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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ....................

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २३ वे श्लोक की व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने कुछ इस प्रकार की है...............

श्लोक

परन्तु उन अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला(नाशवान) ही मिलता है । देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

व्याख्या


देवताओं की उपासना करने वाले अल्पबुद्धि मन्ष्यों को अन्तवाला अर्थात सीमित और नाशवान फल मिलता है। यहाँ शंका होती है कि भगवन के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिए फिर उसको अनित्य फल क्यूँ मिलता है? इसका समाधान ये है कि एक तो उनमें नाशवान पदार्थों की कामना की और दूसरी बात , वे देवताओं को भगवान से अलग मानते हैं । इसलिए उनको नाशवान फल मिलता है । परन्तु उनको दो उपायों से अविनाशी फल मिल सकता है ------एक तो वे कामना न रखकर देवताओं की उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल सकता है और दूसरी बात ,वे देवताओं को भगवान से भिन्न न समझकर , अर्थात भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायेगी तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।

फल तो भगवान का विधान किया हुआ है मगर कामना होने से वो नाशवान हो जाता है । कहने का तात्पर्य ये है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं पर फल सीमित मिलता है परन्तु मेरी आराधना में इन नियमों की जरूरत नही है और फल भी असीम और अनंत मिलता है । इसलिए देवताओं की उपासना में नियम अधिक और फल कम और मेरी आराधना में नियम कम और फल अधिक और कल्याणकारी हो , ऐसा जानने पर भी जो मनुष्य देवताओं की उपासना में लगे रहते हैं वो अल्पबुद्धि हैं।

देवताओं की उपासना करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरी उपासना करने वाले मेरे को इसका अर्थ है कि मेरी उपासना करने वालों की कामना पूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति भी हो सकती है अर्थात मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम , वे सब के सब मेरे को ही प्राप्त होते हैं परन्तु भगवान की उपासना करने वालों की सब कामना पूर्ण हो जायें ऐसा नियम नहीं है । भगवान उचित समझेंगे तो पूरी कर देंगे अर्थात जिसमें भक्त का हित होगा वो तो पूरा कर देंगे और अहित होने पर जितना भी रो लो , पुकार लो वो उसे पूरा नही करते।
भगवान का भजन करने वाले को भगवान की स्मृति रहती है क्यूंकि ये सम्बन्ध सदा रहने वाला है अतः भगवान को प्राप्त करने पर फिर संसार में लौट कर नही आना पड़ता परन्तु देवताओं का सम्बन्ध सदा रहने वाला नही है क्यूंकि वह कर्मजनित है। इसलिए संसार में फिर लौटकर आना पड़ता है।

सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान् का विधान भी भगवत्स्वरूप है ----------ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना --------ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाए तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाएगा और यदि संसार भगवत स्वरुप दिखने लग जाएगा तो कामना मिट जायेगी।

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से .......................

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २२ वें श्लोक में भगवान् देवताओं की उपासना के बारे में समझाते हैं और इसका बहुत ही सुंदर वर्णन स्वामी रामसुखदास जी ने इस प्रकार किया है ----------

श्लोक

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई ) श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य (सकामभावपूर्वक )उस देवता की उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है ;परन्तु वह कामना -पूर्ति मेरे द्वारा विहित की हुई होती है ।

व्याख्या

मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धा से संपन्न हुआ वह मनुष्य उस देवता की आराधना की चेष्टा करता है और उस देवता से जिस कामना पूर्ति की आशा रखता है, उस कामना की पूर्ति होती है । यद्यपि वास्तव में उस कामना की पूर्ति मेरे द्वारा की हुई होती है ;परन्तु वह उसको देवता से ही पूरी की हुई मानता है । वास्तव में देवताओं में मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधान से वे उनकी कामनापूर्ति करते हैं।

जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो , इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती ;अतः वे उतना ही दे सकते हैं , अधिक नही । देवताओं में अधिक से अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने-अपने उपासकों को अपने -अपने लोक में ले जा सकते हैं । परन्तु अपनी उपासना का फल भोगने पर उनको वहां से लौटकर पुनः संसार में आना पड़ता है ।

संसार में स्वतः जो कुछ सञ्चालन हो रहा है वह सब मेरा ही किया हुआ है । अतः जिस किसी को जो कुछ मिलता है , वह सब मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है । कारण कि मेरे सिवाय विधान करने वाला कोई दूसरा नही है । अगर कोई मनुष्य इस रहस्य को समझ ले । तो फिर वह केवल मेरी तरफ़ ही खींचेगा।

कहने का तात्पर्य ये हुआ कि सर्व शक्ति मान तो एक ही है बस उसी को इंसान नही समझ पाता और इधर उधर भागता -फिरता है । एक का दामन पकड़ ले तो उसका कल्याण निश्चित है। बस वो श्रद्धा और विश्वास अटल होना चाहिए।

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ...............

श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २१ वें श्लोक में भगवान प्रत्येक देवता के प्रति श्रद्धा का बखान कर रहे हैं। स्वामी रामसुखदास जी ने इसकी बहुत ही सुंदर व्याख्या की है ।
श्लोक

जो- भक्त जिस -जिस देवता का श्रद्धा पूर्वक पूजन करना चाहता है ,उस- उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ ।

व्याख्या

भगवान कहते हैं ------जो- जो मनुष्य जिस- जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धा पूर्वक भजन -पूजन करना चाहता है उस -उस मनुष्य की श्रद्धा उस -उस देवता के प्रति में अचल कर देता हूँ । वे दूसरों में न लगकर मेरे में ही लग जायें -------ऐसा मैं नही करता। यद्यपि उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नही होता ,फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरे में श्रद्धा - प्रेम रखते हैं ,अपना कल्याण करना चाहते हैं ,उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति कैसे दृढ़ नही करूंगा अर्थात अवश्य करूंगा, कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ ।
इस पर शंका होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही क्यूँ नही दृढ़ करते?इस पर भगवान मानो ये कहते हैं कि अगर में सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्म कि स्वतंत्रता और सार्थकता कहाँ रही ?तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगो को अपने में ही लगाने का आग्रह करें तो ये कोई बड़ी बात नही क्यूंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के स्वार्थी जीवों का होता है । अतः मैं ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ जिससे मनुष्य अपने स्वार्थों का त्याग करके अपनी पूजा प्रतिष्ठा में ही न लगा रहे ,किसी को पराधीन न बनाये।
अब दूसरी शंका ये उठती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गई ,पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होने पर अहित ही हुआ न ? इसका समाधान ये है कि अगर में उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगाने का भावः रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जायेगी। परन्तु अगर में अपने में लगाने का भावः नही रखूँगा और उन्हें स्वतंत्रता दूंगा तो जो बुद्धिमान होंगे वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी ओरे आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है।
अब तीसरी शंका यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दृढ़ कर देते हैं तो फिर कोई उस श्रद्धा को मिटा ही नही सकता। फिर तो उसका पतन होता ही चला जाएगा। इसका समाधान ये है कि मैं उनकी श्रद्दा को देवताओं के प्रति दृढ़ करता हूँ दूसरों के प्रति नही -------ऐसी बात नही है । मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छा को बदलने में मनुष्य स्वतंत्र है, योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश ,निर्बल और अयोग्य नही है । अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्म की महिमा ही कहाँ रही ? और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था।

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

श्रीमद भगवद्गीता से ...............

श्रीमद भगवद्गीता के सातवें अध्याय का ४० वां श्लोक आज के सन्दर्भ में कितना सटीक है । आज इसका थोड़ा सा वर्णन लिख रही हूँ जो स्वामी रामसुखदास जी ने किया है ।
श्लोक
श्री भगवन बोले -----हे पृथानन्दन !उसका ने तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है क्यूंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नही जाता ।

व्याख्या
जिसको अन्तकाल में परमात्मा का स्मरण नही होता उसका कहीं पतन तो नही हो जाता ----इस बात को लेकर अर्जुन के ह्रदय में व्याकुलता है । यह व्याकुलता भगवान से छिपी नही है ,इसलिए भगवान पहले इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं।
भगवान कहते हैं -----हे प्रथानंदन जो साधक अन्तसमय में किसी कारणवश योग से ,साधन से विचलित हो जाता है वह योगभ्रष्ट साधक मरने के बाद चाहे इस लोक में जनम ले या परलोक में जनम ले उसका पतन नही होता। तात्पर्य है कि उसकी योग में जितनी स्थिति बन चुकी है उससे नीचे नही गिर सकता। उसकी साधन सामग्री नष्ट नही होती। जैसे भरत मुनि जो भारतवर्ष का राज छोड़कर एकांत में तप करने चले गए थे मगर दयापरवश होकर एक हिरन के बच्चे में आसक्त हो गए जिससे दूसरे जनम में उन्हें हिरन बनना पड़ा परन्तु जितना त्याग,तप साधना उन्होंने पिछले जनम में की थी वह नष्ट नही हुयी ,उनको हिरन के जनम में भी वो सब याद था जो मनुष्य जनम में भी याद नही रहता अर्थात हिरन के जनम में भी उनका पतन नही हुआ। इसी तरह पहले जनम में मनुष्य जिनका स्वभाव सेवा करने का होता है वे किसी कारणवश योगभ्रष्ट हो भी जायें तो भी उनका वह स्वभाव नष्ट नही होता फिर चाहे वो अगले जनम में पशु पक्षी ही क्यूँ न बन जायें, परोपकार की भावना उनमें उसी तरह बनी रहती है। ऐसे बहुत से उदहारण आते हैं। एक जगह कथा होती थी तो एक कला कुत्ता वहां आकर बैठता था और कथा सुनता था । जब कीर्तन करते हुए कीर्तन मण्डली घूमती तो उस मंडली के साथ वह कुत्ता भी घूमता था।

भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य कल्याणकारी कामों में लगा रहता है उसका कभी पतन नही होता क्यूंकि उसकी रक्षा मैं करता रहता हूँ फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है। जो मनुष्य मेरी तरफ़ चलता है वह मुझे बहुत ही प्यारा लगता है क्यूंकि वास्तव में वो मेरा ही अंश है संसार का नही उसका वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ है संसार के साथ नही । उसने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्ध को पहचान लिया फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ?उसका साधन कैसे नष्ट हो सकता है ? हाँ कभी कभी उसका साधा छूटा हुआ सा दीखता है तो ये स्थिति उसके अभिमान के कारण आती है और मैं उसीचेतना के लिए उसके सामने ऐसी घटना घटा देता हूँ जिससे व्याकुल होकर वह फिर मेरी तरफ़ चलने लगता है। जैसे गोपियों का अभिमान देखकर रास से ही अंतर्धान हो गया मैं तो सब गोपियाँ घबरा गयीं। जब वे विशेष व्याकुल हो गई तब मैं उन गोपियों के समुदाय के बीच में ही प्रगट हो गया और उनके पूछने पर कहा ---------तुम लोगो का भजन करता हुआ ही मैं अंतर्धान हुआ था तुम लोगो की याद और तुम लोगों का हित मेरे से छूटा नही है । इसका तात्पर्य ये है की अनंत जन्मों से भूला हुआ ये प्राणी जब केवल मेरी तरफ़ लगता है तब वह मेरे को प्यारा लगता है क्यूंकि उसने अनेक योनियों में बहुत दुःख पाए हैं और अब वह सन्मार्ग पर आ गया है। उसी तरह उसके हितों की रक्षा करता हूँ जैसे एक माँ अपने बच्चे की करती है।

तात्पर्य ये है कि जिसके भीतर एक बार साधन के संस्कार पड़ गए हैं वे संस्कार कभी नष्ट नही होते कारण कि उसी परमात्मा के लिए जो काम किया जाता है वह सत हो जाता है अर्थात उसका कभी अभाव नही होता। कल्याणकारी काम करने वाले किसी व्यक्ति की दुर्गति नही होती उसके जितने सद्भाव होते हैं ,जैसा स्वभाव होता है वह प्राणी किसी कारण वशात किसी नीच योनी में भी चला जाए तो भी उसके सद्भाव उसका कल्याण करना नही छोडेंगे ।

अब प्रश्न उठता है कि अजामिल जैसा शुद्ध ब्रह्मण भी वेश्यागामी हो गया,विल्वमंगल भी चिंतामणि नाम की वेश्या के वश में हो गए तो इनका इस जीवित अवस्था में ही पतन कैसे हो गया?इसका समाधान ये है कि उन लोगों का पतन हो गया ऐसा दीखता है मगर वास्तव में उनका पतन नही उद्धार ही हुआ है। अजामिल को लेने भगवान के पार्षद आए और विल्वमंगल भगवान के भक्त बन गए। इस प्रका रवो पहले भी सदाचारी थे और बाद में भी उद्धार हो गया सिर्फ़ बीच में उनकी दशा अच्छी नही थी। तात्पर्य ये हुआ की किसी विघ्न बाधा से, किसी असावधानी से उसके भावः और आचरण गिर सकते हैं ,परन्तु पहले का किया हुआ साधन कभी नष्ट नही होता ,उसकी वो पूँजी वैसी की वैसी ही रहती है और जब अच्छा संग मिलता है तब वो भावः तेजी से उदय होने लगते हैं और वो तेजी से भगवन की ओर चलने लगता है। इससे यही शिक्षा मिलती है कि हमें हर समय सावधान रहना चाहिए जिससे हम किसी कुसंगत में न पड़ जायें और अपना साधन न छोड़ दें।

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

अमर प्रेम -----------अन्तिम भाग

गतांक से आगे .........................

अब अर्चना गहन अंधकार और निराशा में डूबती चली गई और दिन पर दिन खामोश होती चली गई । उसके जीने की इच्छा ही जैसे खत्म होती चली गई । धीरे- धीरे उसकी सेहत गिरने लगी । समीर डॉक्टर को दिखाता , एक से बढ़कर एक इलाज कराता मगर हर इलाज बेअसर होने लगा। अब तो अर्चना ने कवितायेँ लिखना भी छोड़ दिया ------पहले तो कभीकभी एक-दो कवितायेँ प्रकाशक को भेजती रहती थी मगर अब कुछ महीनो से वो भी बंद हो चुका था । किसके लिए लिखे और कैसे लिखे जब जीवन की हर चाह ही ख़त्म हो चुकी हो । धीरे -धीरे उसके प्रशंसकों ने पूछना आरम्भ कर दिया कि क्या हो गया है जो अर्चना की कवितायेँ अब नही छपती , इस पर प्रकाशक को पता करना पड़ा और पता चलने पर उसने पत्रिका में छाप दिया कि बीमारी की वजह से अर्चना कवितायेँ नही लिख पा रही है। जैसे ही अर्चना के प्रशंसकों को पता चला रोज न जाने कितने ख़त और फूलों के गुलदस्ते उसकी अच्छी सेहत की कामना करते हुए आने लगे।
अब अर्चना की हालत और ख़राब हो चली । वो उठने बैठने में भी असमर्थ हो गई और खाना पीना तो कब का छूट चुका था। समीर और बच्चों का बुरा हाल था अर्चना का ये हाल देखकर। समीर पूछ -पूछ कर हार गया कि क्या बात है जो अर्चना को खाए जा रही है , क्या उससे कोई गलती हो गई है या उसकी कोई खास इच्छा है जो पूरी न हो पाई हो तो बस एक बार बता दे तो वो जान देकर भी वो इच्छा पूरी करेगा मगर उसके बिना जीना मुमकिन न होगा। मगर अर्चना ने तोखामोशी को ऐसे ओढ़ लिया था कि समीर की आवाज़ उसके कानों पर पड़ी भी या नही कोई कह ही नही सकता था। एक दम जड़ हो गई थी अर्चना। इतनी हालत बिगड़ने पर अर्चना को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। वहां रोज उसके प्रशंसक उससे मिलने आते मगर अर्चना की निगाह कभी किसी की तरफ़ न उठती सिर्फ़ दरवाज़े पर टकटकी लगाये रहती। डॉक्टर भी निराश हो चुके थे। समीर जानना चाहता था कि आख़िर अर्चना को हुआ क्या है मगर डॉक्टर कोई जवाब न दे पाते सिवाय इसके कि उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी है। जब तक उसमें ख़ुद वो इच्छा जागृत नही होती वो कुछ नही कर सकते। समीर और बच्चों की दुनिया तो सिर्फ़ अर्चना के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। उनका तो पूरा जहान ही अर्चना थी और वो उसे तिल-तिलकर मरते देख रहे थे और कुछ कर नही पा रहे थे। बच्चे बहुत कोशिश करते , उसे कभी हंसाने की तो कभी रुलाने की कोशिश करते मगर अर्चना तो जैसे कब की इस दुनिया की हर चीज़ हर इंसान से नाता तोड़ चुकी थी,उस पर कोई असर न होता सिर्फ़ जिंदा लाश की तरह दरवाज़े को देखती रहती। समीर और बच्चे निराश और हताश सिर्फ़ अर्चना की ओर निहारते रहते।
अर्चना के जीवन की डोर न जाने कहाँ अटकी हुयी थी। न जाने किसका इंतज़ार था उसे । न खाना, न सोना, न हँसना , न रोना , न किसी से कुछ कहना । हर दवा बेअसर होने लगी ।
उधर अर्चना के हाल की जानकारी जब अजय को मिली तो वो बेहाल हो गया और उसी क्षण अर्चना के शहर की ओर दौड़ा। उसका एक -एक पल अनेकों युगों के समान बीत रहा था। उसकी हर साँस जैसे सिर्फ़ अर्चना की सांसों के साथ ही चल रही थी , वो उड़कर अर्चना के पास पहुँच जाना चाहता था। ऐसे में वक्त न जाने क्यूँ निष्ठुर बन जाता है , चाहने वालों का तो जैसे दुश्मन ही बन जाता है या कहो वक्त दुश्मन दिखाई देने लगता है ऐसे क्षणों में ।
इधर अर्चना का तन निष्क्रिय होने लगा। शरीर की नसों ने भी कोई भी दवा स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। शरीर निश्चेतन होने लगा , कहीं कोई चेतना बाकी न रही सिर्फ़ नयन दरवाज़े पर अटके थे। लगता था जैसे शरीर का सारा लहू सुख चुका हो सिर्फ़ साँसे ही थी जो न जाने कैसे अटक -अटक कर आ रही थी , पता नही कहाँ रुकी थी। धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ खामोश हो गई । बिना कुछ कहे , बिना अजय से मिले अर्चना अनन्त में विलीन हो गई । मगर अजय जैसे ही अर्चना के पास गया , उसकी बर्फ की मानिन्द सर्द देह को जैसे ही छुआ , बिना कुछ बोले, उसकी आँखें पथरा गयीं, साँस थम गई और रूह खामोश हो गई।
लोगों ने समझा की अर्चना का प्रशंसक है उसके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाया मगर आज अजय ने प्रेम को अमर कर दिया। आज उसका प्रेम दिव्यता को छू गया जहाँ एक के होने से ही दूसरे का अस्तित्व होता है वरना नही ........दुनिया को दिखा गया। दोनों प्रेम के महासागर में समा गए और अपने प्रेम को अमर कर गए।

समाप्त


अब एक और नज़रिया देखिये क्या ऐसे नही हो सकता इस कहानी का अंत
धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ ठहर गयी आस की उम्मीद ने बुझते दिए की लौ बढ़ा दी।  अचानक से डॉक्टर हरकत में आ गए जैसे ही अर्चना की आँखों में जीने की ललक की एक क्षीण सी लकीर देखी और फ़ौरन हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए से अजय को जल्दी से अर्चना के पास लाये क्योंकि एक डॉक्टर ही होता है जो जान लेता है अपने मरीज का हाल , उसकी सांस सांस को गिन लेता है किस पल किस सांस पर आस की दीप जगमगाया और ऐसा ही अहसास डॉक्टर को हुआ जब उसने अजय को दरवाज़े पर देखा और अर्चना की आँख में जीवन की निशानी इसलिए अजय को अर्चना के पास बैठा कर बाकी सबको बाहर कर अपने काम में लग गए क्योंकि अब अर्चना की सांसें स्थिर होने लगी थीं , नब्ज़ जो थमने लगी थी स्पंदित होने लगी थी , ज़िन्दगी का राग वहाँ गुंजायमान होने लगा था और आँखों से जैसे एक समंदर अपनी सारी मर्यादाओं को तोड़ बहने लगा था। बाहर आकर डॉक्टर ने अर्चना की हालत अब खतरे से बाहर है जैसे ही बताया तभी बच्चों और समीर की जान में जान आयी , जाने कितने ही भगवानों का शुक्रिया अदा करने लगे और डॉक्टर के भी शुक्रगुजार होने लगे तो डॉक्टर बोला , मिस्टर समीर हम तो हर उम्मीद खो ही चुके थे हमारा शुक्रगुजार मत हो बल्कि उस शख्स का होना जो अंदर बैठा है , जिसके आने के बाद पेशेंट की आँखों में मैंने जीने की ललक देखी  और देखिये चमत्कार कि वो अब नॉर्मल होती जा रही हैं कहकर डॉक्टर तो चला गया मगर समीर तो अजब पशोपेश में फंस गया आखिर वो अजनबी कैसे अर्चना में जीवन जीने की ललक भर गया जहाँ उम्मीद किनारा कर चुकी थी वहाँ कैसे ये चमत्कार हुआ सोचते हुए अंदर गया और बच्चों के साथ अजय का शुक्रगुजार होने लगा कि उसके आने से आज अर्चना को नया जीवन मिल गया लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं ? क्या आप अर्चना के कोई रिश्तेदार हैं जो इतने वक्त बाद मिले हैं कि अर्चना को मौत के मुँह से वापस ले आये ? तब अजय ने बताया मैं अर्चना का कोई नहीं हूँ , बस एक चित्रकार हूँ जो अर्चना की कविताओं का फैन है और अर्चना उसकी चित्रकारी की बस इतना सा रिश्ता है हमारा ,वैसे काफी टाइम पहले हम मिल चुके हैं शायद आप भूल गए हैं एक रेस्टोरेंट में तब समीर को याद आया उस पहली मुलाकात का वैसे भी इन हालात में कौन सोच सकता है कि कौन कब  कहाँ मिला ,मगर इतना सा रिश्ता ही आज जीवन की वजह बन गया था ये समीर समझ गया था कि कोई और वजह भी जरूर छुपी है जो मुझे दिख नहीं रही या मुझसे छुपाई जा रही है वर्ना यूं ज़िन्दगी हारी हुयी बाजी यूं ना जीती होती मगर अभी वक्त नहीं इन सब बातों का सोच समीर अर्चना की तीमारदारी में लग गया और धीरे धीरे अर्चना ठीक होने लगी बेशक बहुत दुबली हो चुकी थी मगर एक उमंग जैसे उसके चेहरे पर उछाल लेने लगी थी , खोयी रौनक वापस आने लगी थी जिसे देख सब सुकून की सांस लेने लगे थे और फिर जब अर्चना इस लायक हो गयी कि खुद अपने काम करने लगे तो डॉक्टर ने उसे अस्प्ताल से छुट्टी दे दी और वो घर आ गयी और उसके साथ अजय भी उन्ही के घर आ गया क्योंकि समीर ने आग्रह कर अजय को वहीँ रोक लिया था उसे डर था मानो अजय यदि चला गया तो कहीं अर्चना भी ना साथ छोड़ दे और ज़िन्दगी की आस छोड़ दे इसलिए आज अजय उनके साथ था और उसी तरह सब काम कर रहा था जैसे घर के सदस्य करते हैं मगर एक बदली थी जो अर्चना के दिल पर छायी हुयी थी जो अब भी उसे अंदर ही अंदर घोट रही थी जिसे समीर और अजय दोनों देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे मगर दोनों इस इंतज़ार में थे कि अर्चना खुद से कुछ कहे वो कुछ भी पूछकर उसे और परेशां नहीं करना चाहते थे इसलिए चुप थे।  
एक दिन जब ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी थी तब अजय ने अपने जाने की बात कही जिसे सुन अर्चना के चेहरे पर एक मुर्दनी सी छा गयी जो समीर की निगाहों से छुपी नहीं रही और उसने उसी वक्त अर्चना का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा , अर्चना क्या बात है ? कौन सी ऐसी बात है जिसकी काली छाया मैं आज भी तुम्हारे मुख पर देखता हूँ ? एक बार कह दो शायद मन हल्का हो जाए , देखो मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हूँ , एक बार जैसे तैसे तुम मौत के मुँह से वापस आयी हो अब दुबारा तुम्हें उस हाल में मैं नहीं देख सकता , देख लेना इस बार यदि ऐसा कुछ हुआ तो तुम मेरा ज़िंदा मुख नहीं देख सकोगी जैसे ही समीर ने कहा अर्चना ने उसके मुँह पर ऊँगली रख दी और कहा , ख़बरदार समीर जो ऐसा कहा , तुम्हारे बिन तो मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती तुम और बच्चे ही तो मेरा जीवन हो , मेरे जीवन की पूँजी हो , फिर क्या बात है जो तुम फिर किसी अनचाही खलिश में खोयी दिखती हो , कुछ तो बात है , आज कह दो अर्चना मैं सब सुन लूँगा और सह भी लूँगा मगर तुम्हें किसी कीमत पर खो नहीं सकता जब समीर ने इतना आश्वासन दिलाया तब अर्चना ने हिम्मत करके राख में दबी चिंगारी का समीर को दर्शन कराने की ठान ली और वादा लिया यदि वो नाराज भी होगा तो उसे कह देगा मगर उसे छोड़कर नहीं जाएगा क्योंकि अर्चना के लिए उसके पति और बच्चों का जीवन में क्या महत्त्व है वो कोई नहीं समझ सकता , वो उन्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती और जो खलिश उसे राख किये जा रही है वो बताने पर हो सकता है तूफ़ान की ज़द में सारा घर आ जाए इसलिए बचाने के हर सम्भव उपाय पहले ही करना चाहती थी।  अर्चना ने शुरू से लेकर आखिर तक अपने और अजय के रिश्ते के बारे में समीर को बताना शुरू कर दिया , कैसे अजय उसकी ज़िन्दगी में आया , कैसे एक दुसरे के फैन बने और फिर कैसे अजय ने उसे बोध कराया सच्चा प्रेम क्या होता है , बेशक वो प्यार समीर और बच्चों से करती है , वो उसका जीवन हैं , उसके जीने का मकसद हैं मगर एक आत्मिक रिश्ते का क्या महत्त्व होता है उसका अहसास सिर्फ अजय ने कराया और जब उसे ये अहसास हुआ तो उसे लगा जैसे वो समीर से भी दगा कर रही है और अजय को भी धोखा दे रही है , एक अजब सी उहापोह में फंस गयी थी वो दूसरी तरफ अजय की कोई खैर खबर नहीं थी इसलिए खुद को अपराधी महसूस कर रही थी और इसी अपराधबोध ने उसके जीने के सारे समीकरण बिगाड़ दिए और इस हाल में पहुंचा दिया।  समीर यदि तुम्हें लगता है या तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो तो बता देना मगर मैं तन और मन से सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही हूँ , अजय से जो रिश्ता है वो आत्मिक है , जहाँ वासना का कोई स्थान नहीं है , वहाँ सिर्फ भावनाएं भ्रमण करती हैं , वहाँ सिर्फ कोमल अहसासों की जुगलबंदी है कि कोई है ऐसा जो आपको आपसे ज्यादा जानता है , कोई है ऐसा जो बिना कहे सब सुनता है , जो तुम्हारा शुभचिंतक है , तुम्हारा हितैषी है और देखो ये सब सिर्फ आत्मिक स्तर पर ही है क्योंकि देखो कभी कभी होता है हम किन्ही भावों में विचरण करते हैं तो उन भावों में कहीं अटक जाते हैं और आगे राह दिखायी नहीं देती तब तुम जैसा ही कोई हाथ पकड़ वहाँ से आगे की राह दिखा सकता है और समीर इस कार्य में अजय निपुण है क्योंकि हम दोनों का भावनात्मक स्तर समान है , जो गूढ़ता , गहराई किसी चित्र में छुपी होती है उसे या तो चित्रकार ही समझ सकता है या उसका सबसे बड़ा प्रशंसक या वो जो उस स्तर तक खुद को उसमे ले गया हो और अजय और मेरा सिर्फ इतना सा ही रिश्ता है जिसमे शरीर मायने ही नहीं रखता , अगर मायने कुछ रखता है तो हमारी भावनाएं , संवेदनाए और सोच का समान स्तर।  क्या ऐसा करना गुनाह है ? क्या इस हद तक जाने से मर्यादाएं भंग होती हैं ? क्या इससे तुम्हारे और मेरे जीवन में कोई फर्क आ सकता है ? क्या इससे हमारा रिश्ता अटूट नहीं रहेगा ? दो किनारे बस साथ साथ बहना चाहते हैं बस भावनाओं के पुल पर , क्या इतनी चाहना हमारे जीवन को , हमारे विश्वास के पुल को धराशायी कर सकती है समीर ? अब तुम पर है समीर तुम इस रिश्ते को किस दृष्टि से देखते हो क्योंकि आज मैंने तुम्हें सब सच बता दिया और काफी हद तक आज खुद को हल्का महसूस कर रही हूँ क्योंकि कहीं न कहीं घुटन की एक चादर ने मुझे लपेट रखा था जिससे मैं बाहर तो आना चाहती थी मगर आने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था ,कह अर्चना चुप हो गयी और समीर की तरफ देखने लगी।  
उधर समीर के सामने तो जैसे एक के बाद एक तूफ़ान आकर गुज़र रहे थे , बिलकुल किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया था , सुन्न हो गयी थी उसकी चेतना , आखिर ये कौन सा राज फाश कर दिया अर्चना ने जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था वो हो गया था , न वो कुछ कहने की स्थिति में था ना ही चुप रहने की , एक अजब सी स्थिति हो गयी और कमरे का सन्नाटा भी आपस में गुफ्तगू करने से कतराने लगा तब अर्चना ने हिम्मत करके समीर को पकड़ कर हिलाया और कहा , समीर मैं इसी वजह से कुछ नहीं बता पा रही थी क्योंकि जानती हूँ कोई भी इंसान हो इतना बड़ा सच गले से नीचे नहीं उतार सकता , आखिर तुम भगवन नहीं एक इंसान ही हो कैसे खुद को अलग रख सकते हो इस सत्य से कि उसकी पत्नी का कहीं भावनात्मक लगाव हो किसी और से और वो उसे स्वीकार भी ले मगर समीर ये भी एक कड़वा सत्य है कि ऐसा है और अब हम इसे बदल नहीं सकते सिवाय स्वीकारने के या जो तुम्हें उचित लगे वो कहो मगर चुप मत रहो तुम्हारी चुप्पी मुझे और आहत कर रही है। 
समीर पर तो मानो वज्रपात ही हुआ था और उबरने के लिए उसे कुछ वक्त तो चाहिए ही था ये अर्चना जानती थी इसलिए कुछ देर के लिए समीर को अकेला छोड़ कर किचन में चली गयी थी।  इधर समीर को तो मानो  काटो तो खून नहीं वाला हाल हो गया था , वो विश्वास नहीं कर पा रहा था जो उसने कानो से सुना वो सत्य है मगर सत्य तो सत्य ही रहता है उसका रूप कब बदला है बेशक कितना ही कड़वा हो और उसे ये स्वीकारना ही होगा कि अर्चना का एक हिस्सा उससे कट गया है फिर चाहे मन का एक कोना ही क्यों न हो मगर इसे भी स्वीकारना आसान नहीं था तो दूसरी तरफ ना स्वीकारने पर अर्चना को खो भी नहीं सकता था , दोनों तरफ खुद को ही हारता देख रहा था समीर।  
अब समीर ने विचारना शुरू किया कि जब से अजय आया है एक बार भी उसकी उपस्थिति के बिना अर्चना से नहीं मिला और ना ही अर्चना से कोई विशेष बात की उसने बल्कि जैसे और घर के सदस्य होते हैं उन्ही की तरह रहा और व्यवहार किया।  कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि वो अर्चना के शरीर या उसकी सुंदरता से प्रभावित है या वो उसे पाना चाहता है क्योंकि हर क्षण समीर नई नज़र अजय का पीछा करती रही थीं और अजय ने कभी चोर निगाह से भी अर्चना को नहीं निहारा था ये समीर देख चुका था , आखिर समीर एक व्यवसायी बुद्धि का मालिक था नफा और नुकसान का अच्छा ज्ञान था उसे और जब ज़िन्दगी के नफे नुक्सान की बात हो तो भला घाटे का सौदा कैसे कर सकता था इसलिए समीर ने इस समानांतर रिश्ते पर अपनी स्वीकार्यता की मोहर लगा कर ना केवल अपने प्रेम और बड़े दिल का प्रमाण दिया बल्कि अपना घर भी बचा लिया।  
अब अमर प्रेम के कोई कितने ही मायने ढूंढें , हर रिश्ते ने अपने प्रेम को अमर ही किया था किसी ने त्याग से तो किसी ने भाव से तो किसी ने मौन स्वीकृति देकर।  शायद यही है अमर प्रेम की सार्थक परिभाषा प्रेमास्पद की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मिला दो क्योंकि जीवन को जीने के सबके अपने दृष्टिकोण होते हैं वैसे ही प्रेम के अपने गणित।  प्रेम की दिव्यता और सर्वग्राह्यता कभी प्रश्नचिन्ह नहीं बन सकती मगर एक जीवन का प्रमाण जरूर बन सकती है और उसे आज तीन किरदारों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित कर दिया था , जाने कितने रिश्तों को प्रेम ने एक सूत्र में पिरो दिया था और अपने नाम को सार्थक कर दिया था क्योंकि आसान होता है अपने अस्तित्व को मिटाना मगर ज़िन्दगी की आँख में आँख मिलकर जीना और प्रेम को भी उसका स्थान देकर जीवन गुजारना सबसे मुश्किल होता है और आज तीनो मुसाफिरों ने अपने अपने अंदाज़ में प्रेम को अमर कर दिया था।  

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

अमर प्रेम --------भाग १२

गतांक से आगे ................................

महीनो बीत गए , कोई प्रतिक्रिया नही दोनों ओर से । मगर अर्चना --------------उसके तो जीवन की धुरी शायद उसी एक पल पर रुक गई थी । उसके अंतस में हलचल मच गई थी जिसके बारे में वो किसी से कह भी नही सकती थी। अजय के शब्द एक घुन की तरह उसके ह्रदय को कचोटते थे। उसके सारे आदर्श , सारी मर्यादाएं अजय के कुछ ही शब्दों ने चकनाचूर कर के रख दिए थे। शायद अब उसे अहसास हुआ था प्रेम के वास्तविक स्वरुप का। बिना चाह के भी किसी को चाहा जा सकता है। किसी को चाहने के लिए शरीर की नही आत्मा की जरूरत होती है । शरीर तो वहां नगण्य होते हैं । सिर्फ़ आत्माओं का ही मिलन होता है ।ये अहसास अर्चना को बहुत देर से हुआ इसलिए अब अर्चना अन्दर ही अन्दर घुटने लगी ।ये घुटन उसके पूरे वजूद पर हावी होने लगी । उसे लगने लगा कि उसने अजय के प्रेम को स्वीकार न कर जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो । और ये अहसास उसे अन्दर ही अन्दर खाने लगा । अब जीवन का हर रंग उसे फीका लगने लगा। धीरे धीरे अर्चना का जीवन से मोहभंग होने लगा। वो अपनी दिनचर्या एक मशीन की भांति पूरी करती । अब उसमें पहले जैसी उमंगें ख़त्म होने लगीं । अपराधबोध से ग्रस्त अर्चना को जीवन नीरस दिखाई देने लगा। अब उसकी कविताओं में प्रेम के भव्य स्वरुप का दर्शन होता था मगर अजय की कोई प्रतिक्रिया अब नही मिलती थी । इससे अर्चना और आह़त हो जाती और मायूस रहने लगी । अर्चना का जीवन , उसका हर रंग सब बदरंग हो चुके थे ।
उधर अजय अपने वादे पर अटल था ------------दोबारा कभी न मिलने का वादा। अब उसने अर्चना को पुकारना छोड़ दिया था शायद अर्चना से मिलकर उससे अपना हाल-ए-दिल कहकर अजय को वक़्ती सुकून मिल गया था मगर फिर भी एक उदासी हर पल उसके जेहन पर छाई रहती ।अर्चना की यादों के साये हर पल उसके मानस- पटल पर छाये रहते । अब तो उसने खामोशी को अपना हमसफ़र बना लिया था और गुमनाम अंधेरों में जीवन गुजारने लगा था सिर्फ़ अर्चना की कवितायेँ पढता और उन्हें अपनी चित्रकारी से सजाता। अब वो जो भी चित्र बनाता सिर्फ़ अपने लिए बनाता । कहीं किसी को छापने के लिए नही भेजता । एक अलग ही ख्यालों की दुनिया में गुम हो गया था अजय।

क्रमशः ........................................

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

अमर प्रेम -----------भाग ११

गतांक से आगे .......................

ये लम्हा दोनों की ज़िन्दगी का एक हसीन , मधुर याद बनकर यादों में क़ैद हो गया था । ज़िन्दगी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी । अब अजय की उत्कंठा कुछ हद तक शांत हो गई थी । अब एक बार फिर से उसकी चित्रकारी के रंग शोख होने लगे थे। अपनी भावनाओं को , अपनी कल्पनाओं को वो चित्रों में जीवंत करने लगा था। मगर ये पागल मन उसका -----अब भी कभी- कभी बेचैन कर देता था। उसकी अंखियों की , उसकी रूह की प्यास तो कुछ हद तक बुझ गई थी मगर फिर भी कहीं एक कसक अब भी बाकी थी । उसकी वो ही कसक कभी -कभी सिर उठाने लगती। बार -बार उसके मन को उद्वेलित करती । भावनाओं का ज्वार ह्रदय को आंदोलित कर जाता। इन्ही भावनाओं के अतिरेक में बहते हुए फिर एक दिन उसने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अर्चना भी अब चाहती थी कि अजय के इंतज़ार को विराम मिले इसलिए वो अजय से वादा लेती है कि वो इस मिलन के बाद ज़िन्दगी में फिर कभी उससे मिलने की ख्वाहिश जाहिर नही करेगा और न ही कुछ और मांगेगा । अजय अर्चना की शर्त मान लेता है । अजय की तो मनचाही मुराद पूरी हो रही थी । उसके पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे । दिल में उमंगो का अथाह सागर हिलोरें ले रहा था।
और फिर वो दिन आ गया जब दोनों एक- दूसरे के सामने बैठे थे। एक -दूसरे का दीदार कर रहे थे। मगर दोनों में से कोई भी एक शब्द नही बोला। सिर्फ़ मौन ही मौन की भाषा सुन रहा था और मौन ही विचारों को अभिव्यक्त कर रहा था।घंटों व्यतीत हो गए । समय का दोनों को भान ही न था या यूँ कहो समय भी जैसे उस पल वहीँ ठहर गया था। वो भी इस मिलन की परिणति देखना चाहता था। वो भी तो कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। काफी देर बाद दोनों को वक्त का बोध हुआ तो अजय ने अर्चना से कहा ------अर्चना तुम मेरे जीवन का वो अंग बन गई हो जिसके बिना एक पल गुजारना मुश्किल हो जाता है । तुम मेरी वो कल्पना हो जो साकार हो गई है --------मेरे सामने बैठी है और मैं उसे छू भी नही सकता, उसे महसूस भी नही कर सकता। तुम मेरे जीवन -रुपी महासागर की वो अतुल्य सम्पदा हो जिसे मैं खोना भी नही चाहता मगर पा भी नही सकता। बताओ अर्चना अब जीवन कैसे गुजरेगा ? और अर्चना अजय के भावों को जानकर विस्मित सी , ठगी सी बैठी रह गई । उसे समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोले । मगर फिर भी किसी तरह ख़ुद को संयत करके अर्चना ने अजय से कहा ------अजय हम दोनों का जीवन धरती और आकाश सा है । दोनों एक दूसरे को निहार तो सकते हैं मगर मिलना दोनों की किस्मत में नही है । देखो मेरे जीवन का हर रंग , हर मौसम , हर खुशी , हर गम , मेरा हँसना , मेरा रोना, मेरा प्यार, मेरी खुशबू सब मेरे पति की है । मैं तुम्हें कुछ नही दे सकती। क्यूँ इस मृगतृष्णा के पीछे भागकर अपना जीवन बरबाद कर रहे हो । मैं शरीर से और आत्मा से पूर्ण रूप से अपने पति की हूँ। इस पर अजय ने कहा कि उसके जीवन में अजय का क्या मुकाम है सिर्फ़ इतना बता दो तो अर्चना ने कहा कि वो एक ऐसा सुखद अहसास है जिसके साथ पूरी ज़िन्दगी इत्मिनान से गुजर सकती है वो और उसे इससे ज्यादा किसी चीज़ की चाह भी नही है। मगर अजय तो जैसे आज प्रण करके आया था कि एक बार अर्चना से हाँ कहलवा कर ही रहेगा कि वो भी उसे प्रेम करती है । उसने अर्चना से कहा कि तुम प्रेम को अहसास का नाम दे रही हो । वास्तव में तुम भी उसे प्रेम करती हो मगर मानना नही चाहती । अगर तुम भी प्रेम करती हो तो एक बार स्वीकार कर लो, मेरा जीवन तुम्हारे इंतज़ार में ,अगले जनम में मिलन की आस में आराम से गुजर जाएगा। इस जनम तुम किसी और की हो मुझे कोई गिला नही बस एक वादा दे दो कि अगले जन्म में तुम मेरी बनोगी मगर अर्चना न जाने किस मिटटी की बनी थी या कहो किस पत्थर की बनी थी किसी भी दर्द का शायद उस पर असर ही नही होता था । उसने कहा कि वो जन्म -जन्मान्तरों तक सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पति की ही है । वो अजय से किसी भी प्रकार का कोई वादा नही कर सकती। तब अजय ने कहा अच्छा चलो सिर्फ़ एक वादा दे दो कि इस कायनात के आखिरी जन्म में तुम सिर्फ़ एक बार मुझे मिलोगी सिर्फ़ एक बार , मैं तब तक तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। बस यही मेरे प्रेम का प्रतिफल होगा।
अब अर्चना ने कहा कि इसका मतलब तुम्हारा प्रेम वास्तविक प्रेम नही उसमें भी सभी की तरह वासना है तभी तुम मुझे पाने की चाह रखते हो । अर्चना के ये शब्द अजय के दिल पर हथोडे की तरह लगे। उसके दिल के टुकड़े टुकड़े हो गए । फिर भी अजय ने कहा अगर उसके प्रेम में वासना होती तो वो अगले जन्मों या आखिरी जन्म तक की बात न कहता और अपनी वासनामयी प्रवृति इसी जन्म में किसी भी बहाने पूर्ण करना चाहता। मगर मुझे तुम्हारा शरीर किसी भी जन्म में नही चाहिए। मैं तुम्हें छूना भी नही चाहता। बस सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि किसी एक जन्म में तुम मुझे रूह से चाहो। तुम्हारी रूह और मेरी रूह एक हो जायें। जहाँ तुम कुछ सोचो और पूरा मैं करुँ बिना तुम्हारे कहे। जहाँ मैं फूल की खुशबू की तरह तुमसे कभी अलग न हो सकूँ। दो जिस्म बेशक हों मगर आत्मा एक हो । जहाँ वेदना की लकीर भी गर तुम्हारे चेहरे पर उभरे तो दर्द से बेहाल मैं हो जाऊँ। मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए। अर्चना सिर्फ़ एक जन्म के लिए तुम मेरे जीवन का वो पल बन जाओ जिसके बाद कोई चाहना ही बाकी न रहे। क्या तुम इतना सा वादा भी नही कर सकती मुझसे। मैं तुमसे कुछ नही चाहता--------कुछ भी नही और न ही कभी ज़िन्दगी में चाहूँगा। बस सिर्फ़ इतना अहसान कर दो मेरी ज़िन्दगी पर।
अर्चना स्तब्ध सी अजय को एकटक देखे जा रही थी। आज उसे समझ आया कि वास्तव में प्रेम क्या है उसका स्वरुप क्या है। क्या अजय सच कह रहा है? क्या वाकई एक जन्म के वादे पर कोई कायनात के आखिरी जन्म तक किसी का इंतज़ार कर सकता है?क्या प्रेम ऐसा भी होता है ? क्या इसे ही सच्चा प्रेम कहा गया है? इसी ऊहापोह में डूबी अर्चना न जाने कब तक बैठी रहती कि अजय ने उसे वास्तविकता का बोध न कराया होता। वक्त अपनी गति से चल रहा था मगर अर्चना के दिल में तो जैसे ज्वार उठ रहे थे। आज अजय उसे यूँ लग रहा था जैसे साक्षात् प्रेम ही अजय के रूप में इंसानी रूप धारण करके बैठा हो। अर्चना के मुख से बोल नही फूट रहे थे । जिसे वो इंसानी प्रेम समझ रही थी वो तो खुदाई प्रेम था।
और वक्त वहीँ ठहर गया। बिना एक शब्द बोले मौन की चादर ओढ़कर दोनों ने एक -दूसरे से विदा ली । अजय सीधा चलता चला गया। बिना मुडे ,बिना अर्चना की ओर दोबारा देखे -----बस चलता चला गया। शायद आज अजय की वेदना जो वो बरसों से महसूस कर रहा था उसे करार मिल गया था या शायद अब कहने को कुछ बचा ही नही था या जो कुछ वो कहना चाहता था वो सब आज वो कह चुका था। मगर अर्चना उसके लिए तो वक्त जैसे वहीँ रुका था उस एक लम्हे पर ही . वो अजय को जाता हुआ देखती रही.......................

क्रमशः...............................