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शनिवार, 9 अप्रैल 2016

गोपिभाव ६



रे निर्मोही
जब लौट के जाना ही था
तो जीवन में आया ही क्यूँ था
ये प्रेम का रोग लगाया ही क्यूँ था

अब जीती हैं न मरती हैं
तेरी गोपियाँ देख तेरे बिन
ज़िन्दगी की तपती रेत में
नंगे पाँव भटकती हैं
सुन , तुझे जरा भी लाज नहीं आई क्या कभी ?

यूँ डेरा उठा लिया
जैसे कभी ठहरा ही न था
क्या तुझमे कभी कोई
मौसम उमड़ा ही न था
या फिर स्वांग था वो सब तेरा
छलने का एक नया ढब
छला और चल दिया बिना मुड़े बिना पीछे देखे
सुन , कभी नहीं जान पायेगा तू प्रेम होता है क्या ?

आज हम जल रही हैं
तड़प रही हैं
भटक रही हैं
और किसी से कह भी नहीं सकतीं अपनी पीड़ा
न कोई समझ सकता हमारे हिय की जलन
जब तू ही न समझा तो और किसी से क्या उम्मीद ?

एक तेरी प्रीत के हवाले था हमारा तन मन और जीवन
अब मन रहा न जीवन
सिर्फ साँसों के आरोह अवरोह से ही बंधा है तन
कभी देखी है ऐसी मृत्यु तूने
जहाँ साँस चलती हो
लेकिन जीने की न आरजू बची हो
नहीं , तू नहीं जान पायेगा कभी प्रेम की परिभाषा
प्रेम किया होता तो जानता
हमारे हिय की अभिलाषा

इकतरफा प्रेम की मारी हम
सिर्फ एक पंक्ति पर गुजर करती हैं
सबसे ऊँची प्रेम सगाई
जो सिर्फ हमने की है
तू तो सदा का निर्मोही था , है और रहेगा .........




1 टिप्पणी:

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