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मंगलवार, 14 सितंबर 2010

नई सुबह ............भाग ७

और मैं अपने घर की और चीखते -चिल्लाते हुए दौड़ा. मेरे पीछे -पीछे एक भिखारी दोस्त भी भागा मुझे आवाज़ देते हुए -रूक जाओ भैया, रूक जाओ लेकिन मुझे तो होश ही नहीं था. मुझे तो वो ही याद था कि मेरे माँ बाप इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे उनका अंतिम संस्कार करना है ................अब आगे ...........


जब मैं अपने घर पहुँचा तो वहाँ तो एक  आलिशान कोठी खडी थी और उसमे कोई और रहता था . मैंने कहा ये मेरा घर है मगर वहाँ मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई . आस- पास वालों से बात करने पर पता चला कि मेरे माता- पिता की मृत्यु का गहरा सदमा लगा था मुझे और मैं पागल हो गया था इसलिए मुझे पागलखाने में दाखिल करा दिया गया था . कुछ दिन तो जान- पहचान वाले आते रहे और दोस्त भी, मगर धीरे- धीरे सबने आना बंद कर दिया . ना ही किसी ने घर को देखा और ना ही मुझे . यहाँ तक कि मेरे मकान पर भी असामाजिक तत्वों ने कब्ज़ा कर लिया और फिर उसे ऊँचे दामों पर बेच दिया और जिसने ख़रीदा वो भी वहाँ कोठी बनाकर रहने लगा था . पडोसी तो क्या कर सकते थे .........बदमाशों से सभी डरते हैं इसलिए वो सब भी चुप रहे ..........रिश्तेदार सब सुख के ही साथी होते हैं और जिसका कुछ ना रहा हो उस तरफ कौन ध्यान देता है इसलिए सभी ने किनारा कर लिया . 


पड़ोसियों ने ही बताया कि एक लड़की आया करती थी . उसी से तुम्हारा हाल- चाल मिला करता था मगर पिछले ३-४ साल से उसका भी कोई पता नही क्योकि आखिरी बार जब वो आई थी तो उसी से पता चला था कि एक दिन तुम पागलखाने से भाग गए थे और वो तुम्हें ढूंढती हुई ही आई थी मगर उसके बाद उसका भी कुछ पता नहीं था. 


ये सब सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान ने सारे जहान के  दुःख मेरे ही हिस्से में लिख दिए है . मैंने अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश की कि किसी तरह शैफाली  का पता चल जाये मगर मुझे उसका पता नहीं मिला . यहाँ तक कि कॉलेज से भी पूछने की कोशिश की तो वहाँ भी किसी ने कोई जानकारी नहीं दी क्यूँकि किसी लड़की के बारे में जानकारी तो वैसे भी मुहैया नहीं कराते जल्दी से .आज अपनी बेवकूफी पर अफ़सोस हो रहा था कि कभी शैफाली के घर क्यूँ नहीं गया , उसका पता क्यूँ नहीं पूछा . फिर भी अपनी तरफ से हर कोशिश के बाद भी मैं हारता ही गया . हर जगह निराशा ही हाथ लगी. 


यहाँ तक कि मुझे अफ़सोस होने लगा कि भगवान तू मुझे होश में ही क्यों लाया ? कम से कम बेहोशी में दुनिया के हर गम से दूर  तो था मगर इस भरी दुनिया में अपना कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं था . यार- दोस्तों का भी नहीं पता कौन कहाँ चला गया था और वैसे भी उनसे क्या उम्मीद जिन्होंने मुझे किस्मत के भरोसे छोड़ दिया हो. अब तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं जिंदा ही क्यूँ हूँ? 

मगर इतना सब कुछ होते हुए  भी मेरे साथ जो मेरा भिखारी दोस्त था वो मेरे साथ साये की तरह था और हर बार मेरा होंसला बढ़ा रहा था .अब मैंने उससे पूछा ,"मैं तुम्हें कैसे मिला "? तब उसने बताया कि जब उन लोगों के झगडे में तुम्हें चोट लगी थी तो सब तुम्हें तड़पता हुआ छोड़ कर चले गए थे और तुम बेतहाशा कराह रहे थे तब मैंने ही तुम्हारी देखभाल की थी और उसी पल से मैं तुम्हारे साथ हूँ. उसका नाम कृष्णा था. मगर मुझे ये नहीं पता चल पाया कि पागलखाने से भाग जाने के बाद मैं कहाँ रहा ? कैसे दिन गुजरे? किसने देखभाल की? इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं चल पाया. 


अब कृष्णा ने कहा ,"अब तुम क्या करोगे भैया "?................


क्रमशः ..................

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया कथानक चल रहा है ....सुन्दर प्रस्तुति करण ...

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  2. gahri samvedana se bhari kahani...
    हिंदी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये....

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  3. सारी किस्तें एक साथ पढ़ी, बिल्कुल बांध लिया कहानी, बस अब आगे की कहानी का इन्तजार.............

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  4. आज बाकी कड़ियाँ भी पढ़ीं....कहानी तो नए नए मोड़ लेती जा रही है....आगे और कितने चौंकाने वाले तथ्य हैं??...इंतज़ार है अगली कड़ी का....

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