न वो जानती थी ना मैं और मिलने का कोई बहाना भी नहीं था फिर भी घटनाओं का
घटित होना बताता है कि कहीं न कहीं कोई रिश्ता रहा होगा यूँ ही नहीं टकराव हुआ
होगा यूँ ही नहीं मुलाकात हुयी होगी और ऐसी ही तो थी उसकी और मेरी मुलाकात।
वो जैसे बेमौसम आयी बरसात की तरह ज़िन्दगी में शामिल हुयी।
अचानक मेरी
साइकिल का टायर फटना और बैलेंस बिगड़ने पर उससे टकरा जाना और उसका गिरते - गिरते
संभल जाना यूँ ही नहीं हुआ होगा। आज सोचता हूँ तो यही लगता है तुम्हें मेरे
जीवन में आना था फिर चाहे वाक्या कोई भी घटता और मैं उस पल खुद को सम्भाल
रहा था और तुम , तुमने तो जो बोलना शुरू किया तो मेरे तो
होश ही गुम हो गए।
“अबे ओये आशिक की औलाद , देख कर साइकिल चलानी नहीं आती या लडकी देखकर
तुम्हारी साइकिल उससे ट्कराने निकल पडती है । नीचे उतर अभी बताती हूँ” कहते हुए
सैंडिल निकाल ली और मारने को उतारूँ हो गयी ।
मैं न माफ़ी मांग सका न कुछ बता सका कि आखिर हुआ क्या तुमने तो यही समझा कि
तुम्हें छेड़ने के लिये मैंने ये हरकत की है और तभी कुछ लोग जैसे ही मेरी और
लपके तो जैसे होश आया और मुँह में जुबान तब जाकर तुम्हे बता पाया था कि हुआ क्या
था ,
“देखिये मैडम , मैं उन लडकों में से नहीं हूँ वो तो मेरी साइकिल का टायर फ़ट
गया जिससे अचानक बैलेंस बिगड गया और ये हादसा हो गया ।“
और फिर तुमने ही भीड़ से मुझे बचाया था बस वो क्षण ही था जिसने मुझे बाँध
लिया। मैं लड़का होकर भी वो हिम्मत नहीं कर पाया था और तुम लड़की होकर भी भिड़
गयीं सबसे और मुझे बचा लिया। ऐसे दो रूपों को एक साथ देखने का ये मेरा पहला
मौका था थोड़ी देर पहले रौद्र रूप और दो मिनट में ही शांत रस। आहा ! मेरा कवि ह्रदय
करुणा से भर उठा और कविता का मुखड़ा वहीँ बन गया। अब तुम्हारा नाम नहीं लूँगा
क्योंकि जानता ही नहीं था कौन थीं , कहाँ से आयी थीं और कहाँ चली गयी
थीं बस एक ख्याल का दुपट्टा मेरे मन के आँगन में छोड़ गयी थीं जिसे मैंने ऐसे सहेजा
जैसे कोई बच्चा अपना पहला खिलौना सहेजता है।
ज़िन्दगी है तो चलती ही रहेगी और उसके साथ हम भी। आज इकठ्ठा कर रहा हूँ
ज़िदगी की कड़ियों को तो सिरे कभी छूट रहे हैं तो कभी रूठ रहे हैं। काफी अरसा
बीत गया तब एक बार मैं माँ के साथ उनकी सहेली के गया और जाकर जो बैठा तो बैठते ही
उठ गया मानो किसी बिच्छू ने डंक मारा हो ,जैसे ही तुम्हें देखा और तुम भी ऐसे
ठिठकी जैसे आगे रास्ता ही ना हो। और हम दोनों की अकबकाहट देखकर मेरी माँ ने
कहा , “सुधि घबराओ नहीं बेटी ये मेरा बेटा है” सुनते
ही हम दोनों वर्तमान में लौटे । एक दूसरे से इस तरह एक बार फिर मिलना अजब इत्तफ़ाक
था । बात शुरु करते हुये तुमने ही उस दिन की सारी घटना बतायी जिसे सुन सभी हँसने
लगे और माहौल कहूँ या खुद को, थोडा सहज हो गया मैं और तुमसे इस तरह बात करने
लगा जैसे जन्मों से जानता हूँ तुम्हें । लगभग दो घन्टे हम साथ रहे और हर तरह के
विषय पर हमारी बात होती रही और जब बातों में पता चला कि तुम्हें एक ट्यूटर की
जरूरत है जो मैथ्स पढा सके तो बन्दा किस मर्ज़ की दवा था सो तैयार हो लिया और यूँ
एक सिलसिला शुरु हो गया ।
रोज बस शाम होने का
इंतज़ार रहता कब चार बजें और तुमसे मिलना हो । पढाना तो मेरे बायें हाथ का खेल था
चाहता तो सिर्फ़ एक महीने में सारा सिलेबस खत्म करा सकता था मगर फिर उसके बाद
तन्हाई मेरी दुश्मन बन जाती , सोच , धीरे - धीरे पढाता और तुमसे ढेर सी बात करता क्योंकि
तुम्हारे रूप से ही सिर्फ़ आकर्षित नहीं था बल्कि तुम्हारी शख्सियत ने मुझे अपने
पंजे में चारों ओर से जकड लिया था । दिन का हर पहर सिर्फ़ तुम्हारे ख्यालों में
गुजरा करता था । जान चुका था तुम्हारे घर
के भी हालात । बस मुश्किल से ही गुजारा हुआ करता था उस पर तुम्हारी दो छोटी बहनें
और थीं ऐसे में बडी होने के नाते ज़िन्दगी की जिम्मेदारियाँ तुम्हारे कंधे पर भी
थीं जिन्हें पूरा करने के लिए तुम जल्द से जल्द अपने पैरों पर खडा होना चाहती थीं
इसीलिए तुमने सोच लिया था कि अव्वल आना है । तुम्हारे पिता एक कपडे की दुकान में
नौकर थे तो उसकी आमदनी भला होती ही कितनी थी ऐसे में उन्हें भी तुम्हारे सहारे की
जरूरत थी क्योंकि भाई तो कोई था नहीं तुम्हारा इसलिए इस घर के लिए तुम्ही लडका भी
थीं ।
वक्त की रफ़्तार अपनी गति
से ही चला करती है और एक दिन आ ही गया जब तुम्हारा सिलेबस पूरा हो गया और मेरा
तुम्हारे घर आना जाना बंद होना स्वाभाविक था मगर इस बीच एक अपनत्व का अंकुर हमारे
बीच फ़ूट चुका था जिसे तुमने कभी स्वीकारा नहीं तो कभी नकारा भी नहीं क्योंकि जब भी
मैने तुम्हारी पढाई से इतर तुम्हारे विषय में कोई बात की या अपने बारे में बताना
चाहा तुमने उसमें पूरी दिलचस्पी तो दिखाई ही साथ में मेरे आने से पहले मेरे लिए
हमेशा कुछ न कुछ बना कर रखना , मेरी पसन्द ना पसन्द जान कर उसके अनुसार बर्ताव
करना तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा सा बन गया था तभी तो उस दिन कितने अधिकार से
तुमने कहा था ,
“देखिए , आप जब तक खाकर
नहीं बतायेंगे हम आपसे नहीं पढेंगे” और इठलाती सी तुम मेरी आँखों में झाँकने लगीं
, शायद एक कदम बढ रहा था तुम्हारा मेरी ओर ।
कभी मैं कोशिश करता अपने
दिल की बात कहने की ।
“जानती हो सुधि , तुम
जिस घर में जाओगी वहाँ इस तरह खिला खिला कर सबकी सेहत बना दोगी ।“
“अरे शेखर ,देखिए आप इस
तरह की बातें मत करिए हम जानते हैं आपको क्या खिलाना है और क्या नहीं” और तुम शरमा
कर नज़र नीची कर लेती थीं जो काफ़ी था मुझे समझने के लिए कि हाँ , उस तरफ़ भी उठ रहा
है धुआँ , उस तरफ़ भी कुछ तो पहुँची है हवा बेशक शर्म की झिर्रियों से सही वैसे भी
कोई लडकी भला कब आसानी से इकरार करती है और मेरे लिए इतना ही काफ़ी था कि ख्यालों के खत
पहुँच चुके हैं प्रियतम के पास तो जवाब का कागा एक दिन जरूर मेरे मन की मुंडेर पर
आ आवाज़ देगा ।
इस बीच मेरी नौकरी
दिल्ली में लग गयी । मैं उच्च पदाधिकारी के
पद पर कार्यरत हो गया और मुझे तुमसे
मिले एक अरसा गुजर गया । फिर एक दिन जब गाँव वापस आना हुआ तो पता चला कि तुम्हारा
ब्याह तय हो गया है , जानती हो कैसा लगा ? मानो मेरे प्राण ही किसी ने बेदर्दी से
खींच लिए हों , मानो मेरी सारी जमापूँजी किसी ने लूट ली हो , मानो कोई शैतान
खिलखिला कर हँस पडा हो मेरी बेबसी पर और मैं काँटों की शैया पर रस्सियों से बँधा
रक्तरंजित हुआ तुमसे मिलने को बेचैन होउँ । क्या सोचा था और क्या हो गया था , सोचा
था अब जब गाँव जाऊँगा तो माँ से कहकर तुम्हारे नाम का संदेसा भिजवाऊँगा और फिर हम
एक हो जायेंगे मगर वक्त तो मुझसे पहले अपनी चालें चलने में कामयाब हो रहा था । फिर
भी मैने हिम्मत नहीं हारी और तुमसे मिलने तुम्हारे घर पहुँच गया ।
मुझे देख तुम हतप्रभ रह
गयीं । तुम्हारे माता – पिता को तो यही लगा कि मैं उनसे मिलने आया हूँ मगर तुम
जानती थीं कि मैं क्यों आया हूँ तभी तो मुझे जाते वक्त जब बाहर तक छोडने आयीं तो
किस अधिकार से कहा था तुमने , “शेखर , आज के बाद मुझसे मिलने की कोशिश मत करना"
“क्यों सुधि ? तुम जानती
हो , मैं सिर्फ़ तुमसे ही मिलने यहाँ
आया हूँ"
“हाँ , जानती हूँ ,
इसीलिये कह रही हूँ"
“नहीं , मैं ऐसा नहीं कर
सकता , मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है , कहीं मिलो मुझे"
“नहीं , छोटी जगह है ,
सबको पता चल जायेगा तो मेरा परिवार बदनाम हो जायेगा”
“अरे तुम और मैं कोई गैर
थोडे हैं सभी जानते हैं मैं तुम्हें पढाता रहा हूँ और हमारे पारिवारिक रिश्ते भी हैं और क्या आज से पहले हम कभी साथ कहीं गए नहीं । इस बीच कितनी बार हम दोनो
साथ
साथ सभी जगह गए हैं तब तो तुमने ऐसा कभी नही कहा तो अब क्या हो गया और यहाँ के
लोगों को पता ही है कि पहले भी हम साथ आते जाते थे तो अब क्या हो जाएगा.”
“अच्छा ऐसा करो शाम को
गोपाल मंदिर में मिलूँगी लेकिन आखिरी
बार.”
उफ़ ! एक तीखी कटार सी
चुभी थी तुम्हारी बात मगर मेरे लिए
उस वक्त इतना ही काफ़ी था कि तुमने आखिर मिलने
को हामी
तो भरी।
सुबह से शाम तक वक्त
मानो गर्मी की दोपहर सांय - सांय करती तुम्हारे और मेरे बीच पसर गयी हो जहाँ घडी
के काँटे उसके साथ रोमांस कर रहे हों यूँ सरक रहे थे मानो कोई प्रेमी अपनी
प्रेमिका के मुख पर आयी लट को हौले से पीछे ले जा रहा हो । एक - एक पल मेरे लिए
मौत का सा पल था और उन पलों में जाने कितनी बार जीया और मरा था , जब तुमसे मिलने
का ख्याल आता तो जी उठता और जब घडी पर ध्यान जाता तो मर जाता । आखिर इस समय को
मुझसे इतनी शत्रुता क्यों है जो एक - एक पल यूँ सरक रहा है मानो कोई कछुआ सरक रहा
हो और मुझे चिढा रहा हो । वक्त कब किसी का सगा हुआ है और कम से कम प्रेम करने
वालों के लिए तो घडियाँ होनी ही नहीं चाहिएं जो वक्त की जंजीरों में उनकी आत्मा
बँधे । उल्टे सीधे ख्यालों की जद में घिरा मैं समय से घंटे पहले ही मंदिर पहुँच
गया और तुम्हारी राह देखने लगा।
मंदिर में कोई खास भीड
भाड तो पहले भी कभी नहीं होती थी क्योंकि आज के वक्त में कहाँ इतनी श्रद्धा बची है
इंसान में बस जरूरत हुयी तो पहुँच गया हाजिरी लगाने वरना कौन भगवान कैसा भगवान मगर
आज न जाने क्या कारण था जो इतनी रौनक लगी थी सोच शंका से ग्रस्त हो पंडित जी के पास चला गया
पूछने , “पंडित जी , ये इतनी भीड भाड कैसी आज ?”
आज भगवान की छटी मनायी जायेगी इसलिए इतनी रौनक लगी
हुयी है सोच मेरा दिल धक धक करने लगा कि अब हम कैसे
मिलेंगे यहाँ तो सारा गाँव उमडा होगा । फिर भी मैं वहाँ सीढियों पर बैठ तुम्हारा
इंतज़ार करता रहा और डरता रहा , तुम आओगी , तुम नहीं आओगी की पज़ल खेलता रहा । इस बीच
भगवान की छटी भी मन गयी सब लोग प्रसाद लेकर चले भी गए मगर तुम अब तक नहीं आयीं तब
मैने वक्त पर निगाह डाली तो रात के आठ बजने को आ गए थे , तो क्या तुमने मुझे झूठ
कहा था ? क्या तुम्हारी निगाह में मेरी कोई कीमत नहीं ? निराश हताश हो भगवान को
सुनाने लगा
सुना है तेरे दर से कोई
खाली नहीं जाता मगर देख मैं खाली हाथ जा रहा हूँ । अरे तुम तो प्रेम के देवता हो ,
तुम तो प्रेम की पीर समझते हो फिर क्यों मुझे निराश करते हो ? थके टूटे कदमों से
सीढियाँ उतरने को उद्द्यत हुआ तभी एक परछाईं सी दिखी , मेरी आस एक बार फिर बलवती
होने लगी , शायद तुम ही होंगी मगर देखा पंडित जी प्रसाद लेकर आये और मुझे दे कहने
लगे , यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं जाता , “ये
लो प्रसाद लगता है भगवान से कोई इच्छा पूरी करवानी है तभी अब तक बैठे हो वरना यहाँ
कौन इतनी देर बैठता है वो भी तुम्हारी उम्र का नौजवान , ईश्वर से यही प्रार्थना है
जिस मकसद से बैठे हो वो तुम्हारी मनोकामना भी जरूर पूरी करे” क्योंकि पंडित जी
जानते थे मैं कितना बडा नास्तिक हूँ आज तक कभी मंदिर की चौखट पार नहीं की थी और आज
चार घंटे हो गये थे तो एक तो उम्र दूजा तजुर्बा पंडित जी के मन में अंदेशा उत्पन्न
करने को काफ़ी था फिर भी जो इच्छा चार घंटे में पूरी न हुई वो अब क्या होनी थी मगर
पंडित जी के विश्वास को ठेस न पहुँचे इसलिए प्रसाद मुँह में रख लिया और पंडित जी
भी मुझे प्रसाद दे अपने घर चले गए । अब सिर्फ़ मैं अकेला और मंदिर का बियाबान
रास्ता बचा था तो मैं भी अपनी उम्मीद की चिता जलाते हुए नीचे उतरने लगा तभी अचानक
जाने कहाँ से किसी अवतार की तरह तुम प्रगट हो गयीं पेड के पीछे से और तुम्हें देख
मैं हताशा और खुशी के मिलेजुले संसार की दहलीज पर खडा किंकर्तव्यविमूढ सा रह गया ।
ये सच है या सपना । गिले शिकवे करने का वक्त नहीं था हमारे पास । मेरे लिए काफ़ी था
तुम आ गयी थीं फिर चाहे कितनी भी देर से क्यों न सही। तुम देर से आने का कारण
बताने लगीं ,
“वो मंदिर में आज छटी थी
न” इतना भर कह पायी थीं कि मेरी ऊँगली तुम्हारे लबों तक पहुँच चुकी थी ।
“बस और कुछ मत कहो और ये
बताओ क्या तुम मेरा इंतज़ार नहीं
कर सकती थीं”
“नहीं , ये मेरे अधिकार
की बात नहीं थी”
“क्यों ?”
“क्योंकि रिश्ता ही ऐसा
आया कि पिताजी मना नहीं कर सके और तुमसे कौन सा मेरा कोई अनुबंध हुआ था , किस आस
के सहारे तुम्हारी उम्मीद करती , कभी न तुमने कुछ कहा न मैने”
“लेकिन तुम जानती तो थीं
न”
“हाँ जानती थी मगर फ़र्क
होता है समझने और इज़हार में”
“जब तक इज़हार न हो क्या
पता सामने वाले के दिल में क्या है और मैं गलतफ़हमी का शिकार हो सारे घर को
शर्मिंदा करती । यदि आस का एक टुकडा भी यदि तुम मेरे पल्लू से बाँध कर गए होते कि
सुधि , मेरा इंतज़ार करना तो कोशिश भी कर सकती थी मगर तुम तो अचानक नौकरी मिलते ही
ऐसे गायब हुए कि इतने महीनों बाद आए हो तो किस अधिकार से कुछ कह सकती थी । कुछ
बातें समय पर हो जाएं तभी आकार पाती हैं और अब समय तुम्हारे हाथ से निकल चुका है
शेखर”
“मगर कुछ दिन रुकने को तो कह सकती थीं न”
“कहा था मगर रिश्ता एक खाते
- पीते घर का है बस उसके एक बेटा है वो विधुर है और उसने मेरे सारे परिवार की
जिम्मेदारी भी खुद उठा ली है , उन्हें एक समझदार घर संभालने वाली लडकी चाहिए थी जो
उनके बच्चे को माँ की कमी महसूस न होने दे बच्चा छोटा होने के कारण उन्हें विवाह
की जल्दी है उसके बदले वो सब कुछ करने को तैयार थे और तुम जानते हो हमारे घर के
हालात जैसे तैसे गुजारा करते हैं और मेरे बाद मेरी दो बहनें और हैं ऐसे में मैं
कुछ भी कहने में असमर्थ थी । वो मेरी दोनो बहनों को पढा लिखा कर अच्छे घर में
ब्याह देंगे ऐसा वादा किया है, साथ ही बिना दहेज के शादी को राजी हो गए तो किस
बिनाह पर न करती , यहाँ तक कि लडके की उम्र भी ज्यादा नहीं है उसकी पहली पत्नी के
साथ शादी हुए सिर्फ़ 2 साल ही हुए थे कि वो नहीं रही । अब घर की माली हालत भी थोडी
सही हो जायेगी बेशक मैं कुर्बान हो जाऊँगी मगर सब को सबकी खुशियाँ तो मिल जायेंगी
यूँ खट - खट कर तो नहीं जीना पडेगा इसलिए मैने हाँ कह दी । अब तुम्हें सारी बात
बता दी है इसलिए उम्मीद करती हूँ अब तुम मुझसे कभी नहीं मिलोगे ताकि मेरी शादी शुदा
ज़िन्दगी सही ढंग से गुजर सके”
“आह ! कितना आसान हो गया
तुम्हारे लिए सब कहना । मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा । क्या मैं वो सब नहीं
कर सकता था तुम्हारे परिवार के लिए जो वो कर रहा है , अच्छी खासी मेरी नौकरी लग
गयी है , तुम चाहो तो मैं अभी बात करता हूँ तुम्हारे माता पिता से ? क्यों बेवजह
कुर्बानी का बकरा बन रही हो ? इससे तुम जानती हो हम सब के जीवन बर्बाद हो जायेंगे”
“पागल हो गये हो क्या ?
चार दिन बाद मेरी शादी है और अब ये सब ? जानते हो कितनी बदनामी होगी फिर मेरी
बहनों तक के रिश्ते होना आसान नहीं होगा । नहीं शेखर , मैं सिर्फ़ अपनी खुशियों के
स्वार्थ में अंधी हो अपने परिवार के भविष्य को दोजख में नहीं धकेल सकती । देखो यदि
तुम्हें मुझसे सच में मोहब्बत रही है तो तुम्हें उसी मोहब्बत का वास्ता है , तुम
अब कभी मुझसे मत मिलना , यही मेरी शादी का तुम्हारी तरफ़ से दिया तोहफ़ा होगा ।
बल्कि एक सुखमय जीवन जीना क्योंकि जानते हो असली मोहब्बत मिलन में नहीं हुआ करती
क्योंकि उसके बाद तो हम भी आम पति पत्नी ही बन जाते हैं और फिर चूल्हे की आग में
मोहब्बत कब जलकर राख हो जाती है , पता भी नहीं चलता सिर्फ़ घर गृहस्थी की
जिम्मेदारियाँ ही दिखाई देती हैं और तब अफ़सोस होता है कि क्या इसीलिए हमने मोहब्बत
की थी और मैं नहीं चाहती हम अपनी मोहब्बत को इस तरह याद करें इसलिए जो बात जुदाई
में है वो मोहब्बत में कहाँ । एक बार जुदाई का इत्र लगाकर देखो , महकने न लगो तो
कहना । मैं जानती हूँ , तुम खुद को संभाल लोगे और मुझे मेरा कहा तोहफ़ा जरूर दोगे ,
तुम्हें हमारी अधूरी मोहब्बत की सौगंध”
“उफ़ , सुधि ये क्या कर
दिया ?”
“सौगंध क्यों दे दी ।
तुमने तो मेरी आखिरी उम्मीद भी छीन ली । सुधि अच्छा एक वादा करो , कभी ज़िन्दगी में
तुम मुझे एक बार जरूर मिलोगी मेरे मरने से पहले”
“नहीं शेखर ऐसा मत कहो”
“नहीं सुधि , ये वादा
दोगी तभी मैं तुम्हारी सौगंध मानूँगा”
“अच्छा ठीक है” एक
जिद्दी बालक सी हठ थी मेरी जिसका कोई औचित्य नहीं था शायद इसी वजह से तुमने हाँ का
लॉलीपॉप देकर मुझे बहला दिया ।
विदाई के पल किसी की भी
ज़िन्दगी के सबसे सिसकते हुए पल होते हैं जहाँ तुमने एक वादे की शाख पर मेरी मोहब्बत
को लटका दिया था उम्र भर के लिए सिसकने को , जहाँ मैं खुद से भी उस पल अंजान हो
गया था जब तुम जाते जाते मेरे पैरों को हाथ लगा , मेरे अधरों पर एक चुम्बन रख बिना
पीछे मुडे चलती चली गयी थीं और मैं पुकारना चाहकर भी नहीं पुकार सका था तुम्हें ।
सुन्न हो गयी थी मेरी चेतना । ओह ! किस हद तक प्यार करती थीं तुम मुझे मैं तो शायद
कल्पना भी नहीं कर सकता था वरना एक कुँवारी लडकी किसी पराये मर्द के न तो पैर छूती
है और न ही आगे बढ खुद से अधरों पर चुम्बन अंकित करती है । उफ़ , सुधि ये तुमने
मुझे जिलाया है या जीते जी मार दिया , नहीं जानता मगर अब मैं कौन हूँ , क्या
करूँगा कुछ नहीं जानता , ऐसे अहसासों से भर उठा था । एक अर्ध विक्षिप्त सी दशा में
मुझे छोड तुम चली गयीं और मैं न हँसने और न रोने की कगार पर खडा वो अक्स था जो खुद
अपना पता पूछ रहा था ।
दूसरी हकीकत :
वक्त कब किसी का हुआ है
जो मेरा होता । मुझे बहना था उसके साथ और मैं बहता जा रहा था बिना किसी उमंग के । हकीकत
के धरातलों पर कालीन नहीं बिछे होते तो उसकी ऊबड खाबडता से मुझे रु-ब-रु तो होना
ही था । माँ को मैने दिल्ली में अपने पास ही बुला लिया था और अब तो वैसे भी तुमसे
बिछडे चार साल हो गये थे तो एक दिन माँ कुछ तस्वीरें लेकर आ गयी कि , “ देखो अब
मुझसे अकेले काम नहीं होता मुझे कोई साथी चाहिए ।“
“तो कल ही एक नौकर का
इंतज़ाम करता हूँ माँ”
“अरे नहीं नौकरों के
भरोसे कब घर चले हैं , मुझे तो कोई अपना सा चाहिए ताकि मुझे भी चैन मिले । ये देख
तस्वीरें जो पसन्द हो बता दे उसी से तेरा ब्याह करा दूँ”
“माँ , मुझे नहीं करनी
शादी – वादी”
“तो क्या संयासी बन जीवन
गुजारना है ? और अब तो तुम्हारी उम्र भी सही है नौकरी करते भी इतना वक्त हो चुका
है अब सही समय है तुम्हारा घर बस जाए और मुझे भी राहत मिले और देखो इस बार मैं न
नहीं सुनूँगी और यदि नहीं माने तो गाँव वापस चली जाऊँगी” माँ ने अपना अंतिम हथियार आखिर चला ही दिया और
सुमन मेरी ज़िन्दगी में आ गयी।
सुमन , मेरी पत्नी ,
जीवनसंगिनी का हर फ़र्ज़ बखूबी निभाती रही पर मैं कभी तुमसे खुद को अलग नहीं कर पाया
। उसमें सदा तुम्हें ही खोजता रहा । पहलू में उसके होता और उसके शरीर में तुम्हारा
अक्स ढूँढा करता मगर कभी तुम्हारा कोई छोर न पाता । कहाँ तुम और कहाँ वो बस तराजू
के पलडे में दोनो शख्सियतों को तोलता रहा । जाने क्यूँ हमेशा यही लगता तुम होतीं
तो आज ज़िन्दगी कुछ और ही होती । तुम्हारा दबंग स्वभाव उस पर इतनी समझदारी दोनो का
सम्मिश्रण ही था जिसने मुझे तुमसे बाँधे रखा था वरना रूप का क्या है वो तो बहुत
मिल जाते ज़िन्दगी में जितने चाहता । फिर भी एक प्यास कायम रही जिसे कभी लांघ नहीं
पाया तभी तो सुमन का निश्चेष्ट शरीर मुझमें कभी उत्तेजना नहीं भर सका । कितनी बार
चाहता था कि वो सैक्स के समय उन्मुक्त व्यवहार करे , कुछ आसन आजमाये , कभी अपने मन
के उदगार कहे और मैं उसे वो असीम सुख देते हुए खुद को तृप्त महसूस करूँ मगर जाने
क्या बात थी हर संभव कोशिश के बाद भी कभी उसे आंतरिक क्षणों में अपने पास नहीं
पाया । कभी कभी ख्याल आता कि शायद हो उसकी ज़िन्दगी में भी कोई और तभी ऐसा व्यवहार
करती है लेकिन फिर खुद को ही दुत्कार देता, पागल है , अपनी तरह मत सोच , सबके शरीर
का सिस्टम अलग होता है. हो सकता है उसमें न हों वो हारमोन जो उसे उत्तेजित कर सकते
हैं । बेशक पत्नी जीवन का वो हिस्सा होती है जहाँ इंसान पूर्णता पा लेता है उसमें
अपने सुख - दुख समो देता है दो जिस्म एक जान कहे जाने वाले रिश्ते में भी मुझे कभी
ये अहसास नहीं हुआ हमेशा शरीर के स्तर पर आकर एक कुंठा मुझे छेदती रही , मेरी रूह
को छलनी करती रही । जाने क्या पाना चाहता था मैं सुमन से ? ख्यालों की डुबकी जब
लगाता तो लगता जैसे सुमन नहीं सुधि मेरे पहलू में लेटी है और अचानक ही उसने जैसे
अपने अधर मेरे अधरों पर रखे हैं और मैं चेतनाशून्य होने लगा हूँ . कभी लगता अपनी
ज़ुल्फ़ों के बादल मेरे चेहरे पर फ़हरा मुझे अपने आगोश में ले सुधि अपने साथ एक
काल्पनिक संसार में ले गयी है और कह रही है , देखो शेखर , आखिर हम एक हो ही गये तन
और मन दोनो से । और मैं तुम्हारे जिस्म की खोहों में अपना पानी खोजने लगता । भावों
के आवेग संवेग में तुम संग संभोग करता , तुम्हारे जिस्म के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं
के स्पर्श पर जब तुम सिहर - सिहर उठतीं तब मानसिक के साथ शारीरिक तृप्ति पा जाने
के उपरान्त जब हकीकत के धरातल पर उतरता तो वहाँ सुमन को देख एक वितृष्णा खुद के
लिए ही उपजने लगती , आखिर मेरे साथ ऐसा होता क्यों है ? क्यों नहीं हकीकत के धरातल
पर रहकर उसे स्वीकार कर पाता ? मिलता तो सुख मुझे सुमन के जिस्म से ही था मगर जाने
क्यों ख्यालों में सुधि का रहना मुझमें ग्लानि उत्पन्न कर देता और मैं सुमन से कटा
कटा रहता कि आखिर वो क्या सोचती होगी मेरे बारे में जबकि ये भी उतना ही बडा सच है
कि उसे बिल्कुल नही पता सुधि और मेरे बारे में । एक अजीब तनी हुयी रस्सी हमेशा
मेरे मन और जिस्म के बीच बनी रहती जिस पर चलते - चलते मैं थकने लगा था । जाने किन
किन ख्यालों के भँवर में डूबता उतरता रहा और उम्र का एक पडाव यूँ ही गुजर गया इस बीच दो
प्यारे प्यारे बच्चों का पिता भी बन गया और अब वो ही मेरी ज़िन्दगी बन चुके थे जिनके
लिए मैं सब कुछ करना चाहता था . सारे ज़माने की खुशियाँ उनके कदमों में डालना ही
ज़िन्दगी का मकसद बना लिया था । इस बीच माँ भी छोडकर चली गयी उस जहान में जहाँ से
कोई वापस नहीं आता और मैं एक बार फिर खुद को अकेला महसूसने लगा । धीरे धीरे
ज़िन्दगी फिर पटरी पर आ गयी । मगर ज़िन्दगी के इम्तिहान न खत्म हुए । नौकरी और
तबादलों का सिलसिला चलता रहा । और हर जगह तुम्हें खोजता रहा शायद कहीं किसी मोड पर
मिल जाओ अचानक तो बताऊँ तुम्हें तुम्हारे बगैर कितना अधूरा हूँ मैं ।
तीसरा फ़साना :
वक्त ने एक बार फिर हाथ
आजमाने शुरु कर दिए । मैं यूँ तो अपने काम में लगा रहता था मगर कवितायें कहानियाँ
लिखने का शौक तो शुरु से था ही. जब ब्लॉग का पता चला तो एक ब्लॉग़ बना लिया और वहाँ
अपने दर्द को जगह देने लगा । मेरे लेखन में सदा सुधि की यादें समायी रहतीं और मैं
प्रेमकवि के नाम से विख्यात होने लगा । मेरी कविताओं से जाने कितनी ही लडकियाँ
स्त्रियाँ प्रभावित होतीं और मुझसे बात करतीं । मगर जाने कहाँ से एक हवा का जैसे
कोई शीतल झोंका ज़ीवन में आया सुरभि के रूप में जिसने अपनी सुरभि से मेरे पलों को
महका दिया । वो भी कवितायें ही लिखती थी , उसका भी प्रिय विषय प्रेम ही था तो
हमारी ट्यूनिंग तो बैठनी ही थी । धीरे धीरे मेरी कविताओं का केन्द्र बिन्दु कब
सुधि से सुरभि हो गयी मुझे भी पता न चला । अब जब तक उसका कमेंट न आता मुझे चैन न
पडता । मैं उसे बडे - बडे कमेंट करने को कहता मगर वो भी अपने मन की एक ही थी वो तो
मेरी कविताओं में कमेंट के बदले अपनी कोई कविता ही चिपका देती उस कविता के जवाब
में और फिर मैं उस कविता का जवाब लिखता तो वो अगली कविता उसके जवाब में लिख देती ।
मुझमें एक बार फिर मोहब्बत का संचार होने लगा था , मैने सुरभि से इज़हार करना चाहा
मगर वो तो मेरी आशाओं से विपरीत दिशा में बहती नदी थी जिसे पकड पाना मेरे लिए शायद
संभव नहीं था । उसके लिए मैं सदा एक दोस्त ही रहा इससे अलग कुछ नहीं क्योंकि उसका
भी अपना घर परिवार था और वो अपने परिवार में बेहद खुश थी तो उसे आखिर क्या जरूरत
थी जो इस चक्कर में पडती मगर मैं प्रेम का प्यासा कुआँ था जो बिन पानी के सिसक रहा
था जिसकी मेंड पर नहीं पडते थे अब रस्सियों के निशान । मैने जाने कितनी बार सुरभि
से सिर्फ़ प्लैटोनिक लव के बारे में ही संबंध चाहे मगर वो भी अपनी धुन की एक ही
पक्की थी , वो शायद मेरी दशा समझती थी तभी एक दिन उसने कहा :
“शेखर , देखो तुम एक
बहुत अच्छे कवि हो तो तुम्हें अपना सारा ध्यान अपने कैरियर और अपने परिवार की तरफ़
लगाना चाहिए । मैं नहीं चाहती हमारी एक अच्छी दोस्ती तुम्हारे बचकाना व्यवहार की
भेंट चढ जाए । तुम तुम्हारा लेखन मुझे अच्छा लगता है इसका ये मतलब नहीं कि मैं
तुम्हें चाहती हूँ या तुमसे किसी तरह का संबंध बनाना चाहती हूँ । मेरे लिए दोस्ती
एक ऐसा जज़्बा है जिसमें इंसान अपने सभी सुख दुख यूँ बयाँ कर जाता है जैसे खुद से
मुखातिब हो रहा हो और मैने तुममे एक ऐसा ही दोस्त देखा है फिर भी यदि तुम आगे इसी
तरह का व्यवहार करते रहे तो मुझे तुमसे दोस्ती तोडनी पडेगी जिससे बेशक मेरा दिल
बहुत दुखेगा मगर इसके सिवा दूसरा रास्ता तुम छोड नहीं रहे । प्रेम जीवन में
हर इंसान एक बार ही किया करता है उसके बाद
तो हर छवि में उसका अक्स ही ढूँढा करता है और मुझे लगता है तुमने वो चोट खायी है
इसीलिए तुम्हारे जीवन में ये भटकाव है अब तक वरना इतनी उम्र होने के बाद कहाँ इन
बातों के लिए किसी के पास समय होता है बल्कि अपने परिवार की जिम्मेदारियों में
इंसान इतना फ़ँसा होता है कि उसे इनके लिए वक्त ही नहीं मिलता”
उसने जैसे मेरे भेद को
पा लिया था , शायद वो समझ चुकी थी उस सत्य को जिसे मैंने सबसे छुपाया था और मैं
उसे खोना नहीं चाहता था इसलिए कबूल ली हर बात ।
“हाँ थी मेरी ज़िन्दगी
में एक लडकी जो आज अपने पति और परिवार के साथ जाने कहाँ होगी , जानता भी नहीं ,
उसे मेरी याद कभी आती भी होगी या नहीं , नहीं जानता मगर मैं ज़िन्दगी में आज भी उसी
मोड पर खडा हूँ जहाँ वो मुझसे विदा हुई थी , वो वक्त सिसकी भरता आज भी मेरी आँखों
के सामने खडा रहता है , सुरभि तुम नहीं समझ सकतीं पहला प्यार और उसे खोने का दर्द
क्या होता है और उसके बाद मुझे तुममें वो बात लगी जिससे मेरी ट्यूनिंग जमी इसी वजह
से तुम्हारी तरफ़ आकर्षित हुआ मगर सच में तुम एक ऐसी सच्ची दोस्त हो जिसने मुझे
वक्त रहते चेता दिया क्योंकि तुम्हारी दोस्ती खोकर शायद मैं अपने आप को ही खो
बैठूँ । ज़िन्दगी में सब कुछ मिल जाता है मगर एक सच्चा दोस्त मिलना बहुत मुश्किल
होता है और वो यदि कोई स्त्री हो तो नामुमकिन सा ही होता है उनका दोस्ती निभाना और
ऐसे में यदि तुम निभा सकती हो तो मैं क्यों नहीं तुम्हारी मर्यादा की खींची
लक्ष्मण रेखा को पार करूँ और तुमसा सच्चा मित्र खो दूँ । नहीं सुरभि अब मुझमें
हिम्मत नहीं बची और कुछ खोने की”पर फिर भी रेत सी
ज़िन्दगी हाथ से फ़िसलती रही और मेरे मन में कुछ अंगार दहकते रहे । जाने क्या बात थी
मैं सुरभि से सैक्स संबंधी बात भी कर लिया करता था यानि उसे कहता तुम कुछ लिखो ऐसा
जिससे स्त्री क्या महसूसती है वो पता चले उन पलों में , कैसे उत्तेजित होती है ,
कैसे हाव भाव होते हैं और पुरुष से वो क्या चाहती है और मैं पुरुष के भाव लिखता
हूँ और फिर हम दोनो अपना एक संयुक्त संग्रह छपवाते हैं मगर उसने कभी इसमें
दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि किसी न किसी बहाने टालमटोल कर देती तो एक दिन मैने उससे
पूछ ही लिया कि आखिर क्यों टाल रही हो ?
“शेखर , मेरी ये राह
नहीं , मैं स्वस्थ लेखन में विश्वास रखती हूँ और इस तरह सफ़लता पाना मेरा मकसद नहीं”
“मगर आज सभी करते हैं
ऐसा लेखन , जरा पढो तो सही एक बार गूगल पर जाकर या बडे बडे राइटर्स की किताबें ,
सभी ने लिखा है तो क्या ऐसा लिखना गलत है”
“मैं नही जानती गलत है
या सही मगर तुम जो बार - बार मुझे उस तरफ़ धकेलते हो मुझे अच्छा नहीं लगता । बहुत
बार देखा है मैने कि तुमसे जब भी बात हुई तुम किसी न किसी बहाने सैक्स पर ले आते
हो …… पूछ सकती हूँ आखिर क्यों ?”
“क्या तुम अपनी ज़िन्दगी
में सैक्स लाइफ़ से संतुष्ट नहीं हो ?”
“सुरभि , क्या कहूँ अब
तुम्हें , चलो छोडो”
“नहीं आज बात फ़ाइनल हो
जानी चाहिए क्योंकि मैं नहीं चाहती कि तुम आज के बाद हमारे बीच इस तरह की बात लाओ”
“सुरभि तुम्हें मैने सब
तो बता रखा है अपने जीवन के बारे में कैसे सुधि की यादों के साथ सुमन को सहेजा है
फिर भी आज बताता हूँ” और फिर मैने सब बता दिया उसे तो वो बोली
“शेखर , शायद तुम्हें
प्यार के अर्थ ही नहीं पता यदि पता होते तो
इस तरह न भटके होते । प्यार और सैक्स
दो अलग चीजें हैं
और मुझे लगता है कि तुम सुमन में सुधि को खोजते रहे इसलिए कभी
संतुष्ट नहीं हो सके और जानते हो सुधि को खोजना क्या सिद्ध कर रहा है कि तुम्हारा
प्रेम अभी उथला था यदि गहरा होता तो वहाँ शरीर होता ही नहीं. कहीं न कहीं तुममे
सुधि के शरीर को लेकर एक वासना थी तभी तुम अपनी पत्नी में उसे खोजते रहे और जब
वहाँ नही मिला तो मेरे साथ अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए प्रयास करते रहे मगर शेखर
, प्रेम आत्मिक होता है न मानसिक न शारीरिक और उस हद तक पहुँचने के लिए अभी
तुम्हें वक्त लगेगा. जब तक तुम खुद को नही समझोगे जानोगे कि आखिर तुम क्या चाहते
हो खुद से , ज़िन्दगी से और रिश्तों से । शेखर जिसे तुम सुधि के लिए अपना प्रेम कह
रहे हो वो वास्तव में प्रेम नहीं तुम्हारी वासना है क्योंकि जिस तरह तुम मुझे बता
रहे हो कि सैक्स के वक्त तुम अपनी पत्नी नहीं मानो सुधि के साथ संभोग कर रहे होते
हो तो ये तुम्हारी मानसिक कुंठा है न कि प्रेम । यदि मुझे सच्चा दोस्त मानते हो तो
मैं तुम्हें बताना चाहूँगी बल्कि एक सलाह देना चाहूँगी कि तुम्हें किसी
मनोचिकित्सक को दिखाना चाहिये जो तुम्हारी इस समस्या को समझे और उसका सही निदान
बताये क्योंकि उम्र के आधे पडाव पर हो और फिर भी अब तक यदि तुम ख्यालों में या
मानसिक रूप से संतुष्ट नहीं तो इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि तुम्हें डॉक्टरी
सलाह की जरूरत .है जिसे तुम प्यार कह रहे हो वो प्यार नहीं है क्योंकि प्यार में
सिर्फ़ पवित्रता होती है , वहाँ शरीर बीच में नहीं आते और तुम अब तक सिर्फ़ शरीर तक
ही सीमित रहे हो फिर चाहे मानसिक रूप से ही सही. जब एक जगह संतुष्टि नहीं मिली तो
औरों में ढूँढने चल दिए मगर तुम तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते जब तक जो मैने कहा है
उस पर न ध्यान दोगे । वैसे बहुत ज्यादा कह दिया है मैने तुम्हें अपने अधिकार से
ज्यादा मगर एक सच्चा दोस्त वो ही होता है जो अपने दोस्त को सही राह दिखाये. बेशक
इसके बाद तुम मुझसे दोस्ती न रखना चाहो तो मत रखना मगर फिर भी ये मेरा फ़र्ज़ था जब
तुमने इतने खुले दिल से अपनी सारी बात बतायीं तो मुझे निष्पक्ष तौर से देखने पर
यही उचित समाधान लगा। बाकी जो तुम ठीक समझो”
उसके शब्द मेरे दिलो
दिमाग पर दस्तक देते रहे मैं जाने कितने ख्यालों के सागर में हिचकोले भरता रहा ,
बेशक उसकी दी सलाह को मानने से परहेज करता रहा मगर उसके शब्द मस्तिष्क की शिराओं
में टंकार करते रहे यूँ लगा जैसे किसी ने मुझे भरे बाजार वस्त्रहीन कर दिया हो ,
कोई किसी को किस हद तक जान सकता है सिर्फ़ बातों से ये मैने उस दिन जाना और निर्णय
किया कि अपनी इस दोस्त को किसी कीमत पर खोने नहीं दूँगा आखिर उम्र के ऐसे पडाव पर
था मैं जहाँ के बाद तो अर्धशतक होने में सिर्फ़ कुछ ही साल बचे थे और मैने यूँ
ज़िन्दगी तबाह कर ली ।
और आज तक हमारी दोस्ती
कायम है कितने साल बीत गये हिसाब नहीं रखा मगर जाने कौन सी कसक है जिसने मुझे न
जीने दिया न मरने । मैं आज भी अपने मन के तिलिस्म में कैद किसी कैदी सा खुद से
जिरह करता रहता हूँ । यूँ कभी कोई कमी भी नही रही मुझे सब कुछ तो मिला फिर भी एक
कसक ने अपना हाथ मेरे दिल पर हमेशा रखा और उस कारण मेरी तीन चार कविताओं और
कहानियों की किताबें भी आ चुकी हैं बहुत से पुरस्कारों से सम्मानित हो चुका हूँ । इसके अलावा अच्छे संगीत से मुझे सदा लगाव रहा
खासकर सूफ़ी संगीत से क्योंकि ओशो मेरे आदर्श रहे तो वहाँ ढूँढना चाहा अपनी प्यास
के अंतिम छोर को मगर एक प्यासा सिरा हमेशा मेरे अस्तित्व को कुचलता रहा , मसलता
रहा और मैं तीन चेहरों में भटकता रहा । किसी को भी न अपना कह सका । जो अपना था उसे
अपना न सका और जो बेगाना था उसे अपना बना न सका , ये कैसी मेरे मन की ग्रंथि है
जिसे मैने जितना सुलझाना चाहा उतना ही उसमें उलझता चला गया मगर कभी किसी ठोस
निर्णय पर नहीं पहुँच सका । क्या भटकाव ही जीवन है ? क्या अतृप्ति ही तृप्ति का
अंतिम छोर है ? क्या मन की मछली की आँख भेदना इतना कठिन है कि अर्जुन हो या कर्ण
सबके तीर चूक गये यहाँ आकर ? एक उहापोह से ग्रसित मैं आज तक न समझ पाया आखिर मैने
अपने जीवन से चाहा क्या और मेरी दिशा है क्या ? जो मिला उसे स्वीकारना क्या मजबूरी
नहीं ? ये तो एक तरह से आत्महत्या है मेरी मेरे द्वारा ही क्योंकि बेमन से जीता
आया हूँ आज तक । जो मिला स्वीकारता भी रहा मगर मुझमें “मैं “ कहीं ज़िन्दा भी हूँ
………… बस तब से आज तक यही ढूँढ रहा हूँ । कहीं मिले तो पूरा हो जाये घटनाक्रम और
ज़िन्दगी में भी तब तक अल्पविराम तो आते रहेंगे मगर पूर्णविराम अब भी एक
प्रश्नचिन्ह सा मेरे दिल और दिमाग की कन्दराओं में दस्तक दे रहा है और पूछ रहा है
……… कौन हो तुम और आखिर क्या चाहते हो ?
ख्वाब हकीकत और फ़साने के
बीच मैं आज तक न जान सका प्रेम का बीज वक्तव्य , शरीर का विज्ञान और आत्मिक प्रेम
के सहचर बिन्दु फिर कैसे संभव है मेरा मेरी प्रेतयोनि से मुक्त होना …… हाँ प्रेत
ही तो बन गया है मेरा अस्तित्व आज जिसे नहीं पता उसकी मुक्ति का मार्ग क्या है ?
यहाँ न कोई अपराध बोध है
न वितृष्णा न मोह जो संगसार होने से बचने के उपाय करूँ फिर भी मुझमें मेरा “ मैं “
चिंघाडता है आखिर कैसे मिलेगी मुझे शांति ? या मैं ज़िन्दा शरीर की कब्र में यूँ ही
दफ़न रहूँगा बिलबिलाता हुआ और कहता हुआ मन और मस्तिष्क के बेकाबू घोडों की रेस में
खुद को हारती ये कैसी ज़िन्दगी है मेरी ???
एक ज़िन्दगी …………तीन
चेहरे …………फिर भी अधूरे !!!
तो क्या मुझे सुरभि
द्वारा दिखाये उपाय पर गौर करना चाहिए था ?
जैसे ही प्रेमकुमार ने
कहते हुए किताब बंद की तालियों की गडगडाहट से पूरा हाल गूँज उठा . आज शेखर उर्फ़
लेखक प्रेमकुमार की आत्मकथा का विमोचन जो था .............और ये था उसका अंतिम
पन्ना !!!