वो संवाद के दिन थे या नहीं
मगर संवाद जारी था
मौन का मुखर संवाद
बेशक आशातीत सफलता न दे
मगर बेचैनियों में इजाफा कर देता था
और संवाद मुकम्मल हो जाता था
मगर आज
मौन , मौन है
जाने किस मरघटी खामोशी ने घेरा है
जहाँ सृष्टि है या आँखों से ओझल
इसका भी पता नहीं
फिर क्रियाकर्म की रस्म कोई कैसे निभाये
तो क्या
मौन की ये ब्राह्मी स्थिति ही मुक्तिबोध है ?