संवाद के आखिरी पलों में
नहीं झरते पत्ते टहनियों से
नहीं करती घडी टिक टिक
नहीं उगते क्यारियों में फूल
रुक जाता है वक्त
सहमकर
कसमसाकर
कि
नाज़ुक मोड़ों पर ही अक्सर
ठहर जाती है कश्ती
कोई गिरह खुले न खुले
कोई जिरह आकार ले न ले
बेमानी है
कि
हंस ने तो उड़ना ही अकेला है
ये तमाशे का वक्त नहीं
ये माफीनामे की कवायद नहीं
ये धीमे से गुजरने की प्रक्रिया है
जहाँ
साँस रोके खडी होती है हवा भी
कि
हिलने से न हो जाए कहीं तपस्या भंग
संवाद के आखिरी पल
किसी कृष्ण का मानो प्रलय में पत्ते पर अंगूठा चूसते हुए मुस्कुराना भर ही तो है
नहीं झरते पत्ते टहनियों से
नहीं करती घडी टिक टिक
नहीं उगते क्यारियों में फूल
रुक जाता है वक्त
सहमकर
कसमसाकर
कि
नाज़ुक मोड़ों पर ही अक्सर
ठहर जाती है कश्ती
कोई गिरह खुले न खुले
कोई जिरह आकार ले न ले
बेमानी है
कि
हंस ने तो उड़ना ही अकेला है
ये तमाशे का वक्त नहीं
ये माफीनामे की कवायद नहीं
ये धीमे से गुजरने की प्रक्रिया है
जहाँ
साँस रोके खडी होती है हवा भी
कि
हिलने से न हो जाए कहीं तपस्या भंग
संवाद के आखिरी पल
किसी कृष्ण का मानो प्रलय में पत्ते पर अंगूठा चूसते हुए मुस्कुराना भर ही तो है