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बुधवार, 30 मार्च 2016

मुक्तिबोध

वो संवाद के दिन थे या नहीं
मगर संवाद जारी था

मौन का मुखर संवाद
बेशक आशातीत सफलता न दे
मगर बेचैनियों में इजाफा कर देता था
और संवाद मुकम्मल हो जाता था

मगर आज
मौन , मौन है
जाने किस मरघटी खामोशी ने घेरा है
जहाँ सृष्टि है या आँखों से ओझल
इसका भी पता नहीं
फिर क्रियाकर्म की रस्म कोई कैसे निभाये
तो क्या
मौन की ये ब्राह्मी स्थिति ही  मुक्तिबोध है ?

बुधवार, 23 मार्च 2016

साँवरे रसिया रे



साँवरे रसिया रे 
होली के बहाने आ जा 
साँवरे रसिया रे 
मोहे अपने रंग में रंग जा 

आज मोहे रंग भाये न दूजा 
श्याम रंग में ही रंग जा 
साँवरे रसिया रे 
एक बार गले लग जा 
साँवरे रसिया रे 
प्रीत को अमर कर जा 

सखिया सभी रंगी खड़ी हैं 
मेरी चूनर सूखी पड़ी है 
तू ही आकर भिगो जा 
साँवरे रसिया रे 
फाग का राग बन जा 
साँवरे रसिया रे 
इस होली मेरी गली फिर जा

लालम लाल हो जाउंगी 
तेरे ही रंग में रंग जाऊंगी 
जो तू फाग मुझ संग मना जा 
साँवरे रसिया रे 
होली के बहाने आ जा 
साँवरे रसिया रे 
मेरे अंग अंग में बस जा 



रविवार, 20 मार्च 2016

कृपण द्वार

अब मेरे पास शब्द है न भाषा
न बची खुद से ही कोई आशा
सभी सांसारिक तृष्णाओं से होकर मुक्त
हो गया हूँ निर्द्वंद
बिल्कुल नवजात शिशु सा
कच्ची मिटटी सा

क्या अब संसारिकता से परे भर सकते हो इसमें कुछ
जो जीवन के औचित्य को कर दे रेखांकित ?
या फिर चलता रहेगा चक्र
जीवन मृत्यु का अनवरत
बिना किसी अन्वेषण के

उत्तर में प्रतीक्षा की घायल आँखें हैं या रूह ...........कौन जाने
शायद जवाब के परिंदे ही खोलें कृपण द्वार ?