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रविवार, 27 दिसंबर 2015

मौन का कुम्भ

लगता होगा कुम्भ
हर बारह बरस में
मगर
मेरे मौन का कुम्भ तो
महीनों दिनों और पलों में
होकर विभक्त
अक्सर टोहता रहता है मुझे
और मैं
अपनी शिथिल इन्द्रियों
शिथिल साँसों संग
लगा लेती हूँ डुबकी
अनंत में
अनंत होकर

बस यही तो है मेरा विस्तार और शून्य

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

गोपीभाव 2

सुना है
खिले कँवल ही देवता को अर्पित किये जाते हैं

मन तो मर चुका
तुम्हारे जाने के साथ ही
अब इस मिटटी से कौन सा खिलौना बनाओगे और खेलोगे ?

जलती चिता होती
तो सुलगती रहती उम्र भर
डालती रहती उसमे
तुम्हारे निष्ठुर प्रेम की आहुति
मगर
यहाँ न राख है न चिता

खुद भी शक में हूँ
जिंदा होना केवल साँस लेना भर तो नहीं होता न

और मन की मौत होने पर
तुम चाहे सारे ज़माने की सबसे खूबसूरत चीजें रख दो
नहीं फूँक पातीं
ज़िन्दगी का मन्त्र

अब न कोई कामना है न चाहना
न तुमसे कोई गिला न शिकवा
सच पूछो तो
रोते हैं नैन तड़पता है दिल
मगर फिर भी नहीं दे पाती
कोई उपालंभ

वक्त की चिकोटियों से हैरान हूँ
या फिर
शायद
एक महाशून्य में अवस्थित हूँ ... माधव


बुधवार, 18 नवंबर 2015

तुम क्या हो ...एक द्वन्द



मैं स्वार्थी
जब भी चाहूँगी
अपने स्वार्थवश ही चाहूँगी

तुम्हारे प्रिय भक्तों सा नहीं है मेरा ह्रदय
निष्काम निष्कपट निश्छल
जो द्रवित हो उठे तुम्हारी पीड़ा में
और तुम उनके लिए नंगे पाँव दौड़े चले आओ

जो तुम्हें दुःख न पहुंचे
इसी सोच के कारण साँस लेते भी डरे 
या फिर तुम्हारे मानवीय अवतार लेने से
पृथ्वी पर दुःख सहने से
खुद भी अश्रु बहाने लगें 
और कहने लगें
प्रभु ! मुझे अधम , पापी के कारण बहुत दुःख पाया आपने

न , न , मोहन ऐसा नहीं चाह सकती तुम्हें
नहीं है मुझमे मेरी चाहतों से परे कुछ भी
जानते हो क्यों
क्योंकि
ज्ञान की डुगडुगी सिर उठाने लगती है
कि तुम तो निराकार , निस्पृह , निर्विकार परम ब्रह्म हो
तो तुम्हें कैसे कोई दुःख तकलीफ पीड़ा छू सकती है
तुम कैसे व्यथित हो सकते हो
और मैं दो नावों में सवार हो जाती हों
जब भी तुम्हारे दो रूप पाती हूँ
साकार और निराकार
और हो जाती हूँ भ्रमित

बताओ ऐसे में कैसे संभव है
तार्किक और अतार्किक विश्लेषण
कैसे संभव है
एक तरफ तुम्हें चाहना
तुम्हारी मोहब्बत में बेमोल बिक जाना
तो दूसरी तरफ
तुम्हारे निराकारी निर्विकारी स्वरुप को आत्मसात करते हुए चाहना

क्योंकि
हूँ तो अज्ञानी जीव ही न
जो तुम्हारा पार नहीं पा सकता
और मेरा प्रेम स्वार्थी है
पहले भी कह चुकी हूँ
आदान प्रदान की प्रक्रिया ही बस जानती हूँ
एकतरफा प्रेम करना और निभाये जाना मेरे लिए तो संभव नहीं
उस पर तुम दो रूपों में विराजमान हों
ऐसे में तुम्हारे भ्रमों की उलझन में उलझे
मेरे दिल और दिमाग दोनों ही
द्वन्द के सागर में अक्सर डूबते उतरते रहते हैं
और मैं इस भंवर में जब खुद को घिरा पाती हूँ
सच कहती हूँ
तुम्हारे अस्तित्व से ही निष्क्रिय सी हो जाती हूँ
कभी तुम्हें तो कभी खुद को बेगाना पाती हूँ
तभी तो कहती हूँ मोहन
तुम्हें चाहना मेरे वश की बात नहीं ..

तुम क्या हो 

एक द्वन्द 
या उससे इतर भी कुछ और 
बता सकते हो ?

बुधवार, 4 नवंबर 2015

यदि आज मैं मर जाऊँ

यदि आज मैं मर जाऊँ
कुछ भी तो नहीं बदलना
सिवाय कुछ जिंदगियों के
जहाँ कुछ वक्त एक खालीपन उभरेगा
वो भी वक्त के साथ भर जाएगा
अक्सर मन में उठते इस विचार से
होती है जद्दोजहद
तो फिर जीवन का आखिर क्या है औचित्य ?

क्या सिर्फ इतना भर
पैदा होओ , कमाओ धमाओ
बच्चे पैदा करो
उनका पालन पोषण करो
और फिर एक दिन
तिरस्कृत हो जीवन से कूच कर जाओ
क्या सिर्फ इसीलिए
एक पूरे जीवन की जद्दोजहद ?

कभी छल प्रपंच
कभी बेईमानी , कभी झूठ
कभी अत्याचार के परचम तान
खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करना
जबकि अंत तो एक ही है
मृत्यु से कौन बचा है
फिर किसलिए डर आतंक का साम्राज्य
जब कुछ भी स्थायी नहीं
यहाँ तक कि खुद का होना भी ?

चाहतों के अम्बार लगा
आखिर किस आसमान पर उगायें उपवन और क्यों ?
जबकि
नश्वरता ही है अंतिम सत्य

मुझे मेरा होना प्रश्नों के कटघरे में अक्सर खड़ा कर देता है
और उत्तर में सिर्फ एक आश्रय
या तो कीर्ति की पताका ऐसी फहराओ
जन्म जन्मान्तरों तक न मिटे
या फिर
गिरधर से प्रीत लगा मीरा सूर कबीर तुलसी बन जाओ
जो आवागमन ही छुट जाए
या फिर
ज्ञान का दीप जला लो
हर तम मिट जाए
खुद का आभास हो जाए

और मैं बावरिया
किसी भी आन्तरिक तर्क से
खुद को नहीं कर पाती संतुष्ट
क्योंकि
येन केन प्रकारेण
नश्वरता ही है जब अंतिम सत्य
तो फिर किसलिए इतना उद्योग ?

खाली हाथ आना जाना
तो मध्य में क्यूँ खुद को भरमाना ?

उत्तर जानते हुए भी हो जाती हूँ अक्सर निरुत्तर
और खोज के पर्याय फिर निकल पड़ते हैं प्यास के रेगिस्तान को खोदने ...

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

गोपिभाव 1




सुना है
तुम्हें खेलने का बहुत शौक रहा
खेलने आये और खेल कर चल दिए

अब
यहाँ कोई मौसम नहीं ठहरता

हम नहीं जानतीं सच और झूठ
जीवन और मृत्यु
तुम थे तो जिंदा थीं हम
अब तुम नहीं तो
क्या तुम्हें जिंदा दिखती हैं हम ?

न, न , कोई अनुनय विनय नहीं तुमसे
कोई शिकवा शिकायत नहीं तुमसे
सोच में हैं
क्या मज़ा आता है तुम्हें
पहले पुचकार कर
फिर दुत्कार कर

हाँ , हाँ  , दुत्कारना ही तो हुआ न ये भी
जब तुम्हें अपना बना लिया
जब तेरे हम हो लिए
तभी तुमने मुख मोड़ लिए

अब कहाँ जाएँ
जो जिया की जलन मिट जाए
अब कहाँ पायें
जो अंखियों की हसरत पूरी हो जाये

सुनो जानती हैं हम
तुम दूर नहीं हमसे
हम दूर नहीं तुमसे
मगर बताओ तो जरा
वो रास रंग फिर से कहाँ पायें
जो तेरी मुरली की धुन सुन
दौड़ी दौड़ी चली आयें
घर परिवार को भी बिसरा आयें

ए मोहन ! तुम प्रेम निभाना क्या जानो
तुम हिय में उठती अगन क्या जानो
तुम किसी का होना क्या जानो
तुम किसी के लिए मिटना क्या जानो

यहाँ दिन नहीं होते अब 

सूरज नहीं निकलता अब
एक अरसा हुआ
तुम्हारी तरह ही काली अंधियारी रात्रि ने डेरा डाला हुआ है
और
हम जानती हैं
अब इन अंधेरों की कोई सुबह नहीं .....................

तुम तो गए वक्त से गुजर गए
हमारे साँझ सवेरे भी साथ ले गए 

आज शरद की पूनो फिर आई है 
चाँद अपनी पूर्णता पर इठला रहा है 
जो तुम सामने होते तो
रास की मधुर बेला में रास रचा हम भी इठलाते , पूर्णता पा जाते 
और कुछ पल जी जाते ........


अब इसे खेल न कहें तो क्या कहें ........बोलो तो ज़रा !!!



सोमवार, 21 सितंबर 2015

रंग सांवला होने लगा है











निहारूँ छवि जब जब आईने में 
खुद को न पहचान पाऊँ 
रंग सांवला होने लगा है 
सखी री 
जियरा बावरा होने लगा है 

कोई पिया बसंती छुप गया है 
मेरा रंग रूप ले उड़ गया है 
कित खोजूँ मैं रंग की गागर 
जो मिल जाये खोया यौवन 
ये कैसा पिया से आलिंगन हुआ है 
श्याम रंग मेरा हो गया है 

प्रीत के रंग की गुलाबी गागर में 
जियरा मेरा उलझ गया है 
श्याम से मिलन को तरस गया है 
यूं ही नहीं सलोना रंग मेरा हुआ है 
श्याम का ही मुझ बावरिया पर 
सखी री
शायद परछावां पड़ा है 
तभी तो तन मन सब 
श्याममय हुआ है 

अब की श्याम ने 
ये कैसा रंग डाला
रंग सांवला होने लगा है 
सखी री 
जियरा बावरा होने लगा है 

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

आओ के बतियाओ मुझसे

चुप्पी खलनायिका सी सोच के कूपे में धरना दिए बैठी है . ..... कहने सुनने को कुछ नहीं बचा , अगर है तो एक विरक्ति सी जहाँ जो है जैसा है ठीक है , जो हो रहा है ठीक हो रहा है ..........सोचने समझने की फसल को मानो पाला पड़ गया हो और एक ठूंठ अकड़ा खड़ा हो मानो कहता हो कर लो जो तुमसे हो सके ........नहीं हिला सकते तुम मेरी अटल भक्ति को अपनी कोशिशों के पहाड़ से ..........

ये कोई वैराग्य नहीं है और न ही भक्ति की कोई अवस्था ......... न ही दीन हीनता उभरी है बस एक तटस्थता ने बो दिए हैं बीज अपने ........ कोई नहीं है जो ध्यान दे और मुझे चाहिए एक साथ जो अंतर्घट के किवाड़ों को झकझोर डाले , खोल डाले भिड़े हुए कपाट और करा दे दुर्लभ देव दर्शन .........शायद टूट जाये चुप्पी का कांच

खुद को समझना कभी कभी कितना मुश्किल हो जाता है तो फिर व्यक्त करना कैसे संभव है ..........ऐसे में करने चल देते हैं दूसरों का आकलन जबकि खुद को ही किसी भरोसे नहीं छोड़ सके , खुद के अस्तबल में ही हिनहिनाते चुप के घोड़ों से ही नहीं गुफ्तगू कर सके ..........ऐसे में कैसे संभव है ' आखिर मैं चाहती / चाहता क्या हूँ ' की व्याख्या ?

एक घनघोर निराशा का समय नहीं तो और क्या है ये ? या फिर ये सोच में पड़े कीड़ों के कुलबुलाने का समय है जो जब तक मरेंगे नहीं , नए जन्मेंगे नहीं ? या फिर हरे कृष्ण करे राम जपने का वक्त है ये ? या फिर सब जिरहों से आँख मूँद खुद से संवाद करने का वक्त है ये ?

एक अकारण उपजी त्रासदी सी चुप के अंकुश से कुम्हलाई हुई है सारी बगिया फिर किसी एक फूल की फ़िक्र कौन करे ........

आओ के बतियाओ मुझसे
आओ के रो लो कुछ दुःख मुझसे
आओ के गुनगुना दो कुछ मुखड़े अपने गीतों के
कि शायद खिल जाए अमलतास वक्त से पहले
कि रूठी हुई नानी दादी की कहानी सा मिल जाए कोई शख्स मुझसे
और मैं अपने चुप के कोठार पर जला दूं एक दीप
उमंगों का , तम्मनाओं का , संभावनाओं का

कि शायद गणगौर के गीतों सी उभर सके इक आभा मुझमे ...

शनिवार, 5 सितंबर 2015

आज तो बहुत बिजी होंगे तुम



आज तो बहुत बिजी होंगे तुम
चारों तरफ तुम ही तुम
तुम्हारी ही पूछ
नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने दे रहे होंगे .....है न

खुश तो बहुत होंगे
अच्छा लगता है न
जब हर तरफ अपनी ही पूछ हो
कुछ ख़ास हों एक दिन के लिए

मगर कभी सोचा
वो कहाँ जाएँ , कहाँ पायें तुम्हें
जिनके सिर्फ तुम ही एक आधार थे
तुम थे तो धड़कन थी
तुम थे तो श्रृंगार था
तुम थे तो जीवन था
ये किस तपते रेगिस्तान में छोड़ गए हो
जहाँ दूर दूर तक प्यास के पंछी फडफडाते दिखते हैं
और प्यास द्रौपदी के चीर सी नित निरंतर बढती जाती है
मगर तुम्हें न कहीं पाती है

सोचा कभी
जिनका कोई आधार नहीं होता
उसके एकमात्र आधार तुम ही हो ......कहा था तुमने
और जब तुमने ही पाँव के नीचे से जमीन खिसका ली
बताओ तो जरा
कहाँ ठौर पायें वो गुजरिया
कैसे जन्मदिन मनाएं तुम्हारा सांवरिया
जब तुम ही सामने न हों ..........

और मैं हूँ ही कौन तुम्हारी
जो नज़र में तुम्हारी जगह बना पाती
और उम्र मेरी उसी में गुजर जाती

जाओ खुश रहो मोहन
मनाओ ठाठ से अपना जन्मदिन
हमारा क्या है
कल भी ठूंठ थे आज भी ठूंठ ही हैं
और फिर एक मेरे न होने से
कोई कमी न होगी तुम्हारी महफ़िल में

मेरी प्रीत ने तो अभी कच्चा स्नान किया था
फिर कैसे तुमने मुख मोड़ लिया ?
कभी सोचना इस पर भी फुर्सत में
आज तो बहुत बिजी होंगे तुम ...........सांवरे !!!

वैसे भी हर किसी का अपना दिन होता है
और आज तुम्हारा दिन है
वैसे कह सकते हो ........ हर दिन तुम्हारा ही तो है
फिर भी
आता है एक दिन तेरे चाहने वालों का भी
जिस दिन तू कटघरे में खड़ा होता है
और मुझे इंतज़ार है उसी दिन का ...........

जन्मदिन मुबारक हो श्याम ........

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

प्रतिकार की चिता पर

सच और झूठ दो सिरे .......कभी इधर गिरे तो कभी उधर गिरे ........करने वाले पैरवी करते रहे....... चारों तरफ फैली भयावह मारकाट के इस वीभत्स समय में कशमकश के झूले पर पींग भरते रहे मगर आकलन के न हल निकले .........ये कैसा वक्त ने मांग में सिन्दूर भरा है हर तरफ सिर्फ लाल रंग ही बिखरा पड़ा है फिर वो चाहे किसी की तमन्नाओं का हो या किसी की इज्जत का या किसी के मान का या किसी को जड़मूल से ख़त्म कर देने का, या फिर झूठ के बुर्ज तैयार कर देने का.............वक्त की दुल्हन इतरा रही है ये देख देख कि सच का पेंडुलम हाशिये पर खड़ा है तो झूठ का अपनी दावेदारी में अग्रिम पंक्ति में खड़ा मुस्कुरा रहा है.........' चलो हवा में उड़ा दें धूप और बारिश को ये वक्त की साजिशें हैं वक्त को ही सुलटने दो.....तुम तो बस अपने गेसुओं को मोगरे से महकने दो' ........चलन है आज का तो साथ चलना ही पड़ेगा आखिर प्रतिकार की चिता पर कब तक सुलगे कोई ?

शनिवार, 29 अगस्त 2015

गोपीभाव



गोपीभाव
**********
न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन

न मिलने की चाह रही
न बिछड़ने की परवाह रही
उमंगों के घोड़े रुक गए
जाने कहाँ तुम छुप गए

जब से किया किनारा है
मेरा न कोई दूजा सहारा है
अब बिरहा की मारी जाएँ कहाँ
तुम्हारी वो अलौकिक छवि पायें कहाँ
यूं सोच सोच बेजार हुईं
हम तो खुद को तुम पर हार गयीं

न वो सांझ सकारे रहे
न वो मधुबन के द्वारे रहे
न वो रास रंग की बतियाँ रहीं
न वो तुम संग बीतीं रतियाँ रहीं
न वो हास - विलास रहा
न वो पहला सा उल्लास रहा
जब से गए हो परदेस मोहन
अपना पता भी भूल गया
तभी तो कहता है ह्रदय हमारा
न ख़ुशी न गम
तटस्थ सा हो गया मन.......... मोहन !!!

मेरा हर ख़ुशी हर गम
सिर्फ मोहन से रति
यही है मेरे प्रेम की परिणति


सोमवार, 10 अगस्त 2015

है न यही स्थिति

मैं और तू कहूँ
या तू ही तू कहूँ
या मैं ही मैं कहूँ 
भाव तो दो का ही बोध कराता है 

जब न मैं हो न तू 
बस प्रेम ही प्रेम हो 
बोध से परे 
आनंद ही आनंद हो 
वही तो परमानन्द है 
वही तो प्रेम है 
वही तो निराकारता है 

है न यही स्थिति तुम्हें पाने की , तुम में समाने की .........कृष्णा ! मोहना ! माधवा !

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मन की वीणा

मन की वीणा विकल हो रही है
तुम्हारे दरस की ललक हो रही है

जाएँ तो जाएँ कहाँ गुरुवर
ज्ञान का दीप जलाएं कहाँ

आत्मदीप अब जलाएं कहाँ
चरणकमल कृपा अब पायें कहाँ

मेरे मन में बसा अँधियारा था
गुरु आपने ही किया उजियारा था

अब वो प्रेमसुधा हम पायें कहाँ
कौन प्रीत की रीत निभाये यहाँ

मेरे मन की तपन कौन बुझाए यहाँ
गुरुवर कौन जो तुमसे मिलन कराये यहाँ

ये बेकल मन की अटपटी भाषा
तुम्हारे बिन कोई समझ न पाता

अब ये भावों की समिधा चढ़ाएं कहाँ
गुरुदरस की लालसा मिटायें कहाँ

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अब कैसे बीते ये उम्र सारी




अब कैसे बीते ये उम्र सारी
अब तो लगी है प्यारे लगन तुम्हारी
लगन तुम्हारी , लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते -------

१) छोड़ गए हो मझधार कन्हाई
रो रो हारी ये गोपियाँ बेचारीं
अब कहाँ जाएँ , बिरहा की मारीं
अब तो लगी है मोहन लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते ----------

२) दिन हैं पतझड़ रात वीरानी
तुम्हारे बिना न लागे , कोई ऋतू प्यारी
दरस दीवानी फिरें , गली गली मारीं
अब तो लगी है श्याम लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते --------

३) मन की कुञ्ज गलिन में कब आओगे मुरारी
सूनी पड़ी है प्यारे , अटरिया हमारी
कहाँ खोजें अब तुम्हें हम, किस्मत की मारीं
अब तो लगी है प्यारे लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते ये उमरिया सारी

४) घर आँगन न , अब भाये बिहारी
बिरहा की घड़ियाँ दहकें रह रह मुरारी
किस आस पे गुजरे, अब ये उम्र सारी
कहाँ छोड़ गए हो , हे कृष्ण मुरारी
गली गली फिरतीं  , बिरहा की मारी
अब कैसे बीते ................

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ?



ओ कृष्ण 
नहीं मालूम तुझसे 
खुश हूँ नाराज या तटस्थ 
बस कहीं न कहीं 
अन्दर ही अन्दर हो गयी हूँ घायल मैं 

और तुम जानते हो वजह 
बेवजह कुछ नहीं होता 
सुना था कभी 
मगर वजह भी नहीं समझ आई 

या तो मिलते ही नहीं 
मिले तो बिछड़ते नहीं 
ये आँख मिचौली खेलने को 
तुमने मुझे ही क्यूँ चुना 
कभी समझ न पायी मैं 

तुम्हारे होने और न होने के चक्रव्यूह में घिरी मैं 
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा करती हूँ 
सुना है 
तुम्हारे पास हर प्रश्न का उत्तर होता है 
तो देना जवाब यदि हो सके तो 

क्योंकि 
इस बार बात तुम्हारे अस्तित्व की है 
और मेरे द्वारा तुम्हें 
स्वीकारने और अस्वीकारने की 
कोरे भ्रम भर तो नहीं हो न तुम ?

होती होंगी तुम्हारी लीलाएं विलक्षण 
मगर यहाँ जो प्रेम रस की बहती 
अजस्र धारा सूख गयी है 
और रेत रह रह शूल सी सीने में चुभ रही है 
वहां मैं एक अंतहीन प्यास में तब्दील हो गयी हूँ 
कैसे करोगे साबित और भरोगे रीता घट 

और सुनो 
तुम्हारे रूप के सिवा दूजा रूप कोई निगाह में चढ़ता नहीं अब 
ऐसे में कैसे काजल की धार बन समाओगे फिर से नैनन में 

और सुनो 
ये तटस्थता आत्मबोध का पर्याय नहीं है 

बंजर जमीन को उपजाऊँ बनाने हेतु क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ?

शनिवार, 20 जून 2015

क्या चाहते हैं ?

क्या चाहते हैं ? 
क्या होगा यदि पूरी हो जायेगी ?
क्या दूसरी चाहत न जन्म लेगी  ?

बस इसी फेर में गुजरती ज़िन्दगी के सिलसिले 
एक दिन ऊबकर पलायन कर जाते हैं 
और खाली कटोरे सा वजूद 
भांय भांय करता डराता है 

पलायन 
आखिर कब तक ?
और किस किस से ?
यहाँ तो हर क्रिया कलाप पर कर्म का पहरा है 
क्या कर्म से विमुख हुआ जा सकता है ?
क्या कर्तव्य विहीन जीवन तटस्थ होकर जीया जा सकता है ?

तटस्थता 
यानि बुद्ध होना 
या कुछ और ?
अर्ध रात्रि में डराते प्रश्नों के कंकाल 

जबकि पता हैं उत्तर भी 
फिर भी 
प्रश्न हैं कि दस्तक दिए जाते हैं 

कपालभाति कितना ही कर लो 
जीवन योग के अर्थ अक्सर  नकारात्मक ही मिला करते  हैं 

आत्मिक यंत्रणाओं को मापने के अभी नहीं बने हैं यंत्र 
जहाँ मन बैरागी भी है उल्लासी भी 
जहाँ मन विरक्त भी है संपृक्त भी 


अनुलोम विलोम की जाने कौन सी परिभाषा है ज़िन्दगी ?

शनिवार, 13 जून 2015

तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं


सुनो कृष्ण 
बच्चे की चाँद पकड़ने की ख्वाहिश 
जन्म ले रही है 
अलभ्य को प्राप्त करने की चाह 
है न कैसा अनोखा जूनून 
जो असंभव है 
उसे संभव करने का वीतराग 
कलियों के चटखने के भी मौसम हुआ करते हैं 
और ये बे- मौसमी आतिशबाजी 
जाने कौन सा नगर रौशन करने की चाह है 
जिस पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगाती हूँ 
बार बार खुद को समझाती हूँ 
मगर ये बेलगाम घोडा फिर 
सरपट दौड़ लगाने लगता है 

"मंजिल पता नहीं मगर तलाश जारी है "
का नोटिस बोर्ड टंगा है 
कोशिश की तमाम बेलें 
सिरे चढ़ा चुकी 
पर ख्वाहिश है कि मानती ही नहीं 
उपहास का पात्र बनाने को आतुर है 
मगर मानने को नहीं 
कि 
सबको सब कुछ नहीं मिलता 
सिर्फ एक चाह बलवती हो जाती है 
"यदि चाहोगे तो मिलेगा जरूर "

सुना है तुम पूरा करते हो 
जो कहा वो भी 
और जो न कहा वो भी 
बस इसी फेर में पड़ी ख्वाहिश 
नित परवान चढ़े जाती है 

देखो हँसना मत 
जानती हूँ बचपना है 
मैं वो कण हूँ 
जिसका कोई अर्थ नहीं 
कोई स्वरुप नहीं 
फिर भी तुमसे न कहूं तो किस्से कहूं 
सोच 
आज कहने का मन बना ही लिया 
तो मोहन 
वैसे तो तुम जानते ही हो 
लेकिन बच्चा जब तक स्वयं नहीं मांगता 
माता पिता भी तब तक नहीं देते 
वैसे ही जब तक तुम्हारे भक्त नहीं कहते 
तब तक तुम भी उसकी 
छटपटाहट का मज़ा लेते रहते हो 

तो सुनो प्यारे 
जानना है मुझे स्वरुप संसार का 
अपने जीवन रहते ही 

जानना है मुझे 
मेरे बाद मेरे अस्तित्व की परिभाषा को 

जानना है मुझे 
जब सब जल समाधि ले ले 
और तुम पत्ते पर 
अंगूठा चूसे अवतरित हों 
तब क्या होता है 
और उसके बाद भी 
तुम्हारा प्रगाढ़ निद्रा में सोना और जागना 
सब कुछ देखने की चाह 
सब कुछ जानना 
तुम्हारे भीतर से भी 
तुम्हारी इच्छा को भी 
कैसे स्वयं को अकेला महसूसते हो 
फिर कैसे सृष्टि निर्माण करते हो 
कितने ब्रह्माण्ड में विचरते हो 
कितने रूप धरते हो 

सुनो 
सुन और पढ़ तो बरसों से रही हूँ 
मगर अब देखने की चाह है 
यदि पा जाऊं जीवन में कोई मुकाम 
तो मेरे बाद मेरा जीवन में क्या हश्र होगा 
कैसे मेरा अस्तित्व जिंदा रहता है 

मानती हूँ 
सब झूठ है 
नश्वर है जगत 
और ये चाहना भी 
मगर फिर भी चाहत का जन्म हुआ 
और सुना है 
तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं 

तो क्या कर सकोगे इस बार मेरी ये इच्छा पूरी 
जिसमे तुम खुद एक चक्रव्यूह में घिरे हो 
क्योंकि 
तुमसे तुम्हारे सारे भेद खोलने की चाह रखना 
बेशक मेरी बेवकूफी सही 
मगर इतना जानती हूँ 
असंभव नहीं तुम्हारे लिए कुछ भी 


मंगलवार, 2 जून 2015

ईश्वर ' ही ' है या ' शी '

ईश्वर ' ही ' है या ' शी ' 
प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है 

हम छोटी सोच के बाशिंदे 
जानते हैं सिर्फ अपनी ही परिधि 
जिसके अन्दर एक दुनिया वास करती है 
उससे इतर भी कुछ है 
जानने को न उत्सुक होते हैं 
और अपनी छोटी सोच की लकुटिया ले 
आक्षेपों की टिक टिक करते हैं 

ओ खुदा , ईश्वर , अल्लाह 
आज तेरे अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा हो गया है 
आज तू भी स्त्री पुरुष जैसे लिंगों में बंट गया है 
'ही' और 'शी' के मध्य विवाद छिड़ गया है 

हँस रहा होगा न तू भी 
सोच सोच 
न मुझे जाना न पहचाना 
बस विवाद को रूप दे दिया 
अब तक तो अलग अलग धर्मों में बंटा रहा 
और घृणा का कारण बनता रहा 
लेकिन अब ?
अब क्या हश्र होगा इस बहस का 
जहाँ उसे भी स्त्री और पुरुष बना दिया गया 

सुना है 
विदेशी तो निराकार को मानते हैं 
यहाँ तक कि कुछ धर्मों में तो 
निराकार की ही उपासना होती है 
हिन्दू धर्म में ही उसे आकार दिया जाता है 
ऐसे में उसमे स्त्री और पुरुष तत्व ढूंढना 
या उद्बोधन पर प्रश्न खड़ा करना 
बचकाना सा लगता है 
क्योंकि 
जो जानकार हैं वो जानते हैं 
वो न स्त्री है न पुरुष 
वो है ब्रह्म एक पूर्ण ब्रह्म 
जिसका आदि है न अंत 
फिर उसे पुरुष मानो या स्त्री 
ये तो है तुम्हारे भावों का विस्तार 
क्योंकि 
वो तो है बस निराकार 
जो होता है साकार भक्त की भावना से 
जो धारण करता है रूप भक्त के भावानुसार 

स्वीकार सको तो स्वीकार लो 
ये बेकार की बहस में न उलझो 
ईश्वर' ही' भी है और 'शी' भी 
'जिस भाव से भजता मुझे उस भाव से भजता उसे '
करो जरा उसकी इस  उक्ति पर विचार 
अर्थात जिस रूप में आवाज़ दोगे उसमे आ जाएगा 
तभी तो उसने 
अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर ये सिद्ध किया 
चाहे 'ही ' कहो चाहे ' शी ' 
या ' ही ' न मान ' शी ' मानो 
उसने तो कदम कदम पर खुद को प्रमाणित किया 
भक्त की जिज्ञासानुसार रूप धारण किया 

जाने कैसी सोच पनप रही है 
हर बात पर आक्षेप कर रही है 
ये अंधी दौड़ जाने कहाँ जाकर रुकेगी 
जो ईश्वर को पुकारे जाने पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रही है 

जानते हो न 
भेडचालों के नतीजे तो सिफर ही हुआ करते हैं .........



बुधवार, 20 मई 2015

प्रेम या विकल्प




सुनो
तुमसे कोई अदावत नहीं है
न ही खिलाफत है कोई
बस नहीं उठती अब कोई पीर विरह की

प्रेम के तुमने जाने कितने अर्थ दिए
और मैंने सहेज लिए
सच कहूं ..... रंग गयी थी तुम्हारे ही रंग में
बन गयी थी वंशी की मधुर तान सी
तुम्हारे होने में अपना होना बस
यही बनाया अंतिम विकल्प

मगर निर्मोही ही रहे तुम
सिर्फ अपनी त्रिज्या तक ही
सीमित था तुम्हारा हास्य
नहीं थी तुम्हें परवाह तुमसे इतर किसी की

सुनो
उलाहना नहीं है ये मेरा
न शिकायत है
बस तुमसे तुम्हें मिलवा रही हूँ
अहसास करा रही हूँ
" क्या हो तुम "
इतना जान लेते फिर न कभी
कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग का उपदेश देते

देखो तो जरा
बन चुकी है मूरत पत्थर की
मगर प्राण प्रतिष्ठा के लिए
जरूरत है तुम्हारी
और तुम ठहरे निर्मोही , निर्लेप
कहो तो अब कैसे संभव है
बिना प्रेम का स्वांग किये स्थापित होना

मैं आकार भी हूँ और प्रकार भी तुम्हारा
सोच लो
प्रीत के बंजारन होने से पहले
क्या खड़े कर पाओगे कदली वृक्ष

क्योंकि
प्राण प्रतिष्ठा के लिए जरूरी है
तुम्हारा प्रेम रूप में अवतरित हो मूरत में समाना

क्योंकि
प्रेम का सम्मिश्रण ही मनोकामना पूर्ति का अंतिम विकल्प है
अब ये तुम पर है
क्या बनना चाहोगे
प्रेम या विकल्प

जब से जाना है तुम्हें
तब से नहीं है इरादा मेरा सर्वस्व समर्पण का
क्या कर सकोगे तुम सर्वस्व समर्पण
और झोंक सकोगे खुद को उसी आग में
जिसमे एक अरसे से जल रहे हैं हम ............


प्रेम हो या विरह
तराजू के पलड़ों में
योगदान दोनों तरफ से बराबर का होना ही संतुलन ला पाता है

क्या इस बार कस सकोगे खुद को कसौटी पर ..........मोहना !


बुधवार, 6 मई 2015

हो तुम खुद की चाहतो में लिपायमान






बहुत उलटफेर किये तुमने
और हमने सब सह लिए
उह आह उफ़ करते करते
ज़िन्दगी के सितम सह लिए
मगर अब शक के घेरे में हो तुम !

हाँ तुम .........जिस पर अति विश्वास किया
उसने ही विश्वास का दोहन किया
तो कहो भला कैसे मुक्त करूँ तुम्हें इल्ज़ामात से

सुनो
तुम कहते हो
सृष्टि का आधार कर्म है
कर्म के अनुसार फल है
मैं तो कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम हूँ
यानी मैं कुछ नहीं करता
निर्लेप रहता हूँ
लेकिन नहीं लगता ऐसा
जानते हो क्यों ?

क्योंकि
जब कोई चल रहा हो सही राह पर
अचानक तो पथभ्रष्ट नहीं हो सकता न
हमें तो लगता है
कहीं न कहीं तुम ही डाल देते हो खाने में कीड़ा
नहीं देख पाते चलते हुए चक्की को सीधा
और डाल देते हो राह में रोड़े
तो बता सकते हो क्या
यहाँ कौन से कर्मों का लेखा जोखा आ गया ?


वैसे भी सुनो
जब सृष्टि निर्माण तुमने किया
तो अच्छी और बुरी शक्तियां भी तो तुमने ही बनायी न
किसी को अच्छा बनाया और किसी को बुरा
तो सोचो जरा किसने ?
तुमने ही न ........मानव के हाथ तो कुछ नहीं था
सारा सृष्टि विलास तुम्हारी चाहत की पूर्ति ही तो है
तो जिम्मेदार कौन हुआ कभी विचारना इस पर

मानव एक सीधी सच्ची राह चलना चाहता है
जन्म से या माँ के पेट से तो दुनियादारी सीख कर नहीं आता न
मगर तुम उसकी राह में अचानक जाने कितने तूफ़ान खड़े कर देते हो
वो उन्हें भी अपने हौसलों के बल पार कर जाता है जब
तब भी न तुम्हें चैन आता है
जो चल रहा होता है तुम्हारी बताई राह पर
और सुनो तुमसे भी कुछ नहीं चाहता
चाहत होती है तो सिर्फ इतनी
तुझसे मिलन होता रहे
और जब आस्था पहुँचती है अपने चरम पर
तब एक बार फिर तुम लक्ष्य संधान को उद्द्यत हो उठते हो
उत्पन्न कर देते हो भ्रम की सी स्थिति
जहाँ वो समझ नहीं पाता
कौन सी राह सही रही और कौन सी गलत ?
आस्था और विश्वास
की नैया हो उठती है डाँवाडोल
और ये सब यूँ ही नहीं होता
सीधी राह चलने वाला क्यों चाहेगा गलत राह पकड़ना
...... सोचना जरा

हाँ, कारण हो तुम
तुम फैला देते हो मायाजाल
परीक्षा के नाम का
और किंकर्तव्यविमूढ़ मानव फंसता जाता है
जहाँ ले चलते हो चलता जाता है
क्योंकि सम्मोहन की स्थितिओं में
विवेक धराशायी हो जाता है
ऐसे में बताना जरा
कहाँ कर्म की महत्ता रही ?

तुम जो चाहो करते हो
सच तो यही है
नहीं देख सकते तुम सीधा सादा सपाट जीवन जीते किसी को
या फिर साधनारत होते किसी को
कर ही देते हो
उंगल और बदल देते हो तस्वीर

बनाने को दुनिया को मूढ़
रच रखा है तुमने कर्मों का लेखा जोखा रचने का
विधान
सच तो यही है
तुम जो चाहते हो करते हो
क्योंकि
खेल तुम्हारा है और मोहरे भी
जब चाहे जिस भी खाने में जिस भी मोहरे को फिट कर देते हो
और जीत के पांसे सदा अपने हाथ में रखते हो

मुझे तो नहीं दिखते तुम कहीं से भी निर्लेप
हो तुम खुद की चाहतो में लिपायमान
जिनसे तुम खुद मुक्त नहीं हो ..........केशव

वैसे भी किसे पता तुम्हारे सत्य का
सुना है श्रुतियाँ भी नेति नेति कह शीश को झुकाती हैं
ऐसे में कैसे संभव है
आम मानव का तुम्हें रेखांकित करना
तुम्हारे सच और झूठ का पर्दाफाश करना
क्योंकि
उस तरफ सिर्फ तुम ही तुम हो ........एकल खिलाड़ी
और अकेला किसी भी रेस में हो .......जीतेगा ही

मत मढो हम पर कर्म और भाग्य की कुंठाएं
ये तो हैं बस तुम्हारे ह्रदय की विडंबनायें
जिनसे कुंठित हो तुम थोप देते हो परिणाम
और परवश हो भुगतने को होते हैं हम मजबूर

काश ! एक बार परवशता का जीवन तुमने जीया होता तो जान पाते हमारे दर्द को मोहन
विवशताओं की ड्योढ़ी पर माथा रगड़ना क्या होता है शायद जान पाते


एक सच ये भी है
नहीं हो सकते तुम कभी पूर्णतः मुक्त इन इल्जामों से
फिर चाहे देते रहो कितनी ही दुहाई अपनी निर्लेपता की .........
मोहन!