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रविवार, 18 अक्टूबर 2009

श्रीमद भगवद्गीता से ...............

श्रीमद भगवद्गीता के सातवें अध्याय का ४० वां श्लोक आज के सन्दर्भ में कितना सटीक है । आज इसका थोड़ा सा वर्णन लिख रही हूँ जो स्वामी रामसुखदास जी ने किया है ।
श्लोक
श्री भगवन बोले -----हे पृथानन्दन !उसका ने तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है क्यूंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नही जाता ।

व्याख्या
जिसको अन्तकाल में परमात्मा का स्मरण नही होता उसका कहीं पतन तो नही हो जाता ----इस बात को लेकर अर्जुन के ह्रदय में व्याकुलता है । यह व्याकुलता भगवान से छिपी नही है ,इसलिए भगवान पहले इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं।
भगवान कहते हैं -----हे प्रथानंदन जो साधक अन्तसमय में किसी कारणवश योग से ,साधन से विचलित हो जाता है वह योगभ्रष्ट साधक मरने के बाद चाहे इस लोक में जनम ले या परलोक में जनम ले उसका पतन नही होता। तात्पर्य है कि उसकी योग में जितनी स्थिति बन चुकी है उससे नीचे नही गिर सकता। उसकी साधन सामग्री नष्ट नही होती। जैसे भरत मुनि जो भारतवर्ष का राज छोड़कर एकांत में तप करने चले गए थे मगर दयापरवश होकर एक हिरन के बच्चे में आसक्त हो गए जिससे दूसरे जनम में उन्हें हिरन बनना पड़ा परन्तु जितना त्याग,तप साधना उन्होंने पिछले जनम में की थी वह नष्ट नही हुयी ,उनको हिरन के जनम में भी वो सब याद था जो मनुष्य जनम में भी याद नही रहता अर्थात हिरन के जनम में भी उनका पतन नही हुआ। इसी तरह पहले जनम में मनुष्य जिनका स्वभाव सेवा करने का होता है वे किसी कारणवश योगभ्रष्ट हो भी जायें तो भी उनका वह स्वभाव नष्ट नही होता फिर चाहे वो अगले जनम में पशु पक्षी ही क्यूँ न बन जायें, परोपकार की भावना उनमें उसी तरह बनी रहती है। ऐसे बहुत से उदहारण आते हैं। एक जगह कथा होती थी तो एक कला कुत्ता वहां आकर बैठता था और कथा सुनता था । जब कीर्तन करते हुए कीर्तन मण्डली घूमती तो उस मंडली के साथ वह कुत्ता भी घूमता था।

भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य कल्याणकारी कामों में लगा रहता है उसका कभी पतन नही होता क्यूंकि उसकी रक्षा मैं करता रहता हूँ फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है। जो मनुष्य मेरी तरफ़ चलता है वह मुझे बहुत ही प्यारा लगता है क्यूंकि वास्तव में वो मेरा ही अंश है संसार का नही उसका वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ है संसार के साथ नही । उसने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्ध को पहचान लिया फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है ?उसका साधन कैसे नष्ट हो सकता है ? हाँ कभी कभी उसका साधा छूटा हुआ सा दीखता है तो ये स्थिति उसके अभिमान के कारण आती है और मैं उसीचेतना के लिए उसके सामने ऐसी घटना घटा देता हूँ जिससे व्याकुल होकर वह फिर मेरी तरफ़ चलने लगता है। जैसे गोपियों का अभिमान देखकर रास से ही अंतर्धान हो गया मैं तो सब गोपियाँ घबरा गयीं। जब वे विशेष व्याकुल हो गई तब मैं उन गोपियों के समुदाय के बीच में ही प्रगट हो गया और उनके पूछने पर कहा ---------तुम लोगो का भजन करता हुआ ही मैं अंतर्धान हुआ था तुम लोगो की याद और तुम लोगों का हित मेरे से छूटा नही है । इसका तात्पर्य ये है की अनंत जन्मों से भूला हुआ ये प्राणी जब केवल मेरी तरफ़ लगता है तब वह मेरे को प्यारा लगता है क्यूंकि उसने अनेक योनियों में बहुत दुःख पाए हैं और अब वह सन्मार्ग पर आ गया है। उसी तरह उसके हितों की रक्षा करता हूँ जैसे एक माँ अपने बच्चे की करती है।

तात्पर्य ये है कि जिसके भीतर एक बार साधन के संस्कार पड़ गए हैं वे संस्कार कभी नष्ट नही होते कारण कि उसी परमात्मा के लिए जो काम किया जाता है वह सत हो जाता है अर्थात उसका कभी अभाव नही होता। कल्याणकारी काम करने वाले किसी व्यक्ति की दुर्गति नही होती उसके जितने सद्भाव होते हैं ,जैसा स्वभाव होता है वह प्राणी किसी कारण वशात किसी नीच योनी में भी चला जाए तो भी उसके सद्भाव उसका कल्याण करना नही छोडेंगे ।

अब प्रश्न उठता है कि अजामिल जैसा शुद्ध ब्रह्मण भी वेश्यागामी हो गया,विल्वमंगल भी चिंतामणि नाम की वेश्या के वश में हो गए तो इनका इस जीवित अवस्था में ही पतन कैसे हो गया?इसका समाधान ये है कि उन लोगों का पतन हो गया ऐसा दीखता है मगर वास्तव में उनका पतन नही उद्धार ही हुआ है। अजामिल को लेने भगवान के पार्षद आए और विल्वमंगल भगवान के भक्त बन गए। इस प्रका रवो पहले भी सदाचारी थे और बाद में भी उद्धार हो गया सिर्फ़ बीच में उनकी दशा अच्छी नही थी। तात्पर्य ये हुआ की किसी विघ्न बाधा से, किसी असावधानी से उसके भावः और आचरण गिर सकते हैं ,परन्तु पहले का किया हुआ साधन कभी नष्ट नही होता ,उसकी वो पूँजी वैसी की वैसी ही रहती है और जब अच्छा संग मिलता है तब वो भावः तेजी से उदय होने लगते हैं और वो तेजी से भगवन की ओर चलने लगता है। इससे यही शिक्षा मिलती है कि हमें हर समय सावधान रहना चाहिए जिससे हम किसी कुसंगत में न पड़ जायें और अपना साधन न छोड़ दें।

11 टिप्‍पणियां:

DIVINEPREACHINGS ने कहा…

अति सुन्दर प्रयास, समय के अनुकूल शिक्षा...यदि मनुष्य निष्ठा के साथ प्रभु भक्ति करते हुए कर्म करें तो उसका कल्याण अवश्यम्भावी है...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अच्छी तरीके से व्याख्या की है आपने इस प्रसंग की ......... सार्थक लेखन है

M VERMA ने कहा…

बहुत खूब -- इस प्रसंग के माध्यम से आपने बहुत सुन्दर सन्देश प्रेषित किया.

Mishra Pankaj ने कहा…

अच्छा प्रयास
धन्यवाद आपका

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सही कहा है जी।
सुन्दर पोस्ट है।

पोस्ट के साथ-साथ गोवर्धन-पूजा
और भइया-दूज की शुभकामनाएँ!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार इस सार्थक प्रयास है.

मनोज कुमार ने कहा…

अनंत की स्पष्टता को स्पषट करने का प्रयत्न स्पष्ट है। अज्ञात के प्रति जिज्ञासा स्पष्ट है।

निर्मला कपिला ने कहा…

इस सार्थक व्याख्या के लिये शुभकामनायें । सुन्दर प्रयास है

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

बहुत सरल तरीके से विस्तृत व्याख्या की है, जो सहज ही श्लोक को सुबोध बना गयी.
ज्ञानवर्धन और जानकारी के लिए हार्दिक आभार.

हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

Rakesh Kumar ने कहा…

आज मै आपसे बातें न करता तो वंचित रह जाता अमूल्य ज्ञान से जो आपने इस पोस्ट में वर्णित किया है.सावधानी हटी,दुर्घटना घटी.
बहुत सावधान कर दिया है आपने.जड़ भरत और अजामिल के अच्छे उदहारण दिए हैं.बहुत बहुत आभार.

Rakesh Kumar ने कहा…

माफ कीजियेगा वंदनाजी,यह श्लोक सातवें अध्याय का न होकर छटवें अध्याय का चालीसवां श्लोक है.
कृपया चैक कर लें.