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रविवार, 27 दिसंबर 2015

मौन का कुम्भ

लगता होगा कुम्भ
हर बारह बरस में
मगर
मेरे मौन का कुम्भ तो
महीनों दिनों और पलों में
होकर विभक्त
अक्सर टोहता रहता है मुझे
और मैं
अपनी शिथिल इन्द्रियों
शिथिल साँसों संग
लगा लेती हूँ डुबकी
अनंत में
अनंत होकर

बस यही तो है मेरा विस्तार और शून्य

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

गोपीभाव 2

सुना है
खिले कँवल ही देवता को अर्पित किये जाते हैं

मन तो मर चुका
तुम्हारे जाने के साथ ही
अब इस मिटटी से कौन सा खिलौना बनाओगे और खेलोगे ?

जलती चिता होती
तो सुलगती रहती उम्र भर
डालती रहती उसमे
तुम्हारे निष्ठुर प्रेम की आहुति
मगर
यहाँ न राख है न चिता

खुद भी शक में हूँ
जिंदा होना केवल साँस लेना भर तो नहीं होता न

और मन की मौत होने पर
तुम चाहे सारे ज़माने की सबसे खूबसूरत चीजें रख दो
नहीं फूँक पातीं
ज़िन्दगी का मन्त्र

अब न कोई कामना है न चाहना
न तुमसे कोई गिला न शिकवा
सच पूछो तो
रोते हैं नैन तड़पता है दिल
मगर फिर भी नहीं दे पाती
कोई उपालंभ

वक्त की चिकोटियों से हैरान हूँ
या फिर
शायद
एक महाशून्य में अवस्थित हूँ ... माधव