ज़िन्दगी के अस्तबल का
बेलगाम घोडा
तमन्नाओं, आरजूओं ,
हसरतों के रथ पर
रथारूढ़ हो
पवनवेग से
दौड़ता जाता है
कहीं कोई अंकुश नही
बेपरवाह, लापरवाह
वक़्त के सीने पर
पाँव रख
आसमान को
छूने की
चाहत में
बिन पंख उड़ा जाता है
मगर एक दिन
पंख कटे पंछी की
मानिन्द
यथार्थ के धरातल पर
जब फडफडा कर
गिरता है
उस पल
हर आरजू, हर ख्वाहिश
धूल धूसरित हो जाती है
और वक़्त के हाथों
घायल ये जर्जर मन
अपने अस्तित्व बोध
को प्राप्त हो
अन्तस्थ में विलीन
हो जाता है
पेज
बुधवार, 27 जनवरी 2010
मंगलवार, 5 जनवरी 2010
खोज अस्तित्व की
अंतस में दबी चिंगारी
खुद की पहचान
ना कर पाने की
विडंबना
ह्रदय रसातल में दबे
भावपुन्ज
घटाटोप अँधेरे की चादर
बिखरा -बिखरा अस्तित्व
चेतनाशून्य मस्तिष्क
अवचेतन मन की
चेतना को खोजता
सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा
भावनाओं के सागर पर
रथारूढ़ हो
प्रकाशपुंज तक
पहुंचा नही जाता
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
खुद की पहचान
ना कर पाने की
विडंबना
ह्रदय रसातल में दबे
भावपुन्ज
घटाटोप अँधेरे की चादर
बिखरा -बिखरा अस्तित्व
चेतनाशून्य मस्तिष्क
अवचेतन मन की
चेतना को खोजता
सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा
भावनाओं के सागर पर
रथारूढ़ हो
प्रकाशपुंज तक
पहुंचा नही जाता
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
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