सुना है
गोपाला नंदलाला
तुम्हें लाड लड़ाना बहुत प्रिय है
लेकिन मैं
झूठा आडम्बर नहीं ओढ़ सकती
देखा देखी नहीं कर सकती
तर्क कुतर्क के बवंडर में घिर
जो अक्सर तुम्हारे कान उमेठ लिया करती है
तुम पर ही आरोप प्रत्यारोप किया करती है
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया करती है
यहाँ तक कि
तुम्हारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया करती है
बोलो अब
क्या हूँ मैं ऐसी ही स्वीकार
रूखी खडूस सी
जिसमे प्रेम का लेश भी नहीं ???
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20 -04-2016) को "सूखा लोगों द्वारा ही पैदा किया गया?" (चर्चा अंक-2318) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
फटकार और झिडकी में भी तो प्रेम ही होता है। इस रूखेपन में अंदर कहीं गहरे स्नेह का गीलापन भी होता है।
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