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सोमवार, 23 नवंबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से ......................

श्रीमद्भागवद्गीता के ७ वें अध्याय के २४ वें श्लोक की व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने कुछ इस प्रकार की है जिससे परमात्मा के साकार और निराकार स्वरुप की सार्थकता समझ आती है ।

श्लोक
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ परमभाव को न जानते हुए अव्यक्त (मन - इन्द्रियों से पर ) मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला ही मानते हैं।

व्याख्या
जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरे में श्रद्धा भक्ति नही है वे अल्पमेधा के कारण अर्थात समझ की कमी के कारण मेरे को साधारण मनुष्य की तरह अव्यक्त से व्यक्त होने वाला अर्थात जन्मने मरने वाला मानते हैं । मेरा जो अविनाशी अव्यय भाव है अर्थात जिससे बढ़कर कोई दूसरा हो ही नही सकता और जो देश , काल , वस्तु व्यक्ति आदि में परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत सदा एकरूप रहने वाला ,निर्मल और असम्बद्ध है ------ऐसे मेरे अविनाशी भाव को वे नही जानते इसलिए वे मेरे को साधारण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नही करते प्रत्युत देवताओं की उपासना करते हैं ।
मेरे स्वरुप को न जानने से वे अन्य देवताओं की उपासना में लग गए और उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना में लग जाने से वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरे से विमुख हो गए । यद्यपि वे मेरे से अलग नही हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नही हो सकता तथापि कामना के कारण ज्ञान ढक जाने से वे देवताओं की तरफ़ खिंच जाते हैं । अगर वे मेरे को जान जाते तो केवल मेरा ही भजन करते ।
१) बुद्धिमान मनुष्य वे होते हैं जो भगवान के शरण होते हैं । वे भगवान को ही सर्वोपरि मानते हैं।
२)अल्पमेधा वाले मनुष्य वे होते हैं जो देवताओं के शरण होते हैं । वे देवताओं को अपने से बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता , सरलता रहती है।
३)अबुद्धि वाले मनुष्य वे होते हैं जो भगवान को देवता जैसा भी नही मानते , किंतु साधारण मनुष्य जैसा ही मानते हैं । वे अपने को ही सर्वोपरि , सबसे बड़ा मानते हैं ।
यही तीनो में अन्तर है ।
भगवान कहते हैं कि मैं अज रहता हुआ ,अविनाशी होता हुआऔर लोकों का ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृति को वश में करके योगमाया से प्रकट होता हूँ ------------इस मेरे परमभाव को बुद्धिहीन मनुष्य नही जानते। कहने का तात्पर्य है की जिसको क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम बताया है अर्थात जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नही ऐसे मेरे अनुपम भाव को वे नही जानते।
जो सदा निराकार रहने वाले मेरे को केवल साकार मानते हैं , वे निर्बुद्धि हैं क्यूंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरुप को नही जानते । ऐसे ही मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हूँ -------ऐसे मेरे को केवल निराकार मानते हैं वे निर्बुद्धि हैं क्यूंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भाव को नही जानते।
उपर्युक्त दोनों अर्थों में से कोई भी अर्थ ठीक नही है कारण कि ऐसा अर्थ मानने पर केवल निराकार को मानने वाले साकाररूप की और साकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे और केवल साकार मानने वाले निराकार रूप की और निराकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे । यह सब एकदेशियपना है।
पृथ्वी , जल तेज़ आदि जितने भी विनाशी पदार्थ हैं वे भी दो -दो तरह के होते हैं --------सूक्ष्म और स्थूल । जैसे स्थूल रूप से पृथ्वी साकार है और परमाणु रूप से निराकार है , जल बर्फ , बूँद , बादल रूप से साकार है और परमाणु रूप से निराकार है तेज काठ और दियासलाई में रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होने पर साकार है आदि। इस तरह से भोतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में दो नही होती । साकार होने पर निराकार में बाधा नही होती और निराकार होने पर साकार में बाधा नही लगती तो फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है ? अर्थात कोई बाधा नही है । वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं , सगुण भी हैं और निर्गुण भी। गीता साकार और निराकार दोनों को मानती है। भगवान कहते हैं कि मैं अज होता हुआ भी प्रगट होता हूँ , अविनाशी होता हुआ भी अंतर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक बन जाता हूँ । अतः निराकार होते हुए साकार होने में और साकार होते हुए निराकार होने में भगवान में किंचिन्मात्र अन्तर नही आता।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से ..............अन्तिम भाग

ज़िन्दगी एक नई दिशा की ओर घूमने लगी ...........अनजाने मोडों से गुजरती न जाने कौन सी राह की ओर ले जा रही थी । रवि और मैं एक बार फिर आपस में कहीं न कहीं टकराने लगे और ज़िन्दगी के इस मोड़ के बारे में सोचने लगे। शायद दोनों को ही अपनी -अपनी गलती का अहसास हो चुका था । ज़िन्दगी के थपेडों ने हमें बता दिया था कि अकेले ज़िन्दगी जीनी इतनी आसान नही होती और सफलता पा लेना सफल जीवन का प्रमाण नही होता। हम दोनों को ही समझ आ गया था कि अपनी नादानियों की वजह से हमने एक अटूट रिश्ते को तोड़ दिया था । अपने -अपने अहम के कारण आज हमारा जीवन तिनके- सा बिखर गया था। शायद इसीलिए कहा गया है कि ज़िन्दगी का दूसरा नाम समझौता है क्यूंकि अब तक भी तो हम दोनों अपनी -अपनी ज़िन्दगी से और ज़िन्दगी में आए हालातों से समझौता ही तो कर रहे थे। अगर उस वक्त हमने ये छोटे -छोटे समझौते कर लिए होते और एक दूसरे को समझने की कोशिश की होती , एक दूसरे की गलतियों को एक -दूसरे को समझाने की कोशिश की होती तो आज शायद ये हालात न होते। ज़िन्दगी में कभी न कभी किसी न किसी से समझौते करने ही पड़ते हैं तो फिर जिसे हम चाहते हैं उसके साथ क्यूँ नही कर सकते , वहां अपने अहम को आडे क्यूँ ले आते हैं । मगर शाख से टूटे पत्ते भी कहीं शाख से दोबारा जुडा करते हैं यही सोच हम अपनी ज़िन्दगी जी रहे थे मगर वो कहते हैं न कि जो रिश्ता भगवान ने बनाया हो उसे कौन तोड़ सकता है। एक दिन अचानक फिर हम दोनों उसी मन्दिर में टकराए जैसे पहली बार टकराए थे और जैसे ही एक -दूसरे को देखा तो वो लम्हात एक चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूम गए और उस पल हमें लगा कि शायद भगवान की भी यही मर्ज़ी है की हम दोनों एक -दूजे के लिए ही बने हैं । और उस दिन अपने -अपने अहम को तोड़ते हुए दोनों ने एक बार फिर अपने- अपने दिल की बात कही और एक नए सिरे से ज़िन्दगी जीने की सोची।
अब एक बार फिर हम दोनों उसी बंधन में बंध गए थे जिसे अपनी नादानियों के कारण तोड़ चुके थे। ज़िन्दगी के अर्थ अब हमें समझ आ चुके थे।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से भाग ४ .............................

ज़िन्दगी यूँ ही अपनी रफ़्तार से चल रही थी और हमें भी चलने को मजबूर कर रही थी। आख़िर हमारी ही चुनी हुई तो ज़िन्दगी थी फिर उससे कैसे मुहँ मोड़ सकते थे हम।
एक दिन अचानक जब मैं काफ़ी शॉप में बैठी हुयी थी तभी देखा सामने वाली कुर्सी पर रवि आकर बैठा है। उसे देखते ही एक धक्का सा लगा दिल को । क्या हाल हो गया था रवि का । एक कंपनी का इतना उच्च पदाधिकारी और ये हाल -----------टूटा , बिखरा , बेतरतीब सा। देखने पर यूँ लगा जैसे बरसों से बीमार हो । एक हँसता मुस्कुराता चेहरा जैसे कुम्हला गया हो। उसे देखते ही दिल में संवेदनाएं जागने लगीं ............चाहे आज हम अलग हो गए थे मगर कभी तो हम साथ रहे थे इसलिए इंसानियत के नाते उठकर रवि के पास चली गई और अपने सामने अचानक मुझे देखकर वो हडबडा गया। फिर ख़ुद को संयत कर उसने मुझे बैठने को कहा। मैंने उससे पूछा ये क्या हाल बना रखा है तुमने, तो बोला किसके लिए कुछ करुँ। जैसा हूँ ठीक हूँ । एक धक्का सा लगा उसका जवाब सुनकर। एक अपराधबोध सा होने लगा जैसे उसकी गुनहगार मैं ही हूँ और साथ यूँ भी लगा कि जैसे आज भी वो मुझे उतना ही चाहता है। फिर वो बोला तुम्हारा हाल ही कौन सा मुझसे अलग है । कभी देखा है ख़ुद को आईने में । उस वक्त यूँ अहसास हुआ जैसे किसी ने जलते हुए छालों पर बर्फ का मरहम लगा दिया हो । बस उसके बाद अपने -अपने ख्यालों में गुम हम दोनों ही अपनी -अपनी राह पर चल दिए कुछ सवालों के साथ ।
घर आकर लगा जैसे कहीं कुछ अपनी बहुत ही खास चीज़ छूट गई है। उसे पकड़ने की इच्छा जागृत होने लगी। यूँ लगने लगा जैसे रवि एक बार आवाज़ दे तो .................. मगर सोचने से ही तो सब कुछ नही होता । उधर रवि का भी यही हाल था। उसे भी लगा कि कहीं कुछ ग़लत हो गया है जिसे शायद हम दोनों ही नही समझ पा रहे थे।

आज थोडी वक्त की कमी है इसलिए कहानी इतनी ही डाल पा रही हूँ क्षमाप्रार्थी हूँ ।

क्रमशः.................................

रविवार, 8 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से भाग ३..........................

रवि और निशा की शायद यही परिणति है ...............मिलकर भी न मिलना। यही तसल्ली दिल को देकर आगे के बारे में सोचना शुरू किया। अब मैं अपने पुराने घावों को भूल एक नए सिरे से आजाद पंछी की भांति जीवन- यापन करने की सोचने लगी। पिता के घर में किसी बात की कमी तो थी नही और साथ ही मैं इतना अच्छा कमाती थी तो आर्थिक स्थिति तो सुदृढ़ थी ही । मैं अपने हिसाब से जीने की कोशिश करने लगी मगर मुझे पता नही था कि एक तलाकशुदा का जीवन कोई फूलों की डगर नही। बहुत ही जल्द वक्त ने मुझे यथार्थ का धरातल दिखा दिया । मुझे अपनी कमाई पर गर्व था और सोचती थी कि धन से सब कुछ ख़रीदा जा सकता है ,सिर्फ़ रवि ही मेरी भावनाएं नही समझ सका मगर घर में भाई भाभी भी थे उन्हें मेरी कमाई से कोई फर्क नही पड़ता था मैं उनके या उनके बच्चों के लिए कितना भी कुछ करने की कोशिश करती मगर उन पर असर नही होता। उनके लिए तो मैं अब एक आजीवन बोझ ही थी । मैं अपनी खुशी से कुछ भी करती मगर सब बेकार ,किसी को भी मेरी खुशी से कुछ लेना देना नही होता,एक अनचाहा बोझ समझते थे सब। इस बात का अहसास अब मुझे भी होने लगा था। इसलिए मैंने अलग रहने की सोची और जब घर देखने निकली तब तो और भी मुश्किलों ने घेर लिया। कोई भी एक तलाकशुदा को जल्द ही घर देने को राजी न होता। जैसे ही तलाकशुदा होने का पता चलता यूँ देखते जैसे संसार का आठवां अजूबा मैं ही हूँ या जैसे मैं इंसान न होकर उनके घर को उजाड़ने वाली कोई चीज़ हूँ या फिर हर कोई चाहता की ये तो तलाकशुदा है तो जैसे इस पर अपना अधिकार है । हर कोई ग़लत नज़रिए से ही देखता। आज के युग में भी इंसानी सोच कितनी जड़ थी.........मैं यही सोचकर परेशान हो जाती मगर कर कुछ नही सकती थी। ऐसे जीवन की तो मैंने कल्पना भी नही की थी न ही कभी सोचा था कि हालत ऐसे भी हो सकते हैं। तलाक लेने से पहले सबने कितना समझाया था मगर उस वक्त मैं कल्पनाओं के आकाश पर विचर रही थी तो कैसे यथार्थ बोध होता। जब भी कहीं रहती कोई न कोई समस्या मुहँ बाये खड़ी रहती। जिंदगी को जितना आसान समझा था वो उतनी ही राहों में कांटे बोती जा रही थी। अब तो अकेलेपन का दर्द बहुत ही सालने लगा था । कोई कंधा ऐसा न था जिसपे अपना सिर रखकर रो पाती या किसी से अपना हाल-ए-दिल कह पाती। कभी कोई बीमारी होती तो उस वक्त इतनी लाचार महसूस करने लगती कि सोचती कि क्या ऐसी ही जिंदगी की मैंने कल्पना की थी ।ऐसे वक्त पर रवि की बहुत याद आती। वो मेरा कितना ख्याल रखता था अगर मुझे ज़रा सा भी कुछ हो जाता तो रात भर आंखों में ही काट देता था मगर मेरे सिरहाने से नही हिलता था। क्या हालात और वक्त ऐसे बदलता है। जो न सोचा हो वो होता है। धीरे -धीरे मेरा दंभ मरना लगा था । अब मुझे लगने लगा था कि शायद तलाक लेने में मैंने बहुत जल्दी कर दी थी । कुछ वक्त दिया होता अपने रिश्ते को । अब रवि की बहुत सी बातें मुझे याद आने लगी थी। अब मुझे सिर्फ़ उसकी अच्छी बातें ही याद आती । उधर रवि का भी मेरे से कम बुरा हाल न था । उसका भी कमोबेश यही हाल था। एक ही शहर में होने के कारन उसके बारे में मुझे जानकारी मिलती रहती थी। मगर अब क्या हो सकता था। जिंदगी दोनों के लिए दुश्वार होने लगी थी । जब साथ थे तो साथ नही रहना चाहते थे और अब जब अलग हो गए तब भी दोनों को सुकून नही मिल रहा था। जिंदगी का न जाने ये कौन सा मुकाम था जहाँ एक अजीब सी बचैनी बढती ही जा रही थी। क्या करें और क्या न करें की अजीब सी कशमकश में उलझते जा रहे थे। अब हमारा वो हाल था न हम आगे बढ़ पा रहे थे और न ही पीछे लौट कर जा सकते थे। अब तो सिर्फ़ यादें थी जो हमारी तन्हाई की साथी थी । अब सिर्फ़ सुखद यादें ही याद आती। दुखद यादें तो जैसे न जाने कौन से परदे में छुप गई थीं। और हम जिंदगी जीने को मजबूर इसी ऊहापोह में जिए जा रहे थे मगर बिना लक्ष्य का जीवन भी कोई जीवन होता है। दुनिया के हँसते खिलखिलाते चेहरे देख , उनके परिवारों को देख दिल में एक कसक सी उठती । शायद इससे बड़ी सजा और क्या मिलती अपनी नादानियों की .....................

क्रमशः .........................

शनिवार, 7 नवंबर 2009

यादों के झरोखे से भाग २ ...................

ज़िन्दगी धीरे- धीरे ढर्रे पर आने लगी । दोनों ही अपनी- अपनी तरफ़ से उस दुखद पल को भुलाने की कोशिश करने लगे मगर कहीं एक चुभन शायद दोनों के ही दिलों में कहीं बहुत गहरे बैठ गई थी। फिर भी दोनों ज़िन्दगी जीने की कोशिश में लग गए थे। आत्मग्लानि की वजह से रवि अपने को ज्यादा ही व्यस्त रखने लगा। वो अधिक से अधिक काम की वजहों से टूर पर जाने लगा और साथ ही उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगी थीं , कुछ पाने की , कुछ बनने की उसकी चाह जोर उठाने लगी थी। इधर मैंने भी अपनी पी० एच० डी ० पूरी करने की सोची और मैं भी ज़िन्दगी में एक मुकाम पाने की दिशा की ओर अग्रसर हो गई । शायद ख़ुद को व्यस्त रखकर हम दोनों ही सच से दूर भाग रहे थे या शायद अपने- अपने अहम् को संतुष्ट कर रहे थे। हम दोनों साथ थे मगर अपनी -अपनी दुनिया में व्यस्त रहने लगे। समय अपनी गति से खिसकता रहा । उसके बाद हमारी चार सालगिरह और आई मगर अब उनमें वो गर्माहट न होती । अब उत्साह ठंडा पड़ चुका था क्यूंकि भूतकाल की कटु याद जेहन में एक बार फिर डंक मारने लगती । हम साधारण तरीके से सालगिरह मनाते जैसे कोई औपचारिकता पूरी कर रहे हों।
वक्त के साथ मेरी पी ० एच ० डी ० पूरी हो चुकी थी और मैं अब कॉलेज में लेक्चरार लग गई थी। अब तो मुझे अपने आप पर एक गर्व महसूस होने लगा था और मैं अपनी सफलता के नशे में डूबने लगी थी । मेरे पैर जमीन पर नही पड़ते थे जैसे न जाने मैंने कौन सा गढ़ जीत लिया हो । शायद सफलता का नशा ऐसा ही होता है जो इंसान के सिर चढ़कर बोलता है । उधर रवि भी तरक्की की सीढियाँ चढ़ते हुए अपनी कंपनी का सी०ई०ओ० बन गया था। अब हमारे रहन सहन का स्तर बदल चुका था । आए दिन घर में पार्टियाँ होती थीं , बड़ी बड़ी बिज़नस मीटिंग्स होती थी। हम दोनों के पास बाकी सब कामों के लिए वक्त था बस अगर नही था तो एक दूसरे के लिए। दोनों ही सफलता के घोडे पर सवार आगे ही आगे बढ़ने की धुन में एक दूसरे को नज़रंदाज़ करते गए। कभी भी एक दूसरे का साथ निभाने या दूसरे को पुकारने की कोशिश ही नही करते । दोनों के अहम हमारे जेहन पर हावी हो गए थे। एक दूसरे की भावनाओं का कोई मोल नही रह गया था , कभी वो वक्त था जब हम सिर्फ़ एक दूसरे के लिए जीते थे और अब ये वक्त आ गया था कि दोनों सिर्फ़ अपने लिए ही जीने लगे। अगर रवि चाहता कि मैं उसके साथ कहीं घूमने जाऊँ या कोई फ़िल्म देखने चलूँ तो मुझे कोई न कोई काम होता और जब मैं चाहती तो रवि के पास वक्त न होता। हम दोनों ही शायद अपनी इस ज़िन्दगी से सामंजस्य नही बैठा पा रहे थे ............या शायद कोशिश ही नही करना चाहते थे । वक्त ने शायद हमारे बीच सदियों के फासले बो दिए थे जिन्हें सींचना अब नामुमकिन -सा होता जा रहा था। शायद सफलता के एक मुकाम पर आकर उसे बनाये रखना और भी मुश्किल होता है और उसकी कीमत भी हमें ही चुकानी पड़ती है। हम दोनों साथ रहकर भी अजनबियों सी ज़िन्दगी जीने लगे थे। आज एक- दूजे की भावनाओं की हमें कोई क़द्र ही नही रह गई थी । कितने संवेदनहीन हो गए थे हमारे ह्रदय।
धीरे- धीरे हमारे अहम् टकराने लगे.सिर्फ़ अपनी बात मनवाना चाहते थे एक दूसरे से, उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े ,हम करते थे , धीरे- धीरे यही छोटी -छोटी बातें हमारी ज़िन्दगी में खाई बनने लगीं. बात -बात पर हम दोनों एक -दूसरे को तानाकशी करने लगे और हालत बद से बदतर होने लगे । और फिर एक दिन जब मेरी और रवि दोनों की ही सहनशीलता जवाब दे गई तो मैं रवि को छोड़कर अपने मायके आ गई। घर वाले इस अप्रत्याशित घटना से परेशान हो गए। रवि और मेरे घरवालों ने बहुत कोशिशें की कि हम दोनों एक- दूसरे को समझें क्यूंकि कोई भी समस्या ऐसी नही होती जिसका हल नही होता मगर हमारे अहम् सबसे ऊपर थे उस वक्त इसलिए हम दोनों में से किसी ने भी समझौता करने की नही सोची । और फिर एक दिन हमने तलाक लेने की सोची और आपसी सहमति से तलाक ले लिए। ज़िन्दगी के एक स्वर्णिम अध्याय का ऐसा अंत .......कभी स्वप्न में भी नही सोचा था..........................

क्रमशः ............................

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

यादों के झरोखों से ..................

आज भी याद है वो शाम जब अचानक तुम उस मन्दिर में मुझसे टकराए थे और मेरी पूजा की थाली गिर गई थी । कितने शर्मिंदा हुए थे तुम और फिर एक नई पूजा की थाली लाकर मुझे दी थी। भगवान के आँगन में हमारी मुलाक़ात शायद उसका एक इशारा था। उसी की इच्छा थी की हम उस पवित्र बंधन में बंधें और अपने रिश्ते को पूर्ण करें। उस मुलाक़ात के बाद तो जैसे तुम्हारा और मेरा रोज मन्दिर आना एक नियम सा बन गया था। हम दोनों ने एक दूसरे से बात करना भी शुरू कर दिया था । तब पता चला कि तुम इंजिनियर हो और मैं भी स्कूल में अध्यापिका थी । बहुत ही सुलझे हुए इंसान लगे तुम। हर बात को एक दम सटीक और नपे- तुले शब्दों में कहने की तुम्हारी अदा मुझे अच्छी लगने लगी। धीरे -धीरे तुम मेरे वजूद पर छाने लगे.............तुम्हारी हर बात , हर अदा मुझे तुम्हारी ओर खींचती। मैं अपने आप को जितना रोकने की कोशिश करती उतनी ही विफल होती गई.........शायद पहले प्यार का आकर्षण ऐसा ही होता है। जब तुम्हारी आंखों में झांकती तो उन गहराइयों में इतना गहरे उतर जाती कि ख़ुद को भी भूल जाती .........एक अजब आलम था .........हर पल तुम्हारा ही ख्याल रहता और तुम्हारा ही इंतज़ार। अब तक हम दोनों ने साथ जीने का निर्णय ले लिया था और फिर एक दिन तुम अचानक मेरे घर अपने माता -पिता के साथ आए और मेरा हाथ माँगा। दोनों ही परिवार में कोई भी ऐसा न था जो इस रिश्ते को ना कर पाता। सर्वगुण संपन्न रिश्ता घर बैठे मिल रहा था तो और चाहिए ही क्या था। दोनों परिवारों की आपसी सहमति से हम परिणय-सूत्र में बंध गए।
ज़िन्दगी सपनो के पंख लगाकर उड़ने लगी । रवि मेरी छोटी से छोटी इच्छा ,मेरी हर खुशी के लिए दिन- रात कुछ न देखते । बस मेरे चेहरे पर हँसी की लकीर देखने के लिए कुछ भी कर गुजरते। मेरे दिन- रात मेरे नही रहे थे सब रवि को समर्पित हो गए थे। मैं भी रवि की राहों में अपने प्रेम के पुष्प बिछाए रहती। रवि की हर इच्छा जैसे मेरे जीने का सबब बन जाती............दिन ख्वाबों के सुनहरे पंख लगाये उड़ रहे थे। एक -दूसरे में कभी कोई कमी ही नज़र न आती । सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम था । हर कोई हमें देखकर यही कहता कि ये दोनों तो जैसे बने ही एक दूजे के लिए हैं । ऐसा सुनकर हम दोनों बहुत खुश होते ,अपने आप पर गर्व होता । पता ही नही चला कब एक साल गुजर गया।
उस दिन हमारी शादी की पहली सालगिरह थी । कितनी उमंगें थी हम दोनों के दिलों में। हम इस हसीन शाम को यादगार बनाना चाहते थे और उन सब लोगो को शामिल करना चाहते थे जिनकी निगाहों में हम आदर्श दंपत्ति थे। फिर तुमने एक पार्टी का आयोजन किया और हम दोनों के दोस्तों को बुलाया ताकि इस हसीन शाम का आनंद अलग ही हो जो बरसों भुलाये न भुला जा सके।
पार्टी हॉल में तुम अपने दोस्तों के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे थे और जब मैं तैयार होकर वहां आई तो मुझे देखकर तुम बुत बने रह गए थे..........तुम्हारी उस अदा ने तो जैसे मेरी जान ही ले ली थी। ज़िन्दगी में कभी ऐसे क्षणों के बारे में नही सोचा था सब एक सपना सा लग रहा था। उस दिन तुम्हारे पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे। केक काटने के बाद जब रात गहराने लगी तब तुमने भावनाओं के अतिरेक में बहकर एक खवाहिश जाहिर की कि मैं भी तुम्हारे साथ एक पैग लूँ। मैं स्तब्ध रह गई तुम्हारे वो शब्द सुनकर। मेरी प्यार की सारी खुमारी तुम्हारे इन शब्दों से उतरने लगी। तुम्हें अच्छी तरह पता था कि मैं उस तरह को सोच की नही हूँ मगर फिर भी उस दिन की खुशी में या अपने प्यार के नशे में डूबे तुम मुझसे जिद करने लगे कि आज के दिन निशा तुम मुझे ये एक छोटा सा उपहार भी नही दे सकती । मैं जो रवि के लिए कभी भी कुछ भी कर सकती थी उस वक्त सकते में आ गई कि आज ये रवि को क्या हो गया है । आज से पहले तुमने कभी ऐसी कोई फरमाइश नही की थी और न ही कभी ऐसी जिद पकड़ी थी। मगर उस दिन न जाने रवि को क्या हो गया था वो मुझसे सबके सामने जिद करने लगा और मैं उस वक्त ख़ुद को लज्जित महसूस करने लगी जब तुम मुझे जबरन पिलाने की कोशिश करने लगे। और फिर मैं तुम्हारी ज्यादती बर्दाश्त न कर पाई और पार्टी बीच में छोड़कर घर आ गई। बस वो रात , सारी रात गरजती रही और बरसती रही। एक खामोशी पसर गई दोनों के बीच। काफी दिन तक तुम मुहँ छुपाते फिरते रहे शायद तुम्हें अपने किए पर पछतावा था और फिर तुमने अपने किए पर मुझसे माफ़ी मांगी और शायद अपनी ज़िन्दगी की ये पहली लड़ाई थी इसलिए मैंने भी तुम्हें जल्दी माफ़ कर दिया ये सोचकर की कई बार हमारी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा बढ़ जाती हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए हम सही ग़लत कुछ नही सोच पाते शायद ऐसा ही रवि के साथ हुआ था...........................मगर ज़िन्दगी के सबसे हसीन पल सबसे दुखद पल में बदल गए थे .............एक ऐसी याद बन गए थे जो कभी मिटाए नही मिट पायी...................

क्रमशः ................................

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

श्रीमद्भागवद्गीता से .........................

श्रीमद्भागवद्गीता के १२ वे अध्याय के १५ वे श्लोक की बहुत ही सुंदर व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने की है कि भक्त कैसा होता है और कैसा भक्त भगवान को प्रिय है।

श्लोक

जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नही होता और जिसको ख़ुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नही होता तथा जो हर्ष , अमर्ष (इर्ष्या), भय, और उद्वेग से रहित है , वह मुझे प्रिय है।


व्याख्या

भक्त सबमें और सर्वत्र अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन , वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियायें एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए होती हैं। ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है ? फिर भी भक्तों के चरित्र में ये देखने में आता है कि उनकी महिमा , आदर सत्कार यहाँ तक की उनकी सौम्य आकृति मात्र से भी कुछ लोग इर्श्यावश उद्गिन हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं । भक्त की क्रियाएं कभी किसी के उद्वेग का कारण नही होती क्यूंकि भक्त प्राणिमात्र में भगवान को ही देखता है । उसके द्वारा भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नही होती। जिनको उससे उद्वेग होता है वह उनके अपने राग - द्वेष युक्त आसुर स्वभाव के कारण होता है ,जो होता है वो उनके अपने स्वभाव के कारण होता है तो इसमें भक्त का क्या दोष?
हिरन , मछली और सज्जन क्रमशः तिनके , जल और संतोष पर ही जीवन निर्वाह करते हैं परन्तु व्याध , मछुए और दुष्ट्लोग अकारण ही इनसे वैर रखते हैं ।
भक्तों से द्वेष रखने वाले भी उनके चिंतन संग , स्पर्श और दर्शन से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गए ----ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही सेतु है। परन्तु भक्तों से द्वेष रखने वाले सभी लोगों को लाभ ही मिलता हो ऐसा कोई नियम नही है।
लोगों को अपने आसुर स्वाभाव के कारण भक्त की हितकर क्रियाओं से भी उद्वेग हो जाता है और वे बदले की भावना से भक्त के विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपने को भक्त का शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्त की दृष्टि में न कोई शत्रु होता है और न ही उद्वेग का भावः।
वास्तविकता का बोध होने और भगवान में अत्यन्त प्रेम होने के कारण भक्त भगवत्प्रेम में इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान के ही दर्शन होते हैं और भगवान की ही लीला दिखाई देती है। मनुष्य को दूसरों से उद्वेग तभी होता है जब उसकी कामना,मान्यता , साधना धारणा आदि का विरोध होता है । भक्त सर्वथा पूरनकाम होता है इसलिए दूसरों से उद्वेग होने का कोई कारण ही नही रहता।
किसी के उत्कर्ष को सहन न करना अमर्ष कहलाता है । दूसरों को अपने से अधिक सुविधा संपन्न प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अंतःकरण में इर्ष्या का भावः पैदा होता है क्यूंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नही होता । कई बार साधकों के मन में भी दूसरे साधको की आध्यात्मिक उन्नति देखकर इर्ष्या का भावः जागृत हो जाता है पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है क्यूंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रभु के सिवाय और किसी की स्वतंत्र सत्ता नही होती तो फिर क्यूँ और किससे अमर्ष करे।
अगर साधक के मन में दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भावः पैदा हो कि मेरी भी ऐसी ही अध्यात्मिक उन्नति हो तो ये भाव उसके साधन में सहायक होता है। मगर ग़लत भावः अमर्ष पैदा करने वाला होता है।
इष्ट के वियोग और इष्ट के संयोग की आशंका से होने वाले विकार को भय कहते हैं। भय दो कारणों से होता है --------बाहरी कारण जैसे सिंह , सौंप , चोर आदि, दूसरा भीतरी कारण जैसे चोरी , झूठ , कपट आदि से होने वाला भय।
सबसे बड़ा भय मौत का होता है । विवेकशील कहे जाने वाले लोगों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है । साधक को भी सत्संग, भजन आदि में कृश होने का भय रहता है या उसको अपने परिवार के भरण पोषण का भय रहता है । ये सभी भय शरीर की जड़ता के आश्रय से पैदा होते हैं परन्तु भक्त सदा भगवान के आश्रित रहता है इसलिए भयमुक्त रहता है । साधक को भी तभी तक भय जब तक वह भगवान के आश्रित नही होता। सिद्ध भक्त तो सब जगह अपने भगवान की लीला देखते हैं तो भगवान की लीला उनके मन में भय कैसे पैदा कर सकती है।
मुक्त पद का अर्थ है सर्वथा विकारों से छूटा हुआ। अंतःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात परमात्मा में पूर्णतया मन बुद्धि न लगने से ही हर्ष,अमर्ष,भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं । परन्तु भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता होती ही नही इस कारण उसमें ये विकार उत्पन्न ही नही होते।
गुणों का अभिमान करने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं । अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है। भक्त को इस बात की जानकारी ही नही होती की मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कोई गुण दीखता भी है तो वो उसे भगवान का ही मानता है अपना नही। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण दुराचारों विकारों से मुक्त होता है ।
भक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।