मन की वीणा विकल हो रही है
तुम्हारे दरस की ललक हो रही है
जाएँ तो जाएँ कहाँ गुरुवर
ज्ञान का दीप जलाएं कहाँ
आत्मदीप अब जलाएं कहाँ
चरणकमल कृपा अब पायें कहाँ
मेरे मन में बसा अँधियारा था
गुरु आपने ही किया उजियारा था
अब वो प्रेमसुधा हम पायें कहाँ
कौन प्रीत की रीत निभाये यहाँ
मेरे मन की तपन कौन बुझाए यहाँ
गुरुवर कौन जो तुमसे मिलन कराये यहाँ
ये बेकल मन की अटपटी भाषा
तुम्हारे बिन कोई समझ न पाता
अब ये भावों की समिधा चढ़ाएं कहाँ
गुरुदरस की लालसा मिटायें कहाँ