श्रीमद्भागवद्गीता के १२ वे अध्याय के १५ वे श्लोक की बहुत ही सुंदर व्याख्या स्वामी रामसुखदास जी ने की है कि भक्त कैसा होता है और कैसा भक्त भगवान को प्रिय है।
श्लोक
श्लोक
जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नही होता और जिसको ख़ुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नही होता तथा जो हर्ष , अमर्ष (इर्ष्या), भय, और उद्वेग से रहित है , वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या
भक्त सबमें और सर्वत्र अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन , वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियायें एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए होती हैं। ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है ? फिर भी भक्तों के चरित्र में ये देखने में आता है कि उनकी महिमा , आदर सत्कार यहाँ तक की उनकी सौम्य आकृति मात्र से भी कुछ लोग इर्श्यावश उद्गिन हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं । भक्त की क्रियाएं कभी किसी के उद्वेग का कारण नही होती क्यूंकि भक्त प्राणिमात्र में भगवान को ही देखता है । उसके द्वारा भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नही होती। जिनको उससे उद्वेग होता है वह उनके अपने राग - द्वेष युक्त आसुर स्वभाव के कारण होता है ,जो होता है वो उनके अपने स्वभाव के कारण होता है तो इसमें भक्त का क्या दोष?
हिरन , मछली और सज्जन क्रमशः तिनके , जल और संतोष पर ही जीवन निर्वाह करते हैं परन्तु व्याध , मछुए और दुष्ट्लोग अकारण ही इनसे वैर रखते हैं ।
भक्तों से द्वेष रखने वाले भी उनके चिंतन संग , स्पर्श और दर्शन से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गए ----ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही सेतु है। परन्तु भक्तों से द्वेष रखने वाले सभी लोगों को लाभ ही मिलता हो ऐसा कोई नियम नही है।
लोगों को अपने आसुर स्वाभाव के कारण भक्त की हितकर क्रियाओं से भी उद्वेग हो जाता है और वे बदले की भावना से भक्त के विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपने को भक्त का शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्त की दृष्टि में न कोई शत्रु होता है और न ही उद्वेग का भावः।
वास्तविकता का बोध होने और भगवान में अत्यन्त प्रेम होने के कारण भक्त भगवत्प्रेम में इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान के ही दर्शन होते हैं और भगवान की ही लीला दिखाई देती है। मनुष्य को दूसरों से उद्वेग तभी होता है जब उसकी कामना,मान्यता , साधना धारणा आदि का विरोध होता है । भक्त सर्वथा पूरनकाम होता है इसलिए दूसरों से उद्वेग होने का कोई कारण ही नही रहता।
किसी के उत्कर्ष को सहन न करना अमर्ष कहलाता है । दूसरों को अपने से अधिक सुविधा संपन्न प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अंतःकरण में इर्ष्या का भावः पैदा होता है क्यूंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नही होता । कई बार साधकों के मन में भी दूसरे साधको की आध्यात्मिक उन्नति देखकर इर्ष्या का भावः जागृत हो जाता है पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है क्यूंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रभु के सिवाय और किसी की स्वतंत्र सत्ता नही होती तो फिर क्यूँ और किससे अमर्ष करे।
अगर साधक के मन में दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भावः पैदा हो कि मेरी भी ऐसी ही अध्यात्मिक उन्नति हो तो ये भाव उसके साधन में सहायक होता है। मगर ग़लत भावः अमर्ष पैदा करने वाला होता है।
इष्ट के वियोग और इष्ट के संयोग की आशंका से होने वाले विकार को भय कहते हैं। भय दो कारणों से होता है --------बाहरी कारण जैसे सिंह , सौंप , चोर आदि, दूसरा भीतरी कारण जैसे चोरी , झूठ , कपट आदि से होने वाला भय।
सबसे बड़ा भय मौत का होता है । विवेकशील कहे जाने वाले लोगों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है । साधक को भी सत्संग, भजन आदि में कृश होने का भय रहता है या उसको अपने परिवार के भरण पोषण का भय रहता है । ये सभी भय शरीर की जड़ता के आश्रय से पैदा होते हैं परन्तु भक्त सदा भगवान के आश्रित रहता है इसलिए भयमुक्त रहता है । साधक को भी तभी तक भय जब तक वह भगवान के आश्रित नही होता। सिद्ध भक्त तो सब जगह अपने भगवान की लीला देखते हैं तो भगवान की लीला उनके मन में भय कैसे पैदा कर सकती है।
मुक्त पद का अर्थ है सर्वथा विकारों से छूटा हुआ। अंतःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात परमात्मा में पूर्णतया मन बुद्धि न लगने से ही हर्ष,अमर्ष,भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं । परन्तु भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता होती ही नही इस कारण उसमें ये विकार उत्पन्न ही नही होते।
गुणों का अभिमान करने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं । अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है। भक्त को इस बात की जानकारी ही नही होती की मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कोई गुण दीखता भी है तो वो उसे भगवान का ही मानता है अपना नही। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण दुराचारों विकारों से मुक्त होता है ।
भक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।
भक्त सबमें और सर्वत्र अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन , वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियायें एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए होती हैं। ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है ? फिर भी भक्तों के चरित्र में ये देखने में आता है कि उनकी महिमा , आदर सत्कार यहाँ तक की उनकी सौम्य आकृति मात्र से भी कुछ लोग इर्श्यावश उद्गिन हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं । भक्त की क्रियाएं कभी किसी के उद्वेग का कारण नही होती क्यूंकि भक्त प्राणिमात्र में भगवान को ही देखता है । उसके द्वारा भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नही होती। जिनको उससे उद्वेग होता है वह उनके अपने राग - द्वेष युक्त आसुर स्वभाव के कारण होता है ,जो होता है वो उनके अपने स्वभाव के कारण होता है तो इसमें भक्त का क्या दोष?
हिरन , मछली और सज्जन क्रमशः तिनके , जल और संतोष पर ही जीवन निर्वाह करते हैं परन्तु व्याध , मछुए और दुष्ट्लोग अकारण ही इनसे वैर रखते हैं ।
भक्तों से द्वेष रखने वाले भी उनके चिंतन संग , स्पर्श और दर्शन से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गए ----ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही सेतु है। परन्तु भक्तों से द्वेष रखने वाले सभी लोगों को लाभ ही मिलता हो ऐसा कोई नियम नही है।
लोगों को अपने आसुर स्वाभाव के कारण भक्त की हितकर क्रियाओं से भी उद्वेग हो जाता है और वे बदले की भावना से भक्त के विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपने को भक्त का शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्त की दृष्टि में न कोई शत्रु होता है और न ही उद्वेग का भावः।
वास्तविकता का बोध होने और भगवान में अत्यन्त प्रेम होने के कारण भक्त भगवत्प्रेम में इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान के ही दर्शन होते हैं और भगवान की ही लीला दिखाई देती है। मनुष्य को दूसरों से उद्वेग तभी होता है जब उसकी कामना,मान्यता , साधना धारणा आदि का विरोध होता है । भक्त सर्वथा पूरनकाम होता है इसलिए दूसरों से उद्वेग होने का कोई कारण ही नही रहता।
किसी के उत्कर्ष को सहन न करना अमर्ष कहलाता है । दूसरों को अपने से अधिक सुविधा संपन्न प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अंतःकरण में इर्ष्या का भावः पैदा होता है क्यूंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नही होता । कई बार साधकों के मन में भी दूसरे साधको की आध्यात्मिक उन्नति देखकर इर्ष्या का भावः जागृत हो जाता है पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है क्यूंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रभु के सिवाय और किसी की स्वतंत्र सत्ता नही होती तो फिर क्यूँ और किससे अमर्ष करे।
अगर साधक के मन में दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भावः पैदा हो कि मेरी भी ऐसी ही अध्यात्मिक उन्नति हो तो ये भाव उसके साधन में सहायक होता है। मगर ग़लत भावः अमर्ष पैदा करने वाला होता है।
इष्ट के वियोग और इष्ट के संयोग की आशंका से होने वाले विकार को भय कहते हैं। भय दो कारणों से होता है --------बाहरी कारण जैसे सिंह , सौंप , चोर आदि, दूसरा भीतरी कारण जैसे चोरी , झूठ , कपट आदि से होने वाला भय।
सबसे बड़ा भय मौत का होता है । विवेकशील कहे जाने वाले लोगों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है । साधक को भी सत्संग, भजन आदि में कृश होने का भय रहता है या उसको अपने परिवार के भरण पोषण का भय रहता है । ये सभी भय शरीर की जड़ता के आश्रय से पैदा होते हैं परन्तु भक्त सदा भगवान के आश्रित रहता है इसलिए भयमुक्त रहता है । साधक को भी तभी तक भय जब तक वह भगवान के आश्रित नही होता। सिद्ध भक्त तो सब जगह अपने भगवान की लीला देखते हैं तो भगवान की लीला उनके मन में भय कैसे पैदा कर सकती है।
मुक्त पद का अर्थ है सर्वथा विकारों से छूटा हुआ। अंतःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात परमात्मा में पूर्णतया मन बुद्धि न लगने से ही हर्ष,अमर्ष,भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं । परन्तु भक्त की दृष्टि में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता होती ही नही इस कारण उसमें ये विकार उत्पन्न ही नही होते।
गुणों का अभिमान करने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं । अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है। भक्त को इस बात की जानकारी ही नही होती की मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कोई गुण दीखता भी है तो वो उसे भगवान का ही मानता है अपना नही। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण दुराचारों विकारों से मुक्त होता है ।
भक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।
गुणों का अभिमान करने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं । अपने में किसी गुण के आने पर अभिमान रूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाए तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है। भक्त को इस बात की जानकारी ही नही होती की मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कोई गुण दीखता भी है तो वो उसे भगवान का ही मानता है अपना नही। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण दुराचारों विकारों से मुक्त होता है ।
जवाब देंहटाएंभक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिए भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं।
bahut achcha laga ......... sukoon sa.....
बहुत सुन्दर बिचारों को लिख कर हम लोगों
जवाब देंहटाएंतक पहुँचने का बहुत -बहुत धन्यबाद
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर विचार।धन्यवाद।
निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।
जवाब देंहटाएंएक प्रयास.
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रयास!
भक्ति प्रकाश,
सच्चा प्रयास!!