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सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

अमर प्रेम -----------अन्तिम भाग

गतांक से आगे .........................

अब अर्चना गहन अंधकार और निराशा में डूबती चली गई और दिन पर दिन खामोश होती चली गई । उसके जीने की इच्छा ही जैसे खत्म होती चली गई । धीरे- धीरे उसकी सेहत गिरने लगी । समीर डॉक्टर को दिखाता , एक से बढ़कर एक इलाज कराता मगर हर इलाज बेअसर होने लगा। अब तो अर्चना ने कवितायेँ लिखना भी छोड़ दिया ------पहले तो कभीकभी एक-दो कवितायेँ प्रकाशक को भेजती रहती थी मगर अब कुछ महीनो से वो भी बंद हो चुका था । किसके लिए लिखे और कैसे लिखे जब जीवन की हर चाह ही ख़त्म हो चुकी हो । धीरे -धीरे उसके प्रशंसकों ने पूछना आरम्भ कर दिया कि क्या हो गया है जो अर्चना की कवितायेँ अब नही छपती , इस पर प्रकाशक को पता करना पड़ा और पता चलने पर उसने पत्रिका में छाप दिया कि बीमारी की वजह से अर्चना कवितायेँ नही लिख पा रही है। जैसे ही अर्चना के प्रशंसकों को पता चला रोज न जाने कितने ख़त और फूलों के गुलदस्ते उसकी अच्छी सेहत की कामना करते हुए आने लगे।
अब अर्चना की हालत और ख़राब हो चली । वो उठने बैठने में भी असमर्थ हो गई और खाना पीना तो कब का छूट चुका था। समीर और बच्चों का बुरा हाल था अर्चना का ये हाल देखकर। समीर पूछ -पूछ कर हार गया कि क्या बात है जो अर्चना को खाए जा रही है , क्या उससे कोई गलती हो गई है या उसकी कोई खास इच्छा है जो पूरी न हो पाई हो तो बस एक बार बता दे तो वो जान देकर भी वो इच्छा पूरी करेगा मगर उसके बिना जीना मुमकिन न होगा। मगर अर्चना ने तोखामोशी को ऐसे ओढ़ लिया था कि समीर की आवाज़ उसके कानों पर पड़ी भी या नही कोई कह ही नही सकता था। एक दम जड़ हो गई थी अर्चना। इतनी हालत बिगड़ने पर अर्चना को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। वहां रोज उसके प्रशंसक उससे मिलने आते मगर अर्चना की निगाह कभी किसी की तरफ़ न उठती सिर्फ़ दरवाज़े पर टकटकी लगाये रहती। डॉक्टर भी निराश हो चुके थे। समीर जानना चाहता था कि आख़िर अर्चना को हुआ क्या है मगर डॉक्टर कोई जवाब न दे पाते सिवाय इसके कि उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी है। जब तक उसमें ख़ुद वो इच्छा जागृत नही होती वो कुछ नही कर सकते। समीर और बच्चों की दुनिया तो सिर्फ़ अर्चना के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। उनका तो पूरा जहान ही अर्चना थी और वो उसे तिल-तिलकर मरते देख रहे थे और कुछ कर नही पा रहे थे। बच्चे बहुत कोशिश करते , उसे कभी हंसाने की तो कभी रुलाने की कोशिश करते मगर अर्चना तो जैसे कब की इस दुनिया की हर चीज़ हर इंसान से नाता तोड़ चुकी थी,उस पर कोई असर न होता सिर्फ़ जिंदा लाश की तरह दरवाज़े को देखती रहती। समीर और बच्चे निराश और हताश सिर्फ़ अर्चना की ओर निहारते रहते।
अर्चना के जीवन की डोर न जाने कहाँ अटकी हुयी थी। न जाने किसका इंतज़ार था उसे । न खाना, न सोना, न हँसना , न रोना , न किसी से कुछ कहना । हर दवा बेअसर होने लगी ।
उधर अर्चना के हाल की जानकारी जब अजय को मिली तो वो बेहाल हो गया और उसी क्षण अर्चना के शहर की ओर दौड़ा। उसका एक -एक पल अनेकों युगों के समान बीत रहा था। उसकी हर साँस जैसे सिर्फ़ अर्चना की सांसों के साथ ही चल रही थी , वो उड़कर अर्चना के पास पहुँच जाना चाहता था। ऐसे में वक्त न जाने क्यूँ निष्ठुर बन जाता है , चाहने वालों का तो जैसे दुश्मन ही बन जाता है या कहो वक्त दुश्मन दिखाई देने लगता है ऐसे क्षणों में ।
इधर अर्चना का तन निष्क्रिय होने लगा। शरीर की नसों ने भी कोई भी दवा स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। शरीर निश्चेतन होने लगा , कहीं कोई चेतना बाकी न रही सिर्फ़ नयन दरवाज़े पर अटके थे। लगता था जैसे शरीर का सारा लहू सुख चुका हो सिर्फ़ साँसे ही थी जो न जाने कैसे अटक -अटक कर आ रही थी , पता नही कहाँ रुकी थी। धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ खामोश हो गई । बिना कुछ कहे , बिना अजय से मिले अर्चना अनन्त में विलीन हो गई । मगर अजय जैसे ही अर्चना के पास गया , उसकी बर्फ की मानिन्द सर्द देह को जैसे ही छुआ , बिना कुछ बोले, उसकी आँखें पथरा गयीं, साँस थम गई और रूह खामोश हो गई।
लोगों ने समझा की अर्चना का प्रशंसक है उसके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाया मगर आज अजय ने प्रेम को अमर कर दिया। आज उसका प्रेम दिव्यता को छू गया जहाँ एक के होने से ही दूसरे का अस्तित्व होता है वरना नही ........दुनिया को दिखा गया। दोनों प्रेम के महासागर में समा गए और अपने प्रेम को अमर कर गए।

समाप्त


अब एक और नज़रिया देखिये क्या ऐसे नही हो सकता इस कहानी का अंत
धड़कनें भी खामोश होने लगी थी ------शायद अर्चना के निश्चेतन मन को अब भी एक आस थी कि मरने से पहले सिर्फ़ एक बार अजय का दीदार हो जाए और वो सुख की नींद सो जाए। अब तो अर्चना की वो आशा भी धूमिल होती जा रही थी और हालत और बिगड़ती जा रही थी । हर आती -जाती साँस पर लगता कि बस यही आखिरी साँस है । किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है । सभी बेबस,लाचार हो अर्चना को जाते देख रहे थे । समीर और बच्चे फ़ुट-फूटकर रो रहे थे। अब अर्चना को जैसे ही एक तेज हिचकी आई तभी अजय दरवाज़े पर दिखाई दिया और अर्चना की रूह वहीँ ठहर गयी आस की उम्मीद ने बुझते दिए की लौ बढ़ा दी।  अचानक से डॉक्टर हरकत में आ गए जैसे ही अर्चना की आँखों में जीने की ललक की एक क्षीण सी लकीर देखी और फ़ौरन हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए से अजय को जल्दी से अर्चना के पास लाये क्योंकि एक डॉक्टर ही होता है जो जान लेता है अपने मरीज का हाल , उसकी सांस सांस को गिन लेता है किस पल किस सांस पर आस की दीप जगमगाया और ऐसा ही अहसास डॉक्टर को हुआ जब उसने अजय को दरवाज़े पर देखा और अर्चना की आँख में जीवन की निशानी इसलिए अजय को अर्चना के पास बैठा कर बाकी सबको बाहर कर अपने काम में लग गए क्योंकि अब अर्चना की सांसें स्थिर होने लगी थीं , नब्ज़ जो थमने लगी थी स्पंदित होने लगी थी , ज़िन्दगी का राग वहाँ गुंजायमान होने लगा था और आँखों से जैसे एक समंदर अपनी सारी मर्यादाओं को तोड़ बहने लगा था। बाहर आकर डॉक्टर ने अर्चना की हालत अब खतरे से बाहर है जैसे ही बताया तभी बच्चों और समीर की जान में जान आयी , जाने कितने ही भगवानों का शुक्रिया अदा करने लगे और डॉक्टर के भी शुक्रगुजार होने लगे तो डॉक्टर बोला , मिस्टर समीर हम तो हर उम्मीद खो ही चुके थे हमारा शुक्रगुजार मत हो बल्कि उस शख्स का होना जो अंदर बैठा है , जिसके आने के बाद पेशेंट की आँखों में मैंने जीने की ललक देखी  और देखिये चमत्कार कि वो अब नॉर्मल होती जा रही हैं कहकर डॉक्टर तो चला गया मगर समीर तो अजब पशोपेश में फंस गया आखिर वो अजनबी कैसे अर्चना में जीवन जीने की ललक भर गया जहाँ उम्मीद किनारा कर चुकी थी वहाँ कैसे ये चमत्कार हुआ सोचते हुए अंदर गया और बच्चों के साथ अजय का शुक्रगुजार होने लगा कि उसके आने से आज अर्चना को नया जीवन मिल गया लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं ? क्या आप अर्चना के कोई रिश्तेदार हैं जो इतने वक्त बाद मिले हैं कि अर्चना को मौत के मुँह से वापस ले आये ? तब अजय ने बताया मैं अर्चना का कोई नहीं हूँ , बस एक चित्रकार हूँ जो अर्चना की कविताओं का फैन है और अर्चना उसकी चित्रकारी की बस इतना सा रिश्ता है हमारा ,वैसे काफी टाइम पहले हम मिल चुके हैं शायद आप भूल गए हैं एक रेस्टोरेंट में तब समीर को याद आया उस पहली मुलाकात का वैसे भी इन हालात में कौन सोच सकता है कि कौन कब  कहाँ मिला ,मगर इतना सा रिश्ता ही आज जीवन की वजह बन गया था ये समीर समझ गया था कि कोई और वजह भी जरूर छुपी है जो मुझे दिख नहीं रही या मुझसे छुपाई जा रही है वर्ना यूं ज़िन्दगी हारी हुयी बाजी यूं ना जीती होती मगर अभी वक्त नहीं इन सब बातों का सोच समीर अर्चना की तीमारदारी में लग गया और धीरे धीरे अर्चना ठीक होने लगी बेशक बहुत दुबली हो चुकी थी मगर एक उमंग जैसे उसके चेहरे पर उछाल लेने लगी थी , खोयी रौनक वापस आने लगी थी जिसे देख सब सुकून की सांस लेने लगे थे और फिर जब अर्चना इस लायक हो गयी कि खुद अपने काम करने लगे तो डॉक्टर ने उसे अस्प्ताल से छुट्टी दे दी और वो घर आ गयी और उसके साथ अजय भी उन्ही के घर आ गया क्योंकि समीर ने आग्रह कर अजय को वहीँ रोक लिया था उसे डर था मानो अजय यदि चला गया तो कहीं अर्चना भी ना साथ छोड़ दे और ज़िन्दगी की आस छोड़ दे इसलिए आज अजय उनके साथ था और उसी तरह सब काम कर रहा था जैसे घर के सदस्य करते हैं मगर एक बदली थी जो अर्चना के दिल पर छायी हुयी थी जो अब भी उसे अंदर ही अंदर घोट रही थी जिसे समीर और अजय दोनों देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे मगर दोनों इस इंतज़ार में थे कि अर्चना खुद से कुछ कहे वो कुछ भी पूछकर उसे और परेशां नहीं करना चाहते थे इसलिए चुप थे।  
एक दिन जब ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी थी तब अजय ने अपने जाने की बात कही जिसे सुन अर्चना के चेहरे पर एक मुर्दनी सी छा गयी जो समीर की निगाहों से छुपी नहीं रही और उसने उसी वक्त अर्चना का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा , अर्चना क्या बात है ? कौन सी ऐसी बात है जिसकी काली छाया मैं आज भी तुम्हारे मुख पर देखता हूँ ? एक बार कह दो शायद मन हल्का हो जाए , देखो मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोने को तैयार नहीं हूँ , एक बार जैसे तैसे तुम मौत के मुँह से वापस आयी हो अब दुबारा तुम्हें उस हाल में मैं नहीं देख सकता , देख लेना इस बार यदि ऐसा कुछ हुआ तो तुम मेरा ज़िंदा मुख नहीं देख सकोगी जैसे ही समीर ने कहा अर्चना ने उसके मुँह पर ऊँगली रख दी और कहा , ख़बरदार समीर जो ऐसा कहा , तुम्हारे बिन तो मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती तुम और बच्चे ही तो मेरा जीवन हो , मेरे जीवन की पूँजी हो , फिर क्या बात है जो तुम फिर किसी अनचाही खलिश में खोयी दिखती हो , कुछ तो बात है , आज कह दो अर्चना मैं सब सुन लूँगा और सह भी लूँगा मगर तुम्हें किसी कीमत पर खो नहीं सकता जब समीर ने इतना आश्वासन दिलाया तब अर्चना ने हिम्मत करके राख में दबी चिंगारी का समीर को दर्शन कराने की ठान ली और वादा लिया यदि वो नाराज भी होगा तो उसे कह देगा मगर उसे छोड़कर नहीं जाएगा क्योंकि अर्चना के लिए उसके पति और बच्चों का जीवन में क्या महत्त्व है वो कोई नहीं समझ सकता , वो उन्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती और जो खलिश उसे राख किये जा रही है वो बताने पर हो सकता है तूफ़ान की ज़द में सारा घर आ जाए इसलिए बचाने के हर सम्भव उपाय पहले ही करना चाहती थी।  अर्चना ने शुरू से लेकर आखिर तक अपने और अजय के रिश्ते के बारे में समीर को बताना शुरू कर दिया , कैसे अजय उसकी ज़िन्दगी में आया , कैसे एक दुसरे के फैन बने और फिर कैसे अजय ने उसे बोध कराया सच्चा प्रेम क्या होता है , बेशक वो प्यार समीर और बच्चों से करती है , वो उसका जीवन हैं , उसके जीने का मकसद हैं मगर एक आत्मिक रिश्ते का क्या महत्त्व होता है उसका अहसास सिर्फ अजय ने कराया और जब उसे ये अहसास हुआ तो उसे लगा जैसे वो समीर से भी दगा कर रही है और अजय को भी धोखा दे रही है , एक अजब सी उहापोह में फंस गयी थी वो दूसरी तरफ अजय की कोई खैर खबर नहीं थी इसलिए खुद को अपराधी महसूस कर रही थी और इसी अपराधबोध ने उसके जीने के सारे समीकरण बिगाड़ दिए और इस हाल में पहुंचा दिया।  समीर यदि तुम्हें लगता है या तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो तो बता देना मगर मैं तन और मन से सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही हूँ , अजय से जो रिश्ता है वो आत्मिक है , जहाँ वासना का कोई स्थान नहीं है , वहाँ सिर्फ भावनाएं भ्रमण करती हैं , वहाँ सिर्फ कोमल अहसासों की जुगलबंदी है कि कोई है ऐसा जो आपको आपसे ज्यादा जानता है , कोई है ऐसा जो बिना कहे सब सुनता है , जो तुम्हारा शुभचिंतक है , तुम्हारा हितैषी है और देखो ये सब सिर्फ आत्मिक स्तर पर ही है क्योंकि देखो कभी कभी होता है हम किन्ही भावों में विचरण करते हैं तो उन भावों में कहीं अटक जाते हैं और आगे राह दिखायी नहीं देती तब तुम जैसा ही कोई हाथ पकड़ वहाँ से आगे की राह दिखा सकता है और समीर इस कार्य में अजय निपुण है क्योंकि हम दोनों का भावनात्मक स्तर समान है , जो गूढ़ता , गहराई किसी चित्र में छुपी होती है उसे या तो चित्रकार ही समझ सकता है या उसका सबसे बड़ा प्रशंसक या वो जो उस स्तर तक खुद को उसमे ले गया हो और अजय और मेरा सिर्फ इतना सा ही रिश्ता है जिसमे शरीर मायने ही नहीं रखता , अगर मायने कुछ रखता है तो हमारी भावनाएं , संवेदनाए और सोच का समान स्तर।  क्या ऐसा करना गुनाह है ? क्या इस हद तक जाने से मर्यादाएं भंग होती हैं ? क्या इससे तुम्हारे और मेरे जीवन में कोई फर्क आ सकता है ? क्या इससे हमारा रिश्ता अटूट नहीं रहेगा ? दो किनारे बस साथ साथ बहना चाहते हैं बस भावनाओं के पुल पर , क्या इतनी चाहना हमारे जीवन को , हमारे विश्वास के पुल को धराशायी कर सकती है समीर ? अब तुम पर है समीर तुम इस रिश्ते को किस दृष्टि से देखते हो क्योंकि आज मैंने तुम्हें सब सच बता दिया और काफी हद तक आज खुद को हल्का महसूस कर रही हूँ क्योंकि कहीं न कहीं घुटन की एक चादर ने मुझे लपेट रखा था जिससे मैं बाहर तो आना चाहती थी मगर आने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था ,कह अर्चना चुप हो गयी और समीर की तरफ देखने लगी।  
उधर समीर के सामने तो जैसे एक के बाद एक तूफ़ान आकर गुज़र रहे थे , बिलकुल किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया था , सुन्न हो गयी थी उसकी चेतना , आखिर ये कौन सा राज फाश कर दिया अर्चना ने जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था वो हो गया था , न वो कुछ कहने की स्थिति में था ना ही चुप रहने की , एक अजब सी स्थिति हो गयी और कमरे का सन्नाटा भी आपस में गुफ्तगू करने से कतराने लगा तब अर्चना ने हिम्मत करके समीर को पकड़ कर हिलाया और कहा , समीर मैं इसी वजह से कुछ नहीं बता पा रही थी क्योंकि जानती हूँ कोई भी इंसान हो इतना बड़ा सच गले से नीचे नहीं उतार सकता , आखिर तुम भगवन नहीं एक इंसान ही हो कैसे खुद को अलग रख सकते हो इस सत्य से कि उसकी पत्नी का कहीं भावनात्मक लगाव हो किसी और से और वो उसे स्वीकार भी ले मगर समीर ये भी एक कड़वा सत्य है कि ऐसा है और अब हम इसे बदल नहीं सकते सिवाय स्वीकारने के या जो तुम्हें उचित लगे वो कहो मगर चुप मत रहो तुम्हारी चुप्पी मुझे और आहत कर रही है। 
समीर पर तो मानो वज्रपात ही हुआ था और उबरने के लिए उसे कुछ वक्त तो चाहिए ही था ये अर्चना जानती थी इसलिए कुछ देर के लिए समीर को अकेला छोड़ कर किचन में चली गयी थी।  इधर समीर को तो मानो  काटो तो खून नहीं वाला हाल हो गया था , वो विश्वास नहीं कर पा रहा था जो उसने कानो से सुना वो सत्य है मगर सत्य तो सत्य ही रहता है उसका रूप कब बदला है बेशक कितना ही कड़वा हो और उसे ये स्वीकारना ही होगा कि अर्चना का एक हिस्सा उससे कट गया है फिर चाहे मन का एक कोना ही क्यों न हो मगर इसे भी स्वीकारना आसान नहीं था तो दूसरी तरफ ना स्वीकारने पर अर्चना को खो भी नहीं सकता था , दोनों तरफ खुद को ही हारता देख रहा था समीर।  
अब समीर ने विचारना शुरू किया कि जब से अजय आया है एक बार भी उसकी उपस्थिति के बिना अर्चना से नहीं मिला और ना ही अर्चना से कोई विशेष बात की उसने बल्कि जैसे और घर के सदस्य होते हैं उन्ही की तरह रहा और व्यवहार किया।  कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि वो अर्चना के शरीर या उसकी सुंदरता से प्रभावित है या वो उसे पाना चाहता है क्योंकि हर क्षण समीर नई नज़र अजय का पीछा करती रही थीं और अजय ने कभी चोर निगाह से भी अर्चना को नहीं निहारा था ये समीर देख चुका था , आखिर समीर एक व्यवसायी बुद्धि का मालिक था नफा और नुकसान का अच्छा ज्ञान था उसे और जब ज़िन्दगी के नफे नुक्सान की बात हो तो भला घाटे का सौदा कैसे कर सकता था इसलिए समीर ने इस समानांतर रिश्ते पर अपनी स्वीकार्यता की मोहर लगा कर ना केवल अपने प्रेम और बड़े दिल का प्रमाण दिया बल्कि अपना घर भी बचा लिया।  
अब अमर प्रेम के कोई कितने ही मायने ढूंढें , हर रिश्ते ने अपने प्रेम को अमर ही किया था किसी ने त्याग से तो किसी ने भाव से तो किसी ने मौन स्वीकृति देकर।  शायद यही है अमर प्रेम की सार्थक परिभाषा प्रेमास्पद की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मिला दो क्योंकि जीवन को जीने के सबके अपने दृष्टिकोण होते हैं वैसे ही प्रेम के अपने गणित।  प्रेम की दिव्यता और सर्वग्राह्यता कभी प्रश्नचिन्ह नहीं बन सकती मगर एक जीवन का प्रमाण जरूर बन सकती है और उसे आज तीन किरदारों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित कर दिया था , जाने कितने रिश्तों को प्रेम ने एक सूत्र में पिरो दिया था और अपने नाम को सार्थक कर दिया था क्योंकि आसान होता है अपने अस्तित्व को मिटाना मगर ज़िन्दगी की आँख में आँख मिलकर जीना और प्रेम को भी उसका स्थान देकर जीवन गुजारना सबसे मुश्किल होता है और आज तीनो मुसाफिरों ने अपने अपने अंदाज़ में प्रेम को अमर कर दिया था।  

14 टिप्‍पणियां:

श्रीमती अमर भारती ने कहा…

ओह....!
कहानी का अन्त भी दुखाऩ्त।
कुल मिला कर ये कहानी बहुत अच्छी रही। अन्त तक इसमें प्रवाह बना रहा।
बधाई!

आगामी नई कहानी का इन्तजार रहेगा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

ये कथा तो सुख-दुख के सागर की लहरों में हिलेरे लेती हुई अपने सही मुकाम पर समाप्त हुई है।

आपकी अगली कथा की प्रतीक्षा है।
बधाई

अशरफुल निशा ने कहा…

Na jane kyon prem ki swikrati mritu ke baad hi hai?
Think Scientific Act Scientific

मनोज कुमार ने कहा…

वेदना, करुणा और दुःखानुभूति को उजागर करती रचना का अंत मर्मस्पर्शी है।

मनोज कुमार ने कहा…

वेदना, करुणा और दुःखानुभूति को उजागर करती रचना का अंत मर्मस्पर्शी है।

vijay kumar sappatti ने कहा…

is katha ka yahi ant hona tha ..

prem ki niyati yahi hai

Dr. Tripat Mehta ने कहा…

shabdon ka mahasagar ka khoob acha manthan kiya hai aapne..

Dr. Tripat Mehta ने कहा…

kripya mere blog www.inspiredprerna.blogspot.com par aae aur mujhe aur prerit kare

जोगी ने कहा…

hmm finally..khani khatm hui..par ant thoda sa dukhad rha :( ..bahut hi achha likha aapne...

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

माफी चाहूँगा, आज आपकी रचना पर कोई कमेन्ट नहीं, सिर्फ एक निवेदन करने आया हूँ. आशा है, हालात को समझेंगे. ब्लागिंग को बचाने के लिए कृपया इस मुहिम में सहयोग दें.
क्या ब्लागिंग को बचाने के लिए कानून का सहारा लेना होगा?

निर्मला कपिला ने कहा…

धाँ आज देखा है अन्तिम भाग। उस दिन तो आगे की प्रतीक्षा ही थी। कहानी का अन्त चाहे दुखद है मगर समाज की परंपराओं और अपनी संस्कृति के लिये यही अन्त उपयुक्त था
कहाने केवल दिल बहलाने के लिये नहीं लिखी जती कहानी मे समाज को कोई संदेश जाता हो तो कहाएए सफल है । कहानी के माध्यम से अच्छा संदेश दिया है।शुभकामनायें दीपावली की भी मंगल कामनायें

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सुंदर व्यंजनाएं।
दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
आप ब्लॉग जगत में महादेवी सा यश पाएं।

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आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

SP Dubey ने कहा…

कथानक "अमर प्रेम" प्रेम तत्व का जो दर्शन है उसका निर्वाह आपने किया है और कहानी अपनी पराकाष्ठा की उचाई पर पहुंच कर अनन्त मे लीन होगई।
हार्दिक अभिनन्दन

Unknown ने कहा…

बेहद भावुक कहानी... मध्य युग के रोमांटिसिज्म की धारा में. कहानी का अंत शरतचंद्र की देवदास की याद दिलाता है. एक फिल्म भी देखी थी "दो बदन" उसका अंत भी ऐसा ही था.

अब नवउदारवाद और बाज़ार अपसंस्कृति ने समाज को अधिक खोल दिया है. सामाजिकता के फोर्मैट और व्यष्टि की आकांक्षाओं के बीच द्वंद्व की स्थिति है. कथालेखिका को पहली रचना के लिए बधाई. इसमें कहानी का सबसे आवश्यक तत्व- भावना की अंतर्धारा और स्वीकृत मानदंडों के प्रति आस्था श्लाघ्य हैं. किन्तु अधिक व्यावहारिक और बौद्धिक स्तर पर उतर कर कहानी का उत्तरार्ध कुछ और होता तो ज्यादा अच्छा लगता.

बीच बीच में कवितायों का पुट कथा को उसकी भावभूमि में और सज्जित करता है...

शुभकामनाएं.
सुनील श्रीवास्तव