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शनिवार, 30 अप्रैल 2016

आस्तिकता से नास्तिकता की ओर



आस्तिकता से नास्तिकता की ओर
प्रयाण शायद ऐसे ही होता है
जब कोई तुम्हें जानने की प्रक्रिया में होता है

और जानेगा मुझे ?
मानो पूछ रहे हो तुम
हाँ , शायद उसी का प्रतिदान है
जो तुम दे रहे हो

पहले भी कहा था
आज भी कहती हूँ
नहीं हो तुम किसी के माता पिता , सर्वस्व या स्वामी
क्योंकि
यदि होते  तो
कष्ट में न देख सकते थे अपने प्रिय को
कौन माता पिता चाहेगा
कि बच्चा तो मुझे बेइंतिहा चाहे
अपना सब कुछ मुझे ही माने
और मैं उसे कष्ट पर कष्ट देता रहूँ
वो एक वार झेले
तो दूसरा और तगड़ा करूँ
ये कैसा प्रपंच है तुम्हारा
जहाँ जब कोई अपना
सर्वस्व तुम्हें मान ले
तो उसे सर्वस्व मानने की ही सजा मिले
ऊपर से चाहो तुम
वो उसे तुम्हारी कृपा कहे
अरे वाह रे ठग !
तुझसे बड़ा जालिम तो शायद
पूरे ब्रह्माण्ड में कोई नहीं
जो भक्त या अपने बच्चों को कष्ट में देख न द्रवित हो 


हाँ , कहते हैं कुछ अंध अनुयायी
तुम भक्त को कष्ट में देख ज्यादा दुखी होते हो
क्या सच में ?
क्या कर सकते हो प्रमाणित ?
जबकि मज़े की बात ये है
तुम्हें न देखा न जाना
बस माना ... तुम्हारा होना
और उस पर वो कर देता है सब कुछ न्यौछावर
उसका प्रतिकार ये मिलता है
देखा फर्क उसमे और तुममें

दूसरी बात बताना ज़रा
कैसे पता चले इतना झेलकर
जब मृत्यु का मुख चूमे तो
उसकी सद्गति हुई या उसने तुम्हें प्राप्त किया या वो पूर्ण मुक्त हुआ
क्योंकि
किसे पता उसने फिर जन्म लिया या नहीं
कैसे करोगे सिद्ध ?
क्या कर सकते हो सिद्ध अपनी बात को
जो तुम कभी
गीता में कभी रामायण में तो कभी भागवत में कहते हो
या अपने शतुर्मुगों से कहलवाते हो
हमें तो लगता है
तुम कष्ट में देख ज्यादा खुश होते हो
ज्यादा सुखी होते हो
गोपियों से बड़ा उदाहरण क्या होगा भला ?
वो भी वैसे तुमने  ही कहा है
ताकि इस धोखे में हम प्राणी
भटकते रहें , उलझते रहें
मगर वास्तव में तुम्हारा होना भी
आज संशय की कगार पर है

चाहे तुम हो या नहीं
क्या फर्क पड़ता है
बस मानव को समझना होगा
तुम किसी के सगे नहीं
इसलिए जरूरी है
एक निश्चित दूरी तुमसे
कम से कम जी तो सकेगा
नहीं तो एक तरफ
संसार की आपाधापी से सुलगा रहेगा
तो दूसरी तरफ
यदि वहां से तुम्हारी तरफ मुड़ा
तो कौन सा चैन पायेगा
तुम कौन सा उसे चैन से जीने दोगे ?
तो फिर संसार ही क्या बुरा है
यदि उम्र भर
किसी न किसी अग्नि में जलना है तो ?

बस शायद यही है अंतिम विकल्प
खुद को एक बार फिर मोड़ने का
तुम्हारी आस्तिकता से अपनी नास्तिकता की ओर मुड़ने का

तुम वो हो
जो छीन लिया करते हो
अपने चाहने वालों की सबसे प्रिय वस्तु उससे
तो कैसे कहलाते हो
करुणामय , दयामय , भक्तवत्सल
क्या ऐसे होते हैं ?
तो नहीं चाहिए तुम्हारी
कृपालुता , दयालुता , भक्तवत्सलता
ये तुम्हारे गढ़े छलावे तुम्हें ही मुबारक

मैं थोड़ी अलग किस्म की हूँ
अब यदि हो हिम्मत
मेरी कही बातों अनुसार चलने की
फिर भी मेरे साथ रहने की
उम्र भर साथ देने की
अपना बनने और बनाने की
तभी बढ़ाना कदम
वर्ना तो
एक निश्चित दूरी तक ही है
अब तुम्हारा हमारा सम्बन्ध

सोचो ज़रा
वर्ना क्यों संसार बनाया था ?
और क्यों हमें भेजा
जब खुद को ही पुजवाना था
ये दो नावों की सवारी कम से कम मैं नहीं कर सकती
अब होना होगा तुम्हें ही
मेरी नाव पर सवार
थामनी होगी मेरी पतवार 

संसार और तुम्हारे प्रेम की धार पर
गर हो तैयार
तभी बसेगा प्रेम का संसार
वर्ना
एक निश्चित दूरी बनाना ही होगा
अब हमारे सम्बन्ध का आधार

देख लो
ये है पहला पग मेरा
आस्तिकता से नास्तिकता की ओर

क्या हो तैयार इस परिवर्तन के लिए ओ कृष्ण ?

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगाँठ

जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगाँठ , यदि भूल जाए कोई एक भी तो उसकी आफत .......लेकिन क्यों ? क्या ये सोचने का विषय नहीं ?

अब जन्मदिन तुम्हारा . तुम जन्मे उस दिन जरूरी थोड़े ही तुम्हारा पार्टनर भी उसे याद रखे और खुश होने का दिखावा करे . एक तो तुम पार्टनर की ज़िन्दगी में कम से कम २० से २५ साल बात आते हो और उससे उम्मीद करते हो वो तुम्हारा जन्मदिन याद रखे . क्या उसे और कोई काम नहीं . फिर क्या पता वो तुम्हारा जन्मदिन मनाने में खुश है भी या नहीं . आज व्यावहारिक होना ज्यादा जरूरी है बजाय भावनात्मक होने के . बेशक एक सम्बन्ध जुड़ता है पति पत्नी का लेकिन वहां यही अपेक्षाएं अक्सर बेवजह की कलह का कारण बन जाती हैं . 
 
ऐसा ही कुछ आज के युवा के साथ होता है जिस वजह से ज्यादातर रिलेशन बीच राह में ही टूट जाते हैं क्योंकि वो तो जुड़ते ही इस वजह से हैं कि पार्टनर हमारी हर इच्छा पूरी करेगा और जब वैसा नहीं होता तो ब्रेक अप . फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं लेकिन कहीं ठौर नहीं पाते क्योंकि दिशाहीन होते हैं . सम्बन्ध कोई भी हो वहां यदि इस तरह की चाहतें होंगी तो संभव ही नहीं दूर तक जा सकें . 

इसी तरह वैवाहिक वर्षगाँठ की बात है . अब सोचिये जरा कोई बेचारा / बेचारी विवाह से खुश नहीं तो क्यों वो उस मनहूस दिन को याद रखेंगे ? उस पर पार्टनर की चाहत कि न सिर्फ याद रखा जाए बल्कि कोई महंगा गिफ्ट भी दिया जाए और बाहर डिनर भी किया जाए . सोचिये जरा बेमन से किया गया कार्य क्या ख़ुशी दे सकता है जिसमे एक खुश हो और दूसरा जबरदस्ती दूसरे की ख़ुशी में खुश होने का दिखावा भर कर रहा हो . जब सम्बन्ध ही मायने न रखता हो वहां दिखावे का क्या औचित्य ?

यदि इन बेवजह की औपचारिकताओं से सम्बन्ध को मुक्त रखा जाए तो आधी कलह तो जीवन से वैसे ही समाप्त हो जाए मगर हम भारतीय कुछ ज्यादा ही भावुक होते हैं और आधे से ज्यादा जीवन इसी भावुकता में व्यतीत कर देते हैं . बाद में कुछ भी हाथ नहीं लगता . यदि थोडा व्यावहारिक बनें और संबंधों को स्वयं पनपने दें , उन्हें थोडा उन्मुक्त आकाश दें तो स्वयमेव एक ऐसी जगह बना लेंगे जहाँ आपको कहना नहीं पड़ेगा बल्कि पार्टनर खुद स्वयं को समर्पित कर देगा .

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

क्या हूँ मैं ऐसी ही स्वीकार ?




सुना है
गोपाला नंदलाला
तुम्हें लाड लड़ाना बहुत प्रिय है
लेकिन मैं
झूठा आडम्बर नहीं ओढ़ सकती
देखा देखी नहीं कर सकती

तर्क कुतर्क के बवंडर में घिर
जो अक्सर तुम्हारे कान उमेठ लिया करती है
तुम पर ही आरोप प्रत्यारोप किया करती है
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया करती है
यहाँ तक कि
तुम्हारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया करती है

बोलो अब
क्या हूँ मैं ऐसी ही स्वीकार
रूखी खडूस सी
जिसमे प्रेम का लेश भी नहीं ???

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

सोच लो ?



जब दुःख पाना नियति है
चाहे तुम्हें की माने या नहीं
तो फिर क्यों
तुम्हें कोई भजे ?

जिसने जितना भजा
उतना ही दुःख पाया
और जिसने तुम्हारे
अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा किया
सुखपूर्वक जीवन बिताया
तो बताओ कृष्ण
तुम्हारे होने का क्या औचित्य ?

अब तुम्हें हम माने या नहीं
क्या फर्क पड़ता है
क्योकि
दुःख हमारी नियति है
खासतौर से उस भक्त की
जो सब कुछ अपना तुम्हें मानता हो
और तुम्हारे दिए ज्ञान को आत्मसात करता हो
वो मान लेता है तुम्हारे गीता ज्ञान को
कर्म का लेखा मिटे न मिटाए
मगर
किसने देखा अगला पिछला जन्म ?

और कभी कभी तो प्रश्न उठता है
तुम हो भी या नहीं
या फिर हो महज वहम
एक मन बहलाने का साधन भर
एक खुद को ढाँढस बंधाने का जरिया भर
क्यंकि
यदि होते तुम हमारे माता पिता
जैसे कि तुम्हारे सभी ग्रंथों में कहा गया है
तो क्या अमरे दुखो पर
तुम मौन रह सकते थे
क्या तुम्हारा अंतस न चिंघाड़ता
हम भी माता पिता हैं
बच्चों की सिसकारी पर
जान देने को हाजिर हो जाते हैं
और उनका दुःख खुद सहने को इच्छुक हो जाते हैं
लेकिन तुम ---- तुम पर कोई असर नहीं होता
सारे संसार में व्याप्त
अन्धकार , व्यभिचार , दुःख तकलीफ , अराजकता से
नहीं होते तुम व्यथित 

स्त्री पुरुष बच्चे या तुम्हारी बनायी सृष्टि का कोई जीव हो 
जब रोता है , तुम्हें पुकारता है ये सोच 
सारा संसार बेशक छोड़ दे
तुम साथ जरूर दोगे
लेकिन हो ही जाता है अंततः निराश
क्योंकि तुम नहीं उतर सकते अपने आसन से नीचे
वर्ना सुन पाते अबलाओं बच्चों की चीख पुकार

तो फिर कैसे माने तुम्हें
हम अपना सर्वस्व या माता पिता
इतनी हृदयहीनता कैसे समाई है तुम में .......बताना तो जरा ओ कृष्ण ?


तब लगता है
नहीं हो तुम कहीं भी
तुम हो सिर्फ हमारी बनायी
एक ऐसी कृति
जिसे हमने अपने जीवन का
एक सहारा बनाया
एक अस्तित्वहीन विग्रह

आस्तिकता और नास्तिकता के
मध्य की एक महीन रेखा
जिसे यदि अब और खींचा
तो शायद अस्तित्व ही नकार दिया जाए तुम्हारा
और उग आये नास्तिकता का घनेरा जंगल
जिसमे तुम बिलबिलाओ एक दिन
ये मेरा आग्रह है न इल्तिजा
बस मन की विडंबना है
तुम्हें स्वीकारूँ या नकारुं अब ... सोच लो
क्योंकि
अंध श्रद्धा , अंध भक्ति की बलि नहीं चढ़ सकती मेरी चेतना

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

गोपिभाव ६



रे निर्मोही
जब लौट के जाना ही था
तो जीवन में आया ही क्यूँ था
ये प्रेम का रोग लगाया ही क्यूँ था

अब जीती हैं न मरती हैं
तेरी गोपियाँ देख तेरे बिन
ज़िन्दगी की तपती रेत में
नंगे पाँव भटकती हैं
सुन , तुझे जरा भी लाज नहीं आई क्या कभी ?

यूँ डेरा उठा लिया
जैसे कभी ठहरा ही न था
क्या तुझमे कभी कोई
मौसम उमड़ा ही न था
या फिर स्वांग था वो सब तेरा
छलने का एक नया ढब
छला और चल दिया बिना मुड़े बिना पीछे देखे
सुन , कभी नहीं जान पायेगा तू प्रेम होता है क्या ?

आज हम जल रही हैं
तड़प रही हैं
भटक रही हैं
और किसी से कह भी नहीं सकतीं अपनी पीड़ा
न कोई समझ सकता हमारे हिय की जलन
जब तू ही न समझा तो और किसी से क्या उम्मीद ?

एक तेरी प्रीत के हवाले था हमारा तन मन और जीवन
अब मन रहा न जीवन
सिर्फ साँसों के आरोह अवरोह से ही बंधा है तन
कभी देखी है ऐसी मृत्यु तूने
जहाँ साँस चलती हो
लेकिन जीने की न आरजू बची हो
नहीं , तू नहीं जान पायेगा कभी प्रेम की परिभाषा
प्रेम किया होता तो जानता
हमारे हिय की अभिलाषा

इकतरफा प्रेम की मारी हम
सिर्फ एक पंक्ति पर गुजर करती हैं
सबसे ऊँची प्रेम सगाई
जो सिर्फ हमने की है
तू तो सदा का निर्मोही था , है और रहेगा .........