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सोमवार, 29 अप्रैल 2013

सम्भोग से समाधि तक



संभोग 
एक शब्द 
या एक स्थिति 
या कोई मंतव्य 
विचारणीय  है .........

सम + भोग 
समान भोग हो जहाँ 
अर्थात 
बराबरी के स्तर पर उपयोग करना 
अर्थात दो का होना 
और फिर 
समान स्तर पर समाहित होना 
समान रूप से मिलन होना 
भाव की समानीकृत अवस्था का होना
वो ही तो सम्भोग का सही अर्थ हुआ 
फिर चाहे सृष्टि हो 
वस्तु हो , मानव हो या दृष्टि हो 
जहाँ भी दो का मिलन 
वो ही सम्भोग की अवस्था हुयी 

समाधि 
सम + धी (बुद्धि )
समान हो जाये जहाँ बुद्धि 
बुद्धि में कोई भेद न रहे 
कोई दोष दृष्टि न हो 
निर्विकारता का भाव जहाँ स्थित हो 
बुद्धि शून्य में स्थित हो जाये
आस पास की घटित घटनाओं से उन्मुख हो जाये
अपना- पराया
मेरा -तेरा ,राग- द्वेष 
अहंता ,ममता का 
जहाँ निर्लेप हो 
एक चित्त 
एक मन 
एक बुद्धि का जहाँ 
स्तर समान हो 
वो ही तो है समाधि की अवस्था 



सम्भोग से समाधि कहना 
कितना आसान है 
जिसे सबने जाना सिर्फ 
स्त्री पुरुष 
या प्रकृति और पुरुष के सन्दर्भ  में ही 
उससे इतर 
न देखना चाहा न जानना 
गहन अर्थों की दीवारों को 
भेदने के लिए जरूरी नहीं 
शस्त्रों का ही प्रयोग किया जाए 
कभी कभी कुछ शास्त्राध्ययन 
भी जरूरी हो जाता है 
कभी कभी कुछ अपने अन्दर 
झांकना भी जरूरी हो जाता है 
क्योंकि किवाड़ हमेशा अन्दर की ओर  ही खुलते हैं 
बशर्ते खोलने का प्रयास किया जाए 

जब जीव का परमात्मा से मिलन हो जाये 
या जब अपनी खोज संपूर्ण हो जाए 
जहाँ मैं का लोप हो जाए 
जब आत्मरति से परमात्म रति की और मुड जाए 
या कहिये 
जीव रुपी बीज को 
उचित खाद पानी रुपी 
परमात्म तत्व मिल जाए 
और दोनों का मिलन हो जाए 
वो ही तो सम्भोग है 
वो ही तो मिलन है 
और फिर उस मिलन से 
जो सुगन्धित पुष्प खिले 
और अपनी महक से 
वातावरण को सुवासित कर जाए 
या कहिये 
जब सम्भोग अर्थात 
मिलन हो जाये 
तब मैं और तू का ना भान रहे 
एक अनिर्वचनीय सुख में तल्लीन हो जाए 
आत्म तत्व को भी भूल जाए 
बस आनंद के सागर में सराबोर हो जाए 
वो ही तो समाधि की स्थिति है 
जीव और ब्रह्म का सम्भोग से समाधि तक का 
तात्विक अर्थ तो 
यही है 
यही है 
यही है 

काया के माया रुपी वस्त्र को हटाना 
आत्मा का आत्मा से मिलन 
एकीकृत होकर 
काया को विस्मृत करने की प्रक्रिया 
और अपनी दृष्टि का विलास ,विस्तार ही तो 
वास्तविक सम्भोग से समाधि तक की अवस्था है 
मगर आम जन तो 
अर्थ का अनर्थ करता है 
बस स्त्री और पुरुष 
या प्रकृति  और पुरुष की दृष्टि से ही 
सम्भोग और समाधि को देखता है 
जबकि दृष्टि के बदलते 
बदलती सृष्टि ही 
सम्भोग से समाधि  की अवस्था है 

ब्रह्म और जीव का परस्पर मिलन 
और आनंद के महासागर में 
स्वयं का लोप कर देना ही 
सम्भोग से समाधि  की अवस्था है 
गर देह के गणित से ऊपर उठ सको 
तो करना प्रयास 
सम्भोग से समाधि की अवस्था तक पहुंचने का 
तन के साथ मन का मोक्ष 
यही है 
यही है 
यही है 

जब धर्म जाति  , मैं , स्त्री पुरुष 
या आत्म तत्व का भान  मिट जाएगा 
सिर्फ आनंद ही आनंद रह जायेगा 
वो ही सम्भोग से समाधि की अवस्था हुयी 

जीव रुपी यमुना का 
ब्रह्म रुपी गंगा के साथ 
सम्भोग उर्फ़ संगम होने पर 
सरस्वती में लय  हो जाना ही 
आनंद या समाधि  है 
और यही 
जीव , ब्रह्म और आनंद की 
त्रिवेणी का संगम ही तो 
शीतलता है 
मुक्ति है 
मोक्ष है 


सम्भोग से समाधि तक के 
अर्थ बहुत गहन हैं 
सूक्ष्म हैं 
मगर हम मानव 
न उन अर्थों को समझ पाते हैं 
और सम्भोग को सिर्फ 
वासनात्मक दृष्टि से ही देखते हैं 
जबकि सम्भोग तो 
वो उच्च स्तरीय अवस्था है 
जहाँ न वासना का प्रवेश हो सकता है 
गर कभी खंगालोगे ग्रंथों को 
सुनोगे ऋषियों मुनियों की वाणी को 
करोगे तर्क वितर्क 
तभी तो जानोगे इन लफ़्ज़ों के वास्तविक अर्थ 
यूं ही गुरुकुल या पाठशालाएं नहीं हुआ करतीं 
गहन प्रश्नो को बूझने  के लिए 
सूत्र लगाये जाते हैं जैसे 
वैसे ही गहन अर्थों को समझने के लिए 
जीवन की पाठशाला में अध्यात्मिक प्रवेश जरूरी होता है 
तभी तो सूत्र का सही प्रतिपादन होता है 
और मुक्ति का द्वार खुलता है 
यूँ ही नहीं सम्भोग से समाधि तक कहना आसान होता है 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

श्याममय दिखता सब संसार



जब से वैराग्य की मांग निकाली है
भक्ति का सिंदूर डाला है 
ज्ञान का सागर बहने लगा
ह्रदय में कम्पन होने लगा 
प्रेम का अंजन 
अश्रुओं मे बहने लगा
मन मयूर नृत्य करने लगा
सांवरा मन मे बसने लगा 
नित्य रास करने लगा 
अब तो मधुर मिलन होने लगा 
प्रेमरस बहने लगा 
द्वि का परदा हटने लगा
 एकाकार होने लगा 
ब्रह्मानंद मे मन डूबने लगा
 "मै" का ना कोई भान रहा
 "तू" मे ही सब समाने लगा
 आह! कृष्ण ये मुझे क्या होने लगा
 जहाँ ना मै रहा ना तू रहा
 बस अमृत ही अमृत बरसने लगा
 आनन्द सागर हिलोरें लेने लगा 
पूर्ण से पूर्ण मिलने लगा 
ओह ! संपूर्ण जगत स्व- स्वरुप दिखने लगा 
आनंद का ना पारावार रहा 
आहा ! श्याममय आनंदमय 
रसो वयि सः निज स्वरुप होने लगा

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

या फिर बस हम मनाते रहें प्रतीक स्वरूप तुम्हारा जन्म राम नवमी को



सुना है जब तुम्हारा अवतरण हुआ था धरा पर 
ॠतुएँ अनुकूल हो गयी थीं 
चहूँ ओर उल्लासमय वातावरण छा गया था 
हर ह्रदय परमानन्द मे मगन हुआ था 
मानो तुमने उनके ही आँगन मे जन्म लिया हो 
मगर आज सोचती हूँ राम 
कैसे होगा तुम्हारा अवतरण धरा पर 
जहाँ नर पिशाचों का डेरा लगा है 
कहीं ना कोई महफ़ूज़ रहा है 
नारी की अस्मिता तार तार हुयी है
सिर्फ़ और सिर्फ़ खौफ़ का साया तांडव कर रहा है 
कोई बहन बेटी ना महफ़ूज़ रही है 
घनघोर अंधियारा छाया हुआ है 
मानसिकता पर कालिख पुती हुयी है
 बस वासना और हैवानियत का नंगा नाच हो रहा है 
फिर चाहे आम जनता उसमें झुलस रही है 
कभी बम विस्फ़ोट की आड में 
तो कहीं सडकों पर रक्षक ही भक्षक बन नोंच रहे हैं 
अत्याचार ही अत्याचार हो रहे हैं 
हे राम ! क्या ले सकोगे जन्म इन हालात में ? 
हे राम ! क्या कर सकोगे स्थापित फिर से मर्यादायें जीवन में ? 
हे राम ! ये दिन में छायी काली अँधियारी है 
क्या मिटा सकोगे इसका नामोनिशान फिर से जन्म लेकर 
या फिर तुम भी अब यहाँ आने से हिचकते हो 
जहाँ मर्यादायें , भरोसे और सम्मान पर तुषारापात होता हो 
हे राम ! आज जरूरत है तुम्हारी 
मगर मैं सोच में हूँ तुम्हें तो आदत है ॠतुओं के अनुकूल होने पर ही आगमन की
क्या इस बार बिना किसी शोर शराबे के , 
बिना तुम्हारे आगमन की पूर्व सूचना के हो सकेगा तुम्हारा अवतरण ? 
क्या कर सकोगे तुम ऐसा ………
नर पिशाचों के बीच जन्म लेकर कर सकोगे धनुष की टंकार 
और कर सकोगे अपने उदघोष को सार्थक ………

जब जब होये धर्म की हानि 
बाढहिं असुर महा अभिमानी 
तब तब प्रगट भये प्रभु राम 
पतित पावन सीता राम 
या 
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत 
अभ्युत्थानंधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम 

या 

फिर बस हम मनाते रहें 
प्रतीक स्वरूप तुम्हारा जन्म राम नवमी को 
चाहे अन्दर बेबसी, विवशता का एक दावानल सुलग रहा हो 
आज के रावणों से त्रस्त होकर 
या तुम खुश हो इन हालातों को देखकर 
प्रतीक स्वरूप राम नवमी मनाये जाने को देखकर 
इसलिये नहीं होता अब तुम्हारा अवतरण धरा पर 

हे राम ! आज रामनवमी पर 
तुमसे ये प्रश्न तुम्हारे जीव पूछ रहे हैं 
अगर दे सको जवाब तो जरूर देना ………हम इंतज़ार में हैं 

रविवार, 14 अप्रैल 2013

कृष्ण ! तुम्हारा चरित्र भी संदिग्ध की श्रेणी में आ गया है


कृष्ण !
तुम्हारा चरित्र भी संदिग्ध की श्रेणी में आ गया है
जानते हो क्यों
तुम्हारे ही कार्यों के कारण
पाठ तो तुमने अच्छे पढाये
उपदेश भी अच्छे दिये
मगर उनमें तुम्हारा दोगलापन ही नज़र आया
एक तरफ़ ये कहना
सब कुछ छोड मेरी शरण आ जा
मैं तेरा योगक्षेम वहन करूँगा
और जब जीव ऐसा करता है
तो भी कहाँ तुम्हें चैन पडता है
कहाँ उसे चैन से रहने देते हो
डाल ही देते हो उस पर
उसकी बुद्धि पर अपनी माया का परदा
और भटका देते हो जीवन की भूलभुलैया में
एक तरफ़ कहते हो
ये जीवन दे रहा हूँ
अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहो
और मन मुझे अर्पण कर दो
ज़रा बतलाना कैसे संभव है
दो बातों का एक साथ होना
कैसे संभव है मन कहीं और रखना और तन कहीं और
जबकि कार्य कोई भी हो
जब तक पूरे मनोयोग से  ना किया जाये
सफ़लता कहाँ मिलती है
और जब मन तुम्हें दे दे कोई
तो केवल तन से किये कार्य का क्या कोई औचित्य रह सकता हैं
कहना , उपदेश देना आसान है
क्योंकि
तुमने जीव की सारी डोरियाँ
अपने हाथों में रखी हैं
और उसे अपने माया के फ़न्दे में उलझा रखा है

वैसे सुनो 
चाहते तो तुम भी हो 
कि तुम्हें जीव सबकुछ बिसरा कर चाहे
सिर्फ़ तुम्हें और किसी को नहीं
मगर कभी सोचा तुमने 
जब तुम अदृश्य हो , आभासी हो 
तो कैसे सच्चा प्रेम चाह सकते हो 
कोई कैसे सच्चा प्रेम कर सकता है 
चाहत सच्चे प्रेम की
और रहना आभासी बनकर
कैसे संभव है? 
जब तक ना दोनों तरफ़ वास्तविकता हो
एक सच और एक आभास 
और उनका मिलन ……संभव ही नहीं 
और यदि होगा भी तो स्थायी नहीं
स्थायित्व देने के लिये किसी भी संबंध को
दोनों तरफ़ से बराबरी पर पहल की जरूरत होती है 
तुम खेल ही गलत खेल रहे हो
चाल ही गलत चल रहे हो 
और शह और मात दोनों अपने हाथ में रख रहे हो  
बस खेलना जानते हो तुम
जीव से , उसकी भावनाओं से
क्योंकि तुम्हारे लि्ये खेल है ये सब
क्योंकि होता वही है जो तुम चाहते हो
तुम कहाँ किसी को खुशी देकर खुश होते हो

जहाँ भी ज़रा सी किसी की खुशी का इल्म होता है 
उसे नेस्तनाबूद करना तुम्हारा परम लक्ष्य होता है
पहले इंसान का सब छीनते हो
उसकी हर खुशी, हर चाहत यहाँ तक कि उसका प्रेम भी

पता नहीं कौन सी गांठ है तुम्हारे भी दिल में
पता नहीं कौन सी कसक है
जिसका बदला सारे जहान से लेते हो
इसलिये तो यदि कभी कुछ देते भी हो
तो उसमें दर्द की थोडी सी
खटास भी डाल देते हो
ये देना भी कोई देना होता है

और थक हार कर संसार को नि:सार जानकर
जब वो तुम्हारी तरफ़ आता है और यदि वो तुम्हारी तरफ़ मुड जाता है
और तुम्हें चाहता है, अपना सर्वस्व मानने लगता है
अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पित कर देता है
तब अनगिनत परीक्षायें लेने के बाद
उसे मालामाल करते हो हर तरह की चीजों से
जिसका उस वक्त तक आते - आते
उसके लिये कोई मोल नहीं रह गया होता
जिसके लिये उसके दिल में कोई चाहत नहीं रह गयी होती
उस वक्त तुम सब देते हो
ज़रा सोचना उस देने का क्या फ़ायदा जब चाहतें ही मर चुकी हों
"क्या वर्षा जब कृषि सुखानी "
इस तरह देकर तो तुम सिर्फ़ खुद को संतुष्ट करते हो
ये सोचकर कि
इसे इतना दुख दिया तब भी इसने मुझे नहीं छोडा
अब इसे थोडा आराम देना चाहिये
इसके प्रेम का थोडा मोल देना चाहिये
और उस उधार को चुकाने के लिये ही
तुम ये प्रपंच रचते हो और खुद को महान सिद्ध करते हो
ज़रा सोचना
पहले किसी से सब छीनना
उसके हर स्पंदन को मिटा देना
हर नमी के स्रोत को खत्म कर देना
उसके बाद जब उसमें कुछ बचे नहीं
तब देना और उसे अपनी कृपा सिद्ध करना
तुम्हारे दोगले चरित्र को तो नहीं परिभाषित कर रही
क्यों नहीं रची ऐसी सृष्टि जिसमें
सब तुम्हें ही चाहते
क्योंकि
चाहत की प्यास तो तुम्हें भी है ना
तभी तो ये सारा खेल रचते हो
और सारी डोरियाँ अपने हाथ रखते हो
जिसे जैसा चाहे जहाँ चाहे घुमाते हो
और फिर दोष जीव के सिर मढते हो
नहीं ………नहीं पसन्द आया तुम्हारा ये दोगलापन
नहीं पसन्द आयी तुम्हारी ये टेढी चाल
नहीं लगा ये तुम्हारी परम कृपा का कोई रूप
ये तो तुम्हारा सिर्फ़ खुद को सिद्ध करने का प्रपंच भर लगा
क्योंकि
होगा तो वो ही जो तुम चाहते हो
ऐसे में क्यों जीव को बुद्धि और मन देते हो
और भ्रम की स्थिति में डाल देते हो
ना देते …………कम से कम दो घडी चैन से हम जी तो लेते
अब ना जी पाते हैं ना मर पाते हैं
बस जाल में फ़ँसे पंछी से फ़डफ़डाते हैं
अब इसे दोषारोपण समझो या शिकायत
मर्ज़ी तुम्हारी
हमने भी आज अपनी बात कह ही दी
जैसे तुमने गीता में कही या अन्य पुराणों में
उसी तरह आज जब तुम्हें जानने लगे हैं
तुम्हारे दोहरे चरित्र को पह्चानने लगे हैं
तब पता चला ………
सब कुछ लूट कर, बर्बाद करके , तडपने को छोड देते हो…………कितने बडे ठग हो तुम!!!
कभी विचारना इन बातों पर भी
क्यों दुनिया बनाई
क्यों दिल बनाया
क्यों धडकन बनायी
और फिर उसमें प्रीत की पींग बढायी
जब जीव को कर्ता बनाना ही नहीं था
क्योंकि
कारण , कार्य और कर्ता सब तुम ही तो हो …………
और ऐसे मे यदि जीव सिर पटक कर भी यदि मर जाये
तुम पर कोई असर नहीं होता
क्योंकि
तुमने तो खुद को निर्लेप सिद्ध किया हुआ है
तुमने तो खुद को निर्विकार सिद्ध किया हुआ है
तुमने तो खुद को कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम सिद्ध किया हुआ है
देखा दोनो तरफ़ से खुद को बचा गये
और जीव को फ़ँसा गये
फिर चाहे जीव के हाथ में कुछ नहीं दिया है
मगर उसकी बुद्धि पर अपनी माया का ऐसा परदा किया है
जितना अन्दर घुसता है उतना ही धँसता जाता है
कितनी गहरी दलदल है तुम्हारे चरित्र की
सिर्फ़ अपने "मै" को सिद्ध करने के लिये ………आह !
बहुत कह दिया ………अब और क्या कहूँ
समझ सको तो समझ लेना मेरे भावों को
और सोचना बैठकर ………क्या गलत कहा मैने?



सुनो 
कर सको तो इतना करना 
मत देना मानव जन्म फिर से 
भले हैं हम बिना बुद्धि और मन के 
जड जीव या जन्तु बनकर ………
कम से कम तुम्हारी दोगली चालों से तो मुक्त रहेंगे 
कम से कम दर्द के हिंडोलों में तो ना झूलेंगे 
नहीं चाहिये तुम्हारी ऐसी कृपा जो अकृपा सिद्ध होने लगे
नहीं बनना जिसमे 
"दुनिया हमें पागल कहे तो हम पागल ही अच्छे हैं "
की किंवंदंती 
क्योंकि
कहते हैं 
देखा सुना भी झूठ होता है
मगर जिससे व्यवहार किया हो
जिसे जाना हो वो झूठ नहीं होता 
और अब हम जान चुके हैं जब से तुमको 
और जानने की चाहत ही नहीं बची………

ए ……मत देना इसे परीक्षा का नाम
और मत चढाना हमें इस नाम पर वक्त की सूली पर 
अब इन चक्करों में नहीं फ़ंसने वाले हम 
समझ चुके हैं तुम्हें भी और तुम्हारे "मैं" को भी 
सिर्फ़ अपने होने को सिद्ध करने के लिये
अपने "मैं" के पोषण के लिये
संसार का निर्माण करना
उसका पालन करना
और फिर विध्वंस करना शगल है तुम्हारा 
जीव हूँ ………इसलिये मूक हूँ
ईश्वर हो तुम ………इसलिये मुखर हो 
मजबूर हैं हम क्योंकि परतंत्र हैं
ईश्वर हो तुम, कर्ता हो तुम ……इसलिये स्वतंत्र हो 
कभी परतंत्रता की बेडियों मे जकडे होते तो जाना होता हमारा दर्द ……आसान है ईश्वर होना और मुश्किल है जीव होना 
कभी विचारना इस पर भी
और हो कोई उत्तर तो देने की कोशिश करना …इंतज़ार रहेगा!!!

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे

 
 
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे
जल्दी आ मन उपवन मे ………नैना भये उदासे
साथ मे मोहन को भी लाना
हिल मिल फिर बंसी बजाना
करो कलोल मिल बांके
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे



मेरे मन मधुबन मे डेरा लगाना
श्याम के संग रास रचाना
मुझे भी अपनी सखी बनाना
मधुर रस बरसा के
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे



अव्यक्त को व्यक्त कर जाना
मुझे भी अपना दरस कराना
प्रेम रस ज़रा छलकाना
प्रेम सुधा के हम प्यासे
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे




शनिवार, 6 अप्रैल 2013

"संशयात्मा विनश्यति" सूक्ति को चरितार्थ करने का वक्त आ गया है


लगता है टूटने का , बिखरने का , मिटने का वक्त आ गया है 
किसी छलिया के छल में सिसकने का वक्त आ गया है 
वो जो कहता था तू मेरी और एक कदम बढा  कर तो देख 
मैं साठ  कदम आगे आ जाऊंगा उसी के 
भरमा के ,आँख चुरा के,  कतरा के निकल जाने का वक्त आ गया है 
लगता है 
"संशयात्मा  विनश्यति" सूक्ति को चरितार्थ करने का वक्त आ गया है 

लो देखो कैसा संशयों का बवंडर उठाया है 
जिसमे तुम पर भी आक्षेप लगाया है 
ये मेरा नहीं तुम्हारा है इम्तिहान 
इससे पार लगाने में ही है तुम्हारी जीत 
और इसमें डुबाने में भी है तुम्हारी ही हार 
अब इस क्रिया की प्रतिक्रिया देने का वक्त आ गया है 
नहीं तो .......मान लेना 
"संशयात्मा   विनश्यति" सूक्ति को चरितार्थ करने का वक्त आ गया है 

क्योंकि 
भ्रमों का जाल भी तुम 
संशयों का निवारण भी तुम 
आक्षेपों का रूप भी तुम 
समाधान का स्वरुप भी तुम 
जब तुम ही तुम सब ओर 
कार्य ,कर्ता और कारण 
सब तुम ही तुम 
तो बताना ज़रा .........."मैं " कहाँ ?
फिर भी अपराधी मुझे बनाया है 
और अपने कटघरे में सजाया है 
ये कैसी तुम्हारी माया है 
जो निरपराध पर कहर ढाया है 
तभी तो संशय रूप में अवतार ले 
बीच भंवर में डुबाया है 
ओह सांवरे ! तूने खुद को बचाने 
और हमें मिटाने का क्या खूब सामान जुटाया है 
और हमें त्रिशंकु सा लटकाया है 
बता किधर जाएँ .........अब किधर जाएँ 


या तो खुद को बचाने  का सामान जुटा लेना 
नहीं तो मान लेना 
संशयों, भ्रमो में उलझाना और फिर मिटाना 
यही है तुम्हारा काम 
और जान लो 
ये विनाश ये नाश भी तुम्हारा है 
क्योंकि मेरे "मैं" का तो अस्तित्व ही नहीं है 
सिवाय तुम्हारे होने के 
इसलिए कहती हूँ 
"संशयात्मा  विनश्यति" सूक्ति को चरितार्थ करने का वक्त आ गया है 

और आज उसी कगार पर खडी मैं 
जवाब के इंतज़ार में ………तुम्हारी ओर निहार रही हूँ 
क्योंकि सिर्फ़ यहीं तक तो वश है मेरा 

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

कैसे मीमांसा करे कोई



तुम अग्निवेश हो
कैसे मीमांसा करे कोई
जलाकर खाक करने की
तुम्हारी नियति रही
कैसे नव निर्माण करे कोई
विध्वंसता तुम्हारा गुण रहा
क्या हुआ जो कभी तुमने
रोटी को पकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
दूध को औंटा दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
यज्ञ को सम्पूर्ण किया
क्या हुआ जो कभी तुमने
ताप सेंकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
सहला दिया
रूप को प्रतिरूप किया
कभी वीभत्स तो कभी
रौद्र रूप दिखा दिया
तो कभी वर्षा ऋतु का
श्रृंगार किया
और नेह का मेह बरसा दिया
क्योंकि
नियमानुसार कहो या
परम्परानुसार तो
तुम्हें विनाश का ही है
दायित्व मिला
और अपने कर्त्तव्य से विमुख
होना तुमने कब है सीखा
दाहकता को प्रमाणित करने की
कब किसे जरूरत पड़ी
ताप ही काफी है महसूसने के लिए
फिर कहो तो ज़रा
कैसे तुम्हारी व्याख्या हो
तुम गौर ब्राह्मणीय  नहीं
तुम कोई अवतार नहीं
एक अजस्र फैले व्यास के आधार नहीं
सब कुछ समा लेने की तुम्हारी नियति
अपने गर्भ में समेटता तुम्हारा
ओजपूर्ण विग्रह
एक श्वांस में समाहित करने की
तुम्हारी क्षमता
भयंकर आर्तनाद करती हुँकार
व्याकुलता , विह्वलता के साथ
समाहित भय के त्रिशूल
जीवन और जीव को भेदती
लपलपाती जिह्वा
दाढ़ों में फँसी कुंठाओं का
जीता जागता स्वरुप
काल के गाल में जाता
समय का पहिया
महाविनाश का तांडव करती
विनाशकारी रूपरेखा का
अद्भुत चमत्कृत सौंदर्य
दहलाती वाणी का आर्तनाद
कैसे तुम्हें व्याख्यातित किया जा सकता है
फिर किस बुनियाद पर तुम्हारा
आत्मावलोकन हो
क्योंकि
अग्निवेश से आवेष्ठित चरित्रों पर
छाँव नहीं हुआ करती ............दहकती दाहकता ही अवलोकित होती है
उस  विरल विराट विग्रह के दर्शन यूँ ही नहीं हुआ करते
और अर्जुन बनना सभी की सामर्थ्य नहीं ............ओ केशव विराट रूप!!!