श्लोक
परन्तु उन अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला(नाशवान) ही मिलता है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या
देवताओं की उपासना करने वाले अल्पबुद्धि मन्ष्यों को अन्तवाला अर्थात सीमित और नाशवान फल मिलता है। यहाँ शंका होती है कि भगवन के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिए फिर उसको अनित्य फल क्यूँ मिलता है? इसका समाधान ये है कि एक तो उनमें नाशवान पदार्थों की कामना की और दूसरी बात , वे देवताओं को भगवान से अलग मानते हैं । इसलिए उनको नाशवान फल मिलता है । परन्तु उनको दो उपायों से अविनाशी फल मिल सकता है ------एक तो वे कामना न रखकर देवताओं की उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल सकता है और दूसरी बात ,वे देवताओं को भगवान से भिन्न न समझकर , अर्थात भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायेगी तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।
फल तो भगवान का विधान किया हुआ है मगर कामना होने से वो नाशवान हो जाता है । कहने का तात्पर्य ये है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं पर फल सीमित मिलता है परन्तु मेरी आराधना में इन नियमों की जरूरत नही है और फल भी असीम और अनंत मिलता है । इसलिए देवताओं की उपासना में नियम अधिक और फल कम और मेरी आराधना में नियम कम और फल अधिक और कल्याणकारी हो , ऐसा जानने पर भी जो मनुष्य देवताओं की उपासना में लगे रहते हैं वो अल्पबुद्धि हैं।
देवताओं की उपासना करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरी उपासना करने वाले मेरे को इसका अर्थ है कि मेरी उपासना करने वालों की कामना पूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति भी हो सकती है अर्थात मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम , वे सब के सब मेरे को ही प्राप्त होते हैं परन्तु भगवान की उपासना करने वालों की सब कामना पूर्ण हो जायें ऐसा नियम नहीं है । भगवान उचित समझेंगे तो पूरी कर देंगे अर्थात जिसमें भक्त का हित होगा वो तो पूरा कर देंगे और अहित होने पर जितना भी रो लो , पुकार लो वो उसे पूरा नही करते।
भगवान का भजन करने वाले को भगवान की स्मृति रहती है क्यूंकि ये सम्बन्ध सदा रहने वाला है अतः भगवान को प्राप्त करने पर फिर संसार में लौट कर नही आना पड़ता परन्तु देवताओं का सम्बन्ध सदा रहने वाला नही है क्यूंकि वह कर्मजनित है। इसलिए संसार में फिर लौटकर आना पड़ता है।
सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान् का विधान भी भगवत्स्वरूप है ----------ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना --------ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाए तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाएगा और यदि संसार भगवत स्वरुप दिखने लग जाएगा तो कामना मिट जायेगी।
फल तो भगवान का विधान किया हुआ है मगर कामना होने से वो नाशवान हो जाता है । कहने का तात्पर्य ये है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं पर फल सीमित मिलता है परन्तु मेरी आराधना में इन नियमों की जरूरत नही है और फल भी असीम और अनंत मिलता है । इसलिए देवताओं की उपासना में नियम अधिक और फल कम और मेरी आराधना में नियम कम और फल अधिक और कल्याणकारी हो , ऐसा जानने पर भी जो मनुष्य देवताओं की उपासना में लगे रहते हैं वो अल्पबुद्धि हैं।
देवताओं की उपासना करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरी उपासना करने वाले मेरे को इसका अर्थ है कि मेरी उपासना करने वालों की कामना पूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति भी हो सकती है अर्थात मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम , वे सब के सब मेरे को ही प्राप्त होते हैं परन्तु भगवान की उपासना करने वालों की सब कामना पूर्ण हो जायें ऐसा नियम नहीं है । भगवान उचित समझेंगे तो पूरी कर देंगे अर्थात जिसमें भक्त का हित होगा वो तो पूरा कर देंगे और अहित होने पर जितना भी रो लो , पुकार लो वो उसे पूरा नही करते।
भगवान का भजन करने वाले को भगवान की स्मृति रहती है क्यूंकि ये सम्बन्ध सदा रहने वाला है अतः भगवान को प्राप्त करने पर फिर संसार में लौट कर नही आना पड़ता परन्तु देवताओं का सम्बन्ध सदा रहने वाला नही है क्यूंकि वह कर्मजनित है। इसलिए संसार में फिर लौटकर आना पड़ता है।
सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान् का विधान भी भगवत्स्वरूप है ----------ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना --------ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाए तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाएगा और यदि संसार भगवत स्वरुप दिखने लग जाएगा तो कामना मिट जायेगी।