तित्व जिंदा रहता है 

मानती हूँ 
सब झूठ है 
नश्वर है जगत 
और ये चाहना भी 
मगर फिर भी चाहत का जन्म हुआ 
और सुना है 
तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं 

तो क्या कर सकोगे इस बार मेरी ये इच्छा पूरी 
जिसमे तुम खुद एक चक्रव्यूह में घिरे हो 
क्योंकि 
तुमसे तुम्हारे सारे भेद खोलने की चाह रखना 
बेशक मेरी बेवकूफी सही 
मगर इतना जानती हूँ 
असंभव नहीं तुम्हारे लिए कुछ भी 


मंगलवार, 2 जून 2015

ईश्वर ' ही ' है या ' शी '

ईश्वर ' ही ' है या ' शी ' 
प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है 

हम छोटी सोच के बाशिंदे 
जानते हैं सिर्फ अपनी ही परिधि 
जिसके अन्दर एक दुनिया वास करती है 
उससे इतर भी कुछ है 
जानने को न उत्सुक होते हैं 
और अपनी छोटी सोच की लकुटिया ले 
आक्षेपों की टिक टिक करते हैं 

ओ खुदा , ईश्वर , अल्लाह 
आज तेरे अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा हो गया है 
आज तू भी स्त्री पुरुष जैसे लिंगों में बंट गया है 
'ही' और 'शी' के मध्य विवाद छिड़ गया है 

हँस रहा होगा न तू भी 
सोच सोच 
न मुझे जाना न पहचाना 
बस विवाद को रूप दे दिया 
अब तक तो अलग अलग धर्मों में बंटा रहा 
और घृणा का कारण बनता रहा 
लेकिन अब ?
अब क्या हश्र होगा इस बहस का 
जहाँ उसे भी स्त्री और पुरुष बना दिया गया 

सुना है 
विदेशी तो निराकार को मानते हैं 
यहाँ तक कि कुछ धर्मों में तो 
निराकार की ही उपासना होती है 
हिन्दू धर्म में ही उसे आकार दिया जाता है 
ऐसे में उसमे स्त्री और पुरुष तत्व ढूंढना 
या उद्बोधन पर प्रश्न खड़ा करना 
बचकाना सा लगता है 
क्योंकि 
जो जानकार हैं वो जानते हैं 
वो न स्त्री है न पुरुष 
वो है ब्रह्म एक पूर्ण ब्रह्म 
जिसका आदि है न अंत 
फिर उसे पुरुष मानो या स्त्री 
ये तो है तुम्हारे भावों का विस्तार 
क्योंकि 
वो तो है बस निराकार 
जो होता है साकार भक्त की भावना से 
जो धारण करता है रूप भक्त के भावानुसार 

स्वीकार सको तो स्वीकार लो 
ये बेकार की बहस में न उलझो 
ईश्वर' ही' भी है और 'शी' भी 
'जिस भाव से भजता मुझे उस भाव से भजता उसे '
करो जरा उसकी इस  उक्ति पर विचार 
अर्थात जिस रूप में आवाज़ दोगे उसमे आ जाएगा 
तभी तो उसने 
अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर ये सिद्ध किया 
चाहे 'ही ' कहो चाहे ' शी ' 
या ' ही ' न मान ' शी ' मानो 
उसने तो कदम कदम पर खुद को प्रमाणित किया 
भक्त की जिज्ञासानुसार रूप धारण किया 

जाने कैसी सोच पनप रही है 
हर बात पर आक्षेप कर रही है 
ये अंधी दौड़ जाने कहाँ जाकर रुकेगी 
जो ईश्वर को पुकारे जाने पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रही है 

जानते हो न 
भेडचालों के नतीजे तो सिफर ही हुआ करते हैं .........