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रविवार, 14 अक्टूबर 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप --1

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
श्री गणेशाय नमः
श्री सरस्वत्यै नमः
श्री सद्गुरुभ्यो नमः 

अब इसे क्या कहूं वार्तालाप या प्रश्नोत्तरी या भक्त और भगवान की खट्टी मीठी नोंक झोंक .........मगर ये भाव उठते जरूर हैं हर किसी के मन में तो आज उन्हें ही कहने का प्रयत्न किया है और पता नहीं सबके मन मे उठते भी हैं या नहीं मगर मेरे मन मे उठे और मैनें उनसे प्रश्न किये तो उन्होने अन्दर से यही उत्तर दिये जो आज आप सबके सम्मुख हैं…………



जीवन मृत्यु बने दो द्वार
आवागमन से ना पाया पार
इधर जीव घबराया 
उधर ईश्वर भी अकुलाया
जब विकल हुई दोनों की धार
मिलन का बन गया आधार
सम्मुख प्रभु को पाया जब उसने
जिह्वा  तब लगी रुकने
अनुपम सौंदर्य में खो गया
अपना सर्वस्व भी भूल गया
तब प्रभु ने चेतना का किया संचार
क्यूँ घबराया था यूँ अकुलाया था
किया प्रश्न ये बारम्बार
जब चेतना जागृत हुई
खुद की जब स्मृति हुई
जीव ने प्रश्न किया इस बार
प्रभो ! क्यों जन्म मृत्यु का रचा संसार
जिसमे बांधा कर्म का तार ?
मधुर मुस्कान धर प्रभु ने
सुधामय वाणी से दिया जवाब
ये मेरा है लीला विलास
नित्य खेल मैं रचता हूँ
बस तुझमे विलक्षण बुद्धि धरता हूँ
मगर तू उससे ऐसे लिपटता है
स्व स्वरुप भी भूलता है
ना तेरे आना हाथ में 
ना तेरे जाना हाथ में
फिर क्यूँ मैं -मैं का नारा रटता है
जबकि तू कुछ नहीं है
मात्र हाथों की कठपुतली है
बस यही भूल तू करता है
और आवागमन में फंसता है
सुन जीव मुस्कुराया 
प्रभु की चाल समझ प्रश्न किया
जब तुम्हारा खेल है
तुम उसके नियंता हो 
तुम ही सारा कर्ता- धरता हो
फिर क्यूँ बुद्धि की आड़ लेते हो
क्यूँ जीव को भरम ये देते हो
जब तुम खुद ही सब कुछ करते हो
फिर क्यूँ खुद को कर्तुम अकर्तुम 
अन्यथा कर्तुम कहते हो
जब नाटक तुमने लिखा
उसके सब पात्र तुमने रचे
सब पात्रों को संवाद तुमने दिया
अभिनय को मंच दिया 
फिर भला बताओ तो ज़रा 
कैसे जीव की बुद्धि का यहाँ 
प्रवेश हुआ
सारी रचना के रचयिता तुम हो
तो कैसे तुमसे पात्र उन्मुख हो सकता है
वो तो तुम्हारे इशारे पर ही चलता है
फिर भी अभिनय मंच पर 
दृश्य चाहे बदलता है 
समय भी नए रूप धरता है
मगर नाटक वो ही चलता है
वो उससे बाहर ना निकलता है
तुमने उसे ऐसे घेरा है
चाहकर भी ना निकल सकता है
फिर कहो तो जीव ने कब 
स्वयं को तुमसे ऊपर माना
वो तो तुम्हारी ऊंगली के इशारे पर
अभिनय करता है 
जब पात्र का हर संवाद तुम्हारा है
उसकी हर गतिविधि पर लगा
पहरा तुम्हारा है 
फिर कैसे कहते हो 
ये अपने मन की करता है 
सुन प्रभु  मुस्काए
और जीव के सारे भेद सुलझाये
हाँ ....मैं ही ये खेल रचता हूँ
मैं ही पात्रों को संवाद देता हूँ
अभिनय की तालीम देता हूँ
और रंगमंच पर छोड़ देता हूँ
मगर वो अभिनय की बारीकियां भुला देता है
खुद को खुदा मन बैठता है
जो मैंने संवाद दिए 
जैसा अभिनय को कहा
ठीक उससे उलट जब करता है
तभी उसके भाग्य का पांसा पलटता है
और वो आवागमन में फंसता है
अरे वाह प्रभु .........ये कैसे कह सकते हो
तुमने शिशु रूप में जन्म दिया
अब बताओ तो जरा 
उस जरा से शिशु ने ऐसा कौन सा कर्म किया
जो वो अपने मन की कर सके
अभी तो वो बोलना भी नहीं जानता है
ना खुद अपने नित्यकर्म कर सकता है
फिर बुद्धि के प्रयोग की तो बात ही दूसरी हो जाती है
अब उसे जैसे सांचे में 
ढालना होता है
तुम उसमे वैसा ही रंग भर देते हो
और अपने मन का आकार देते हो
और दोष जीव के मत्थे मढ़ देते हो 
बताओ ये कौन सा खेल हुआ
जिसमे सिर्फ परवशता होती है 
बिन सहारे के तो लकड़ी भी नहीं खडी होती है
उसके मुँह में जुबान भी तुम ही देते हो
बुद्धि रूप में भी तुम ही प्रवेश लेते हो
अब कैसे जीव का कोई कर्म 
अकर्म हो सकता है 
जब हर रूप में तुमने ही आकार लिया होता है
अरे मेरे भोले भक्त
तूने सिर्फ जो सुना देखा जाना 
वो तो सिर्फ एक पक्ष होता है
हर तस्वीर का एक 
दूसरा पक्ष भी होता है
बेशक मैं ही सबमे व्याप्ता हूँ
और मैं ही हर सांचे को आकार देता हूँ
मगर साथ में उसमे 
एक गुण भी भर देता हूँ
उसकी बुद्धि में एक बात धर देता हूँ
देख रंगमंच पर जाकर 
तू मुझे ना भूल जाना
मैं तेरा जनक हूँ
गोड फादर हूँ
तू मुझे ना भुलाना
अभिनय करते करते कहीं
उसी में ना रच बस जाना
और जीव मुझसे वादा करता है
और जब रंगमंच पर उतरता है
तो पात्र में ऐसे डूब जाता है
वो अपने घर का पता भी भूल जाता है
और फिर अपनी बुद्धि
दूसरे गोरख धंधों में लगाता है
मगर जिसने भेजा उसे याद नहीं करता है
और मैं इस खेल का रचयिता 
ये देख देख कर दुखी होता हूँ
ये मेरे पात्र को क्या हुआ
कैसे इसने नया रंग लिया
मेरा तो सारा खेल ही
इसने बिगाड़ दिया
अब इसे याद दिलाने को
अपनी पहचान कराने को
मैं दूसरे पात्र या घटनाएं 
उसके जीवन में अवतरित करता हूँ
मगर ये अपने अहम् के वशीभूत हो
सबको दरकिनार करता है
और खुद को ही दुनिया का
भगवान समझता है
जब मैं समझा समझा कर 
हार जाता हूँ
तब उसे अपने पास बुलाता हूँ
और अपनी पहचान करवाता हूँ
जब उसे समझ आ जाता है
और जब वो एक मौका
और चाहता है
उसे फिर से दुनिया में भेज देता हूँ
ये सोच इस बार ये जरूर बदलेगा
मगर वो फिर भी नहीं सुधरता है
और बार बार खुद ही आवागमन में फंसता है
सुन भक्त खिलखिलाकर हँस पड़ा
और प्रभु से प्रश्न किया 
अरे प्रभु ......एक तरफ तुम
गीता में उपदेश ये देते हो
मैं ही सबका कर्ता- धरता हूँ
मेरी इच्छा के बिना तो 
पत्ता भी नहीं हिल सकता है
फिर कहो तो कैसे कोई जीव
अपने मन की कर सकता है
जब तुम ही हर रूप में समाये हो
जब तुम्हारा ही ये संसार रचाया है
और इसके कण - कण में तुम ही समाये हो
फिर कहो कैसे जीव और ब्रह्म का भरम  फैलाये हो 
जब मुझमे भी तुम हो
और तुम में मैं
हर कण कण में सृष्टि के
तुम्हारा ही दर्शन होता है
फिर भला वहाँ कैसे 
किसी की बुद्धि का प्रवेश हो सकता है
कहीं कहते हो 
मैं कुछ नहीं करता हूँ
मैं निर्लेप रहता हूँ
और कहीं कहते हो
सब मेरी दृष्टि का विलास है
सबमे मेरी माया समायी है
मैं ही जर्रे जर्रे में समाया हूँ
मुझसे ही ये सृष्टि जगमगाई है
अब तुम खुद ही दोगली बात करते हो
और जीव को दुधारी तलवार पर चलाते हो
और दूर खड़े तुम मुस्काते हो
ये तो ना न्याय हुआ
ये तो सब तुम्हारा ही किया धरा हुआ
तुम बस यूँ ही जीव को फंसाते हो
और उसकी दुर्दशा देख मुस्काते हो
क्यूँकि खुद ही रचयिता होते हो
खुद ही पात्र भी बनते हो
और खुद ही तुम दिल्लगी करते हो
और दोष जीव पर मढ़ते हो
प्रभु ये ना सही खेल हुआ
इसमें तुम्हारा पांसा तुम ही पर
उल्टा पड़ गया 
भक्त की मीठी बातें सुन
प्रभु खिलखिला उठे
और भक्त की बात को ही 
ऊंचा बना दिया
हाँ मैं ही सब कर्ता नियंता हूँ 
मान लिया और 
भक्त का मान रख लिया 

क्रमश: ……………

10 टिप्‍पणियां:

  1. लंबा संवाद...रुचिकर था अन्त तक पढ़ गई...ये सवाल जवाब मन में होते रहते हैं...नयी श्रृखंला के लिए शुभकामनाएँ!!!

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  2. ईश्वर तो भक्त के पीछे पीछे चल देते हैं।

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  3. हर कण मे वही है
    सोहम सोहम
    लम्बी कविता लेक्न रुचिकर

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  4. भक्त और भगवान् में अच्छा संवाद -अच्छी रचना

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  5. भक्त और भगवान् में अच्छा संवाद -अच्छी रचना

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  6. हे राम!
    इतनी लम्बी प्रश्नोत्तरी.
    फिर भी धाराप्रवाह,रोचक और विचारणीय.
    मैं तो अभी मूढ़ हैं,
    मुझे तो बस इतना ही पता है जी

    भज गोविन्दम भज गोविन्दम
    भज गोविन्दम मूढ़ मते

    आप कृष्ण कृपा से 'अमूढ़' हो चुकी हैं,वन्दना जी.मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ आपको.

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  7. खूब बढ़िया और लंबा संवाद चला ईश्वर के साथ .... :):)

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