चाहतों के आसमान कितने बुलंद होते हैं कि कभी बने बनाये रास्तों पर नहीं चला करते , हर बार परिपाटियाँ तोड़ने को आतुर होते हैं . सृष्टि का अपना नियम है उसी पर चलती है मगर मनुष्य की बुद्धि हमेशा अज्ञात के कठोर धरातल पर ही पाँव रखती है और खोजने चल देती है जबकि आदिकाल से चला आ रहा सत्य कैसे झुठलाया जा सकता है ये जानती है फिर भी एक जिद उसे उस ओर मोडती है जहाँ से आगे राह ही नहीं होती . कुछ ऐसे ही विचारों ने आजकल जन्म लिया हुआ है जब पिछले दिनों कुछ अपनों को असमय जाते देखा तो प्रश्न उठने स्वाभाविक थे . सबसे बड़ा प्रश्न यही उठता है मन में आखिर हम सब जानते हैं मृत्यु शाश्वत सत्य है और उसे स्वीकारते भी हैं फिर भी एक प्रश्न खाए जाता है ......... वो जो कल तक खुद को सर्वेसिद्धा सिद्ध कर रहा हो और अचानक काल कवलित हो जाए पीछे रहने वाले तो रोते हैं पछताते हैं लेकिन जिसे ये गुमान होता है कि सब मेरे कितने खैर ख्वाह हैं , मेरे कितने अपने हैं , मेरे बिना जी नहीं सकते वास्तव में उनके असली चेहरे मरने के बाद सामने आते हैं जो बाकि दुनिया तो देखती है मगर एक वो ही नहीं देख पाता और आँखों पर अपनेपन की पट्टी लगाये इस जहाँ से चला जाता है तो कहा जाता है उससे सबक सीखे दुनिया और समझे यहाँ कोई किसी का नहीं जो सच ही सिद्ध होता है मगर प्रश्न यहीं से उठता है :
कृष्ण कहूं या विधाता ! ये कैसा खेल रचा
क्यों नहीं तूने मरने वाले को
फिर से एक बार जीवित हो जीने का मौका दिया
हाँ , एक बार मरता वो और देखता
उसके मरने पर क्या क्या हुआ
शायद जाग जाता उसका विवेक
शायद समझ जाता ये भेद
ये जगत् सिर्फ सपना है
यहाँ कोई नहीं अपना है
क्योंकि
ये मानवीय गुण है उसका
बिना अनुभव कुछ न स्वीकारना
तो बता एक बार अनुभव ही करा देता
तो भला तेरा क्या जाता
मगर मानव का अपने अस्तित्व से परिचय तो हो जाता"
फिर संभाल पाता वो अपना बिखरा अस्तित्व
जो एक बार तू उसे मौका दे देता
जान जाता मुखौटों की महिमा
जान जाता शहरों के बदलते मिजाज़ का सबब
और दे जाता दुनिया को एक अदद समझ का पैमाना
क्योंकि कभी कभी ज़रूरी होता है
जीवन हो या मृत्यु दोनों को इरेज़ करना
और एक नयी इबारत लिखना
फिर जीवित हो पुरानी गलतियों को न दोहराकर
एक नए सफे पर नयी इबारत लिखना
क्योंकि याद होती उसे विघटन की प्रतिक्रिया
मुमकिन है तब दुनिया की तस्वीर कुछ और होती
कृष्ण ! कम से कम तेरी बनायीं इस सृष्टि से तो बेहतर होती
जहाँ छल फरेब बेईमानी के लिए न कोई जगह होती
कह सकते हो तुम तब
यही नियम दुष्टों पर भी लागू होता
मानती हूँ मगर क्या तब उसे अपनी दुष्टता का आभास न होता
क्या तब उसे समझ न आता
ये आखिरी मौका मिला है भूल सुधार का
क्या तब भी वो उसी कुकृत्य भरी राह पर कदम रखता
नहीं कृष्णा नहीं
दुष्ट हो या सरल सभी जानते हैं अपना सही और गलत
और फिर जहाँ आखिरी मौके की बात हो
वहां कौन फिर ऐसा होगा जो मौका हाथ से जाने दे
इतनी समझ तो दुष्ट भी रखता है
जब अंतिम विकल्प उसे दिखता है
तो जागृत हो जाता है उसका विवेक भी
और करके तौबा दुष्टता से
आत्म उद्धार हेतु वो भी प्रयत्न करता है
गर सलामत रह सके दुनिया
गर बदल सके तस्वीर
गर पहचान हो सके खुद की
हे कृष्ण ! एक मौका मृत्यु के बाद जीवन फिर देना कोई घाटे का सौदा तो नहीं .........