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शनिवार, 29 अगस्त 2015

गोपीभाव



गोपीभाव
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न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन

न मिलने की चाह रही
न बिछड़ने की परवाह रही
उमंगों के घोड़े रुक गए
जाने कहाँ तुम छुप गए

जब से किया किनारा है
मेरा न कोई दूजा सहारा है
अब बिरहा की मारी जाएँ कहाँ
तुम्हारी वो अलौकिक छवि पायें कहाँ
यूं सोच सोच बेजार हुईं
हम तो खुद को तुम पर हार गयीं

न वो सांझ सकारे रहे
न वो मधुबन के द्वारे रहे
न वो रास रंग की बतियाँ रहीं
न वो तुम संग बीतीं रतियाँ रहीं
न वो हास - विलास रहा
न वो पहला सा उल्लास रहा
जब से गए हो परदेस मोहन
अपना पता भी भूल गया
तभी तो कहता है ह्रदय हमारा
न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन.......... मोहन !!!

मेरा हर ख़ुशी हर गम
सिर्फ मोहन से रति
यही है मेरे प्रेम की परिणति


सोमवार, 10 अगस्त 2015

है न यही स्थिति

मैं और तू कहूँ
या तू ही तू कहूँ
या मैं ही मैं कहूँ 
भाव तो दो का ही बोध कराता है 

जब न मैं हो न तू 
बस प्रेम ही प्रेम हो 
बोध से परे 
आनंद ही आनंद हो 
वही तो परमानन्द है 
वही तो प्रेम है 
वही तो निराकारता है 

है न यही स्थिति तुम्हें पाने की , तुम में समाने की .........कृष्णा ! मोहना ! माधवा !