आस्तिकता से नास्तिकता की ओर
प्रयाण शायद ऐसे ही होता है
जब कोई तुम्हें जानने की प्रक्रिया में होता है
और जानेगा मुझे ?
मानो पूछ रहे हो तुम
हाँ , शायद उसी का प्रतिदान है
जो तुम दे रहे हो
पहले भी कहा था
आज भी कहती हूँ
नहीं हो तुम किसी के माता पिता , सर्वस्व या स्वामी
क्योंकि
यदि होते तो
कष्ट में न देख सकते थे अपने प्रिय को
कौन माता पिता चाहेगा
कि बच्चा तो मुझे बेइंतिहा चाहे
अपना सब कुछ मुझे ही माने
और मैं उसे कष्ट पर कष्ट देता रहूँ
वो एक वार झेले
तो दूसरा और तगड़ा करूँ
ये कैसा प्रपंच है तुम्हारा
जहाँ जब कोई अपना
सर्वस्व तुम्हें मान ले
तो उसे सर्वस्व मानने की ही सजा मिले
ऊपर से चाहो तुम
वो उसे तुम्हारी कृपा कहे
अरे वाह रे ठग !
तुझसे बड़ा जालिम तो शायद
पूरे ब्रह्माण्ड में कोई नहीं
जो भक्त या अपने बच्चों को कष्ट में देख न द्रवित हो
हाँ , कहते हैं कुछ अंध अनुयायी
तुम भक्त को कष्ट में देख ज्यादा दुखी होते हो
क्या सच में ?
क्या कर सकते हो प्रमाणित ?
जबकि मज़े की बात ये है
तुम्हें न देखा न जाना
बस माना ... तुम्हारा होना
और उस पर वो कर देता है सब कुछ न्यौछावर
उसका प्रतिकार ये मिलता है
देखा फर्क उसमे और तुममें
दूसरी बात बताना ज़रा
कैसे पता चले इतना झेलकर
जब मृत्यु का मुख चूमे तो
उसकी सद्गति हुई या उसने तुम्हें प्राप्त किया या वो पूर्ण मुक्त हुआ
क्योंकि
किसे पता उसने फिर जन्म लिया या नहीं
कैसे करोगे सिद्ध ?
क्या कर सकते हो सिद्ध अपनी बात को
जो तुम कभी
गीता में कभी रामायण में तो कभी भागवत में कहते हो
या अपने शतुर्मुगों से कहलवाते हो
हमें तो लगता है
तुम कष्ट में देख ज्यादा खुश होते हो
ज्यादा सुखी होते हो
गोपियों से बड़ा उदाहरण क्या होगा भला ?
वो भी वैसे तुमने ही कहा है
ताकि इस धोखे में हम प्राणी
भटकते रहें , उलझते रहें
मगर वास्तव में तुम्हारा होना भी
आज संशय की कगार पर है
चाहे तुम हो या नहीं
क्या फर्क पड़ता है
बस मानव को समझना होगा
तुम किसी के सगे नहीं
इसलिए जरूरी है
एक निश्चित दूरी तुमसे
कम से कम जी तो सकेगा
नहीं तो एक तरफ
संसार की आपाधापी से सुलगा रहेगा
तो दूसरी तरफ
यदि वहां से तुम्हारी तरफ मुड़ा
तो कौन सा चैन पायेगा
तुम कौन सा उसे चैन से जीने दोगे ?
तो फिर संसार ही क्या बुरा है
यदि उम्र भर
किसी न किसी अग्नि में जलना है तो ?
बस शायद यही है अंतिम विकल्प
खुद को एक बार फिर मोड़ने का
तुम्हारी आस्तिकता से अपनी नास्तिकता की ओर मुड़ने का
तुम वो हो
जो छीन लिया करते हो
अपने चाहने वालों की सबसे प्रिय वस्तु उससे
तो कैसे कहलाते हो
करुणामय , दयामय , भक्तवत्सल
क्या ऐसे होते हैं ?
तो नहीं चाहिए तुम्हारी
कृपालुता , दयालुता , भक्तवत्सलता
ये तुम्हारे गढ़े छलावे तुम्हें ही मुबारक
मैं थोड़ी अलग किस्म की हूँ
अब यदि हो हिम्मत
मेरी कही बातों अनुसार चलने की
फिर भी मेरे साथ रहने की
उम्र भर साथ देने की
अपना बनने और बनाने की
तभी बढ़ाना कदम
वर्ना तो
एक निश्चित दूरी तक ही है
अब तुम्हारा हमारा सम्बन्ध
सोचो ज़रा
वर्ना क्यों संसार बनाया था ?
और क्यों हमें भेजा
जब खुद को ही पुजवाना था
ये दो नावों की सवारी कम से कम मैं नहीं कर सकती
अब होना होगा तुम्हें ही
मेरी नाव पर सवार
थामनी होगी मेरी पतवार
संसार और तुम्हारे प्रेम की धार पर
गर हो तैयार
तभी बसेगा प्रेम का संसार
वर्ना
एक निश्चित दूरी बनाना ही होगा
अब हमारे सम्बन्ध का आधार
देख लो
ये है पहला पग मेरा
आस्तिकता से नास्तिकता की ओर
क्या हो तैयार इस परिवर्तन के लिए ओ कृष्ण ?