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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

कृष्ण लीला ………भाग 20








आज कान्हा घर से बाहर
पहली बार निकले हैं
दाऊ दादा संग
दोनो कदम बाहर धरे हैं
बाहर बैठे बैल के
दोनो सींगो को दोनो ने पकडा है
कभी एक इधर से खींचता है
तो दूजा उठ जाता है
तो कभी दूजा खींचता है
तो पहला उठ जाता है
दोनो झूला झूल रहे है
आनन्द मे मग्न हो रहे है
मगर बैल परेशान हुआ
कुछ देर तो बैठा रहा
मगर जब देखा ये तो
तंग किये जाते है
परेशान हो उठ खडा हुआ
अब तो दोनो बालक
सींगो पर झूल गये
और तोरी की तरह लटक गये
जब हाथ छुटने लगे
तब दोनो चिल्लाने लगे
मैया बचाइयो –मैया बचाइयो
शोर सुन
यशोदा रोहिणी दौडी आईं
और दोनो के हाल देख हँसने लगीं
ये कैसे इतने ऊंचे लटक गये
और उन्हे पकडने को दौड पडीं
पर नन्हे हाथ कब तक पकडे रखते
जब तक रोहिणी यशोदा पहुँचती
दोनो धम्म से नीचे पडे
गोबर मे गिर गये
मैया ने उन्हे उठाया है
और सीने से लगाया है
पल्लू से कान्हा को
पोंछती जाती हैं
साथ ही कहती जाती हैं
तुझे कितना संवारूँ सजाऊँ
पर तू गन्दगी मे जा लिपटता है
मुझे लगता है पिछले जन्म मे
तू सूअर था
ये सुन कन्हैया मुस्कुरा रहे हैं
और सोच रहे हैं
जग नियन्ता की माँ होकर
तू कैसे अनपढ़ रह सकती है
माँ तू तो ब्रह्मज्ञानी है
तुझे तो सब पता है
पिछले जन्म मे मैने
सूअर यानी वराह रूप भी
धारण किया था




ऐसी अद्भुत लीलायें
कान्हा करते हैं
कभी गोपियों के  घर जाते हैं
उनके दधि माखन खाते हैं
योगी ॠषि मुनि भी जिनकी
ध्यान मे सुधि ना पाते हैं
वो गोपियों की छाछ पर
नाचे जाते हैं
कभी कोई गोपी
मन मे विचार करती
और कान्हा को याद कर
छींके पर माखन रखती
उसके प्रेममय भाव जान
जब कान्हा आकर खाते हैं
गोपी फ़ूली ना समाती है
आनन्द ना ह्रदय मे समाता
आँखो से छलक छलक जाता
सखियाँ पूछा करतीं
कौन सा तुझे खज़ाना मिला
पर गोपी के मूँह से
ना शब्द निकलता
प्रेम विह्वल गोपी का
रोम रोम पुलकित होता
बहुत पूछने पर इतना ही कह पाती
आज मैने अनूप रूप देखा है
और फिर
वाणी अवरुद्ध हो जाती
अंग शिथिल पड जाते
प्रेमाश्रु बहे चले जाते


क्रमशः ---------------

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

कृष्ण लीला ………भाग 19






इक दिन सांवरे सलोने
सूने घर मे माखन चुराने लगे
खम्बे मे अपने प्रतिबिम्ब
पर दृष्टि पडी
प्रतिबिम्ब देख कान्हा डर गये
और निजस्वरुप से कहने लगे
भैया मैया से कुछ ना कहना
तुझको भी माखन दूंगा
बराबर का अपना हिस्सा ले लेना
तोतली वाणी ओट मे खडी मैया सुन रही थी
और मन ही मन रीझ रही थी
जैसे मैया को देखा कान्हा ने
निज प्रतिबिम्ब दिखा लगे कहने
मैया बताओ ये कौन है?
माखन चुराने घर मे आया है
मना करने पर मानता नही
क्रोध करने पर क्रोध करता है
मुझे माखन का लालच नही
तुम जानती हो
और मैया अपने कान्हा की
मधुर वात्सल्यमयी वाणी मे डूब गयी
कुछ ऐसे मैया को
नित नये सुख देते हैं
जिसे पाने को ॠषि मुनि
सुर आदि भी तरसते हैं



एक दिन गोपियाँ नन्दालय मे एकत्र हुईं
तभी कन्हैया को मयंक दिखा
उसे देख कन्हैया ललचाने लगे
मैया मै तो यही लूँगा
तोतली वाणी मे दोहराने लगे
गोपियाँ कान्हा को समझाने लगीं
तरह तरह के प्रलोभन दिखाने लगीं
मगर कान्हा मचल गया
मोटा मोटा काजल आँखो से
गालों पर लुढ्क गया
जिससे श्याम छवि
और श्यामल हुई
और गोपियो के मनभावन हुई
लाला को रोता देख
मैया समझाने लगी
लाला माखन ले लो
बरगलाने लगी
मगर जब कान्हा ने एक ना मानी
तव मैया ने इसे समझाने की ठानी
गोद मे ले बाल कृष्ण को
मैया कहानी सुनाने लगी
लाला ये माखन तो विषैला है
सुन लाला ने पूछा
इसमे विष कैसे लग गया
अब बात बदल चुकी थी
लाला की जिद भी ह्ट चुकी थी
मैया कहानी सुनाने लगी
एक क्षीरसागर है दूध का समुद्र
सुन कान्हा कहने लगे
वो तो बहुत बडा होगा
कितनी गायों के दूध से भरा होगा
सुन मैया ने बतलाया
ये गायों का दूध नही
भगवान की माया है
उन्होने ही क्षीरसागर बनाया है
 एक बार देवता दैत्यों मे युद्ध हुआ
तब मन्दराचल को रई बना
वासुकि सर्प की रस्सी बना
समुद्रमन्थन किया
जैसे गोपियाँ दधि मथा करती हैं
और माखन निकला करता है
ऐसे ही उसमे से पहले विष निकला था
जिसे भोलेनाथ ने पीया था
कुछ बूँदें जो धरती पर पडी थीं
वो सर्पों के मूँह मे गयी थीं
चन्द्रमा की ओर उँगली दिखा कहने लगी
ये चन्द्रमा रूपी माखन भी
उसी मे से निकला था
मगर थोडा सा विष
इसमे भी लगा था
इसीलिये कलंक कहाता है
ओ मेरे प्राणधन
तुम्हारे योग्य ना ये माखन है
तुम तो बस घर का बना
माखन ही खाना
और मैया का मन हुलसाना
सुनते सुनते कान्हा को
निंदिया आ गयी
मैया ने कान्हा को
सुलाया है
और अपने लाल को
ऐसे बहलाया है


रविवार, 16 अक्टूबर 2011

कृष्ण लीला ………भाग 18





जिस दिन कान्हा खडे हुए
मैया के सब मनोरथ पूर्ण हुये
आज मैया ने गणपति की
सवा मनि लगायी है
रात भर बैठ लडडू तैयार किये
सुबह कान्हा को ले
मन्दिर गयी
पूजा करने बैठी जैसे
भोग मे ना तुलसी थी
तुलसी लेने जाने लगी
और कान्हा को उपदेश देने लगी
कान्हा! ये जय जय का भोग बनाया है
पूजा करने पर ही खाना होगा
सुन कान्हा ने सिर को हिलाया है
ये कह मैया जैसे ही जाने को मुडी
इतने मे ही गनेश जी की सूंड उठी
उसने एक लडडू उठाया है
कान्हा को भोग लगाया है
कान्हा मूँह चलाने लगे
जैसे ही मैया ने मुडकर देखा
गुस्से से आग बबूला हुयी
क्यों रे लाला
मना करने पर भी
क्यों लडडू खाया है
इतना सब्र भी ना रख पाया है
मैया मैने नही खाया
ये तो गनेश जी ने मुझे खिलाया
रोते कान्हा बोल उठे
सुन मैया डपटने लगी
वाह रे! अब तक तो ऐसा हुआ नही
इतनी उम्र बीत गयी
कभी गनेश जी ने मुझको तो
कोई ऐसा फ़ल दिया नही
अगर सच मे ऐसा हुआ है तो
अपने गनेश से कहो
एक लडडू मेरे सामने तुम्हे खिलायें
नही तो लाला आज
बहुत मै मारूँगी
झूठ भी अब बोलने लगा है
अभी से कहाँ से ये
लच्छन लिया है
सुन मैया की बातें
कान्हा ने जान लिया
मैया सच मे नाराज हुई
कन्हैया रोते हुये कहने लगे
गनेश जी एक लडडू और खिला दो
नही तो मैया मुझे मारेगी
इतना सुनते ही गनेश जी की
सूंड ने एक लडडू और उठाया
और कान्हा को भोग लगाया
इतना देख मैया गश खाकर गिर गयी
और ये तो कान्हा पर
बाजी उल्टी पड गयी
झट भगवान ने रूप बदल
माता को उठाया
मूँह पर पानी छिडका
होश मे आ मैया कहने लगी
आज बडा अचरज देखा
लाला गनेश जी ने
तुमको लडडू खिलाया है
सुन कान्हा हँस कर कहने लगे
मैया मेरी तू बडी भोली है
तू ने जरूर कोई स्वप्न देखा होगा
इतना कह कान्हा ने
मूँह खोल दिया
अब तो वहां कुछ ना पाया
भोली यशोदा ने
जो कान्हा ने कहा
उसे ही सच माना
नित्य नयी नयी 
लीलाएं करते हैं
मैया का मन मोहते हैं
मैया का प्रेम पाने को ही तो 
धरती पर अवतरित होते हैं 


क्रमशः .................

रविवार, 9 अक्टूबर 2011

कृष्ण लीला ………भाग 17

जिस दिन कान्हा खड़े हुए
मैया के सब मनोरथ पूर्ण हुए
कान्हा ठुमक ठुमक कर
चलने लगे हैं
घर आँगन में खेला करते हैं
पर देहली पर आकर रुक जाते हैं
देहली लांघने का
बड़ा उपक्रम करते हैं
पर देहली ना लांघी जाती है
और बार- बार गिर पड़ते हैं
इस लीला को देख
मैया तो आनंदित होती है
पर बलराम जी और देवताओं
को विस्मय होता है
वे मन ही मन ये कहते हैं
जिन प्रभु ने वामनावतार में
तीन पगों में
त्रिलोकी को नाप लिया था
आज कैसे रंग- ढंग बनाये हैं
जो देहली भी ना लाँघ पाए हैं
आज प्रभु के बल को
किसने चुराया है
जिन्होंने कच्छप रूप से
सुमेरु को धारण किया था
जिन्होंने वाराह रूप से
पृथ्वी को पुष्प सम उठा लिया था
जिन्होंने रावण के मस्तक काटे थे
जिन्होंने जामवंत का
बल चूर किया था
और पृथ्वी की प्रार्थना पर
भू- भार हरण को अवतार लिया था
आज वो ही त्रिलोकी नाथ
अजन्मा ब्रह्म कैसी लीला करते हैं
जिसका ना कोई पार पाता है
वो अपने घर की देहली ना लाँघ पाता है
देख देवता भी चकराते हैं
पर प्रभु की अद्भुत बाल लीलाओं का
पार ना कोई पाते हैं
बस प्रेम रस में डूबे जाते हैं
कोटि- कोटि शीश झुकाते हैं


इक दिन मैया दधि मंथन करने लगी
तभी मोहन ने मथानी पकड़ ली
मोहन मथानी पकड़ मचलने लगे
जिन्हें देख देवताओं , वासुकी सर्प
मंदराचल और शंकर जी के
ह्रदय कांपने लगे
वे मन ही मन प्रार्थना करने लगे
प्रभो ! मथानी मत पकड़ो
कहीं प्रलय ना हो जाये
और सृष्टि की मर्यादा मिट जाये
शंकर जी सोचने लगे
इस बार मंथन में निकले
विष का कैसे पान करूंगा
कष्ट के कारण समुन्द्र भी
संकुचित हो गया
पर सूर्य को आनंद हुआ
अब प्रलय होगी तो
मेरा भ्रमण बंद होगा
और लक्ष्मी भी ये सोच- सोच
मुस्कुराने लगीं
प्रभु से मेरा पुनर्विवाह होगा
प्रभु की इस लीला ने
किसी को सुखी तो
किसी को दुखी किया है
और प्रभु के मथानी पकड़ते ही
कैसा अद्भुत दृश्य बना है
पर मैया अति आनंदित हुई
जब दधि के छींटों को
प्रभु के मुखकमल पर देखा है
बार- बार मैया से माखन
माँग रहे हैं
और मैया कह रही है
कान्हा पहले नृत्य करके तो दिखलाओ
और मोहन माखन के लालच में
ठुमक- ठुमक कर नाच रहे हैं
मैया  के ह्रदय को हुलसा रहे हैं
जिसे देख सृष्टि भी थम गयी है
देवी देवता अति हर्षित हुए हैं
बाल लीलाओं से कान्हा ने
सबके मन को मोहा है

क्रमशः ..........

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

कृष्ण लीला ………भाग 16

जब कान्हा घुट्नन चलने लगे
कभी कीचड़ तो 

कभी आँगन में विचरने लगे
कभी बछड़ों की पूँछ पकड़ लेते
कभी उनके साथ घिसटते रहते
मधुसूदन के रूप देख- देख
गोपियाँ सुध- बुध बिसरा देतीं
काम सारा बिसरा देतीं
एक दिन एक ब्राह्मण  ने
नंदालय में पदार्पण किया
यशोदा ने खूब आवभगत किया
मैया ने भोजन खीर सहित
थाली में परोस दिया
ब्राह्मण ने जैसे आँख बंद कर
प्रभु का आह्वान किया
वैसे ही कान्हा ने खीर को
भोग लगा लिया
ये देख ब्राह्मण बिदक गया
दुबारा थाल परोसा गया
और ऐसा तीन -तीन बार हो गया
जैसे ही प्रभु को भोग लगाता था
वैसे ही कान्हा को खाते पता था
अब तो ब्राह्मण देवता चकरा गए
कृष्ण की लीला से घबरा गए
आँख बंद कर प्रभु से
प्रार्थना करने लगे
ये कैसी लीला है प्रभो ज़रा बतला देना
जैसे ही ब्राह्मण ने करुण पुकार करी
ध्यान में ही प्रभु का दीदार हुआ
और ब्राह्मण आनंदमग्न हुआ
कान्हा को प्रणाम कर चला गया

नित सबको आनंद बरसाते हैं
जिन्हें देख ब्रजवासी  हुलसाते हैं
जब कान्हा घुटनों चलते हैं
तब रुनझुन नुपुर बजते हैं
हाथ पैर धूल- धूसरित होते हैं
बार- बार मणिभूमि में
अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं
और किलकारियां मार हँसते हैं
कभी प्रतिबिम्ब पकड़ने को
उल्लसित हो घुटनों के बल
दौड़ लगाते हैं
मगर पकड़ नहीं पाते हैं
अखंड ब्रह्माण्ड नायक
अपनी प्रभुता शिशुता में छुपाते हैं
शब्द इकठ्ठा कर बोलना चाहते हैं
पर स्पष्ट बोल नहीं पाते हैं
कभी मैया आवाज़ लगाती है
लाल तू दौड़ कर यहाँ क्यूँ नहीं आता है
आवाज़ की दिशा पहचान
घुटनों के बल घिसटते हुए चलते हैं
मैया प्रेम से उठती है
ला्ड लडाती है
गोद में बिठाती है
आँचल से धूल को झाड़
मैया गले से लगाती है
कभी कान्हा की भुजाएं पकड़
चलना सिखाती है
कान्हा कदम बढाते हैं
तो कभी लडखडाकर
गिर पड़ते हैं
जिसे देख मैया मुस्काती है
फिर दोबारा चलाती है
ऐसे कान्हा रस बरसाते हैं
मैया का वात्सल्य बढ़ाते हैं 


क्रमशः .............