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मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

" इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप "…भाग 4



प्रभो
ना जाने कौन सा खेल खेल रहे हो
क्यों मन में सवालों के भंवर उठा रहे हो
ये तो तुम ही जानो 
क्या है तुम्हारी माया
मैं तो जीव परवश हूँ
इसलिए जो प्रश्न रूप में तुम 
अवतरित हुए हो
उसे ही तुम्हारे सम्मुख रखता हूँ
आखिर शब्द "मै" ने फिर एक प्रश्न उठाया
लो फिर प्रश्नों की गंगा लेकर
मै तुम्हारे सम्मुख आया
इस बार तुम जरूर अनुत्तरित होंगे
तुम्हें हराना मेरा मंतव्य नही
बस ये भी तुम्हारी ही
कोई माया दिखती है
जिसे तुम्हारे सम्मुख
तो लाना होगा और
खुद को प्रश्न जाल से
बाहर निकालना होगा 
तुम कहते हो 
मैंने जीव को धरती पर भेजा
सिर्फ भगवान को पाने के लिए
और ये आकर यहाँ
विषय विकारों
घर गृहस्थी के चक्कर में
मुझको भूल गया
इसलिए इसे अपने पास बुलाने को
अपनी याद दिलाने को 
कभी कभी विपदाएं देता हूँ
और अपनी याद कराता हूँ
अरे भगवन ये कैसा तुम्हारा कृत्य हुआ?
ऐसे तो तुमने खुद को ही 
महिमामंडित किया 
अपने "मैं " को प्रधान बताया
सिर्फ अपने को ही 
पुजवाना चाहा 
दूसरी बात 
तुम कहते हो 
जीव तुम्हारा ही अंश है
या कहो 
हर रूप में तुम ही विराजते हो
तो बताओ तो जरा
यदि जीव रूप में तुम ही हो
और जीव भी "मैं मैं "
ही करता है
अपने लिए ही जीता है 
तो क्या बुरा करता है
जब तुम "मैं हूँ एक ब्रह्म"
इस सत्य को उद्घाटित करते हो
तो क्या तुम खुद नहीं
"मैं" के भंवर में फंसते हो 
और अपने " मैं " को संतुष्ट करने के लिए
ये अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचते हो 
जब घर गृहस्थी में फंसाया है
तो जीविकोपार्जन हेतु
कार्य तो उसे करना होगा
जीवन सञ्चालन के लिए 
उद्योग भी करना होगा
और उसमे झूठ सच का 
सहारा भी लेना ही पड़ता है
हर काम सिर्फ तुम्हारे नाम पर ही
तो नहीं चल सकता है ना
फिर जब सब तुम्हारा है
सब में तुम हो
तो बताओ
भिन्नता कैसी ?
कौन किससे भिन्न हुआ ?
जीव रूप में भी तुम
ईश्वर तो हो ही तुम
तो जीव ने "मैं" कहा 
तो क्यों तुम्हें बुरा लगा
क्या वो "मैं" कहने वाला
तुम ना हुए?
क्या वो "मैं" तुमसे भिन्न हुआ ?
और खुद को खुद से पुजवाना
अपनी याद दिलाना 
ये तो सब तुम्हारे ही 
क्रियाकलाप हुए ना
फिर कैसे जीव इनका कर्ता और भोक्ता हुआ ?
जब हर रूप में तुम ही 
विराजते हो
जब तुम कहते हो
तुम्हारी इच्छा के बिना 
पत्ता तक हिलता नहीं
फिर यहाँ किसे किससे भिन्न कर रहे हो ?
क्यों ये भेद बुद्धि बनाई तुमने
जो जीव और ब्रह्म में फंसाई तुमने
पहले तुम ही सही निर्णय कर लो
कि तुम जीव हो या ब्रह्म
कि तुम ही हर जीव में समाये हो ना नहीं
कि हर रूप में तुम ही तुम होते हो
सब कल्पना विलास हो या यथार्थ
हर रूप , भाव , शब्द, कथन
सबमे तुम्हारा ही तो रूप समाया है
फिर बताओ तो जरा
कौन किससे जुदा है
फिर कौन ये नट का खेल खेलता है 
भोले भक्त की बातें सुन
प्रभु मुस्काते हैं
मन ही मन हर्षित होते हैं
जानते हैं ना 
ये प्रश्न हर दिल में उठता है
शायद तभी आज 
इसे कहने की इसने हिम्मत की है
जो हर कोई नहीं कर पाता है
यदि करता है तो उसके
प्रश्नों का ना सही उत्तर मिलता है 
प्रभु बोले 
प्यारे भक्त मेरे
क्यों तू भूलभुलैया में फंसता है
एक तरफ तू खुद ही कह रहा है
कि सब करने वाला मैं ही हूँ
तो सोच जरा
तेरे मन में उठने वाला प्रश्न 
भी मैं ही हूँ
और जवाब देना वाला भी मैं ही हूँ
मेरी शक्ति अदम्य है
मुझसे ना कुछ भिन्न है
जब नटवर कहा है तो
उसकी जादूगरी में भी 
तो फंसना होगा
गर उसका हर खेल जान लिया 
तो बताओ तो जरा
वो कैसा जादूगर हुआ
फिर भी बतलाता हूँ
हाँ .........मैं हूँ रचयिता
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही क्रियाकलाप है
कुछ भी ना मुझसे भिन्न है
मैंने ही ये खेल रचा है
मैं ही कार्य, कारण और कर्ता, भोक्ता हूँ 
मैं ही जगत नियंता हूँ
क्या मैं खेल नहीं रच सकता हूँ
बस खेल ही तो खेल रहा हूँ
फिर तू क्यों उलझन में पड़ता है
क्यों नही निर्विकार होकर रहता है
जब तू जान गया 
मेरे सत्य रूप को पहचान गया
फिर क्यों भेद बुद्धि में फंसता है
बस सब आशा, तृष्णा ,अहंता, ममता 
राग- द्वेष, जीवन- मृत्यु, हानि -लाभ 
सब को छोड़ एक मेरा निरंतर ध्यान धर
मुझमे ही अपने स्वरुप का विलय कर 
बस एक बार अपने सब कर्म 
मुझको अर्पण कर दे
फिर मुझमे ही तू मिल जायेगा 
सारे कर्म बंधनों से मुक्त हो जायेगा 
बात तो प्रभु फिर वहीँ आ गयी
जब सब तुम्हारा है
तुम ही कर्ता भोक्ता हो
फिर मेरी क्या हस्ती है ?
कैसे मैं खुद को नियंत्रित कर सकता हूँ
सब तुम्हारा रचाया तो खेल है
उसमे मैं कैसे विघ्न उत्पन्न कर सकता हूँ
क्या मेरे हाथ में तुमने कुछ दे रखा है
क्या मैं अपनी मर्जी से कुछ कर सकता हूँ
नहीं ना ..........तो ये अर्पण समर्पण भी
सब तुम्हारा है
तुम ही जानो
कराओ तो सही ना कराओ तो सही
क्योंकि मेरी दृष्टि में तो 
तुम ही सब करने वाले हो
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सबमे 
तुम ही तो समाये हो
और सबके नियंत्रणकर्ता भी तुम ही हो
तो भला मैं कैसे स्वतंत्र हुआ 
मैं तो तुम्हारे हाथ की वो कठपुतली हूँ
जिसे जैसे चाहे नचाते हो
अब ये प्रश्न रूप में भी तुम ही हो
और उत्तर रूप में भी तुम ही हो
फिर भला मेरी क्या हस्ती है
अब मान भी जाओ 
अपने " मैं " के पोषण के लिए
तुम ही भिन्न रूप रखते हो
स्वयं को महिमामंडित करते हो
मानो प्रभु ..........तुम भी "मैं " के जाल से ना मुक्त हो 
ज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी
अज्ञानता के तम में फँस जाता है 
जीव ऐसे ही तो उसके 
चक्रव्यूह में फँस जाता है
जब ये अजीबो गरीब प्रश्न 
उसके मन में उठते हैं
उफ़ ! ये कैसा अजब जाल बिछाया है 
आज तो जग नियंता पालनकर्ता भी
अपने जाल में फँस गया 
मंद मंद मुस्काता है 
मगर कह कुछ ना पाता है 
बस यही तो भक्त और भगवन की 
अजब गज़ब लीलाएं चलती हैं
जो नए नए रूप बदलती हैं 
मगर सत्य हर युग 
हर काल मे एक ही रहता है 
करने कराने वाला तो
 सिर्फ़ वो ही होता है 
हम तो सिर्फ़ माध्यम बनते हैं 
और इसी बल पर ऐंठे फ़िरते हैं 
जरा सी ढील देता है तो 
पतंग लहराने लगती है 
और जरा सी खींच दे तो 
सही राह पर चलने लगती है 
बस कटने से पहले तक ही 
ये प्रश्न मन मे उठते हैं 
जिनके उत्तरों मे हम 
जनम जनम भटकते हैं 
जो उत्तर पा जाता है 
वो निरुत्तर हो जाता है 
ये भी कोई माया है 
ये भी कोई खेल होगा 
यूँ ही तो नही बिना कारण प्रश्नोत्तरी रूप धरा होगा 
हाँ , आज तुम्हें एक नया नाम दे दिया …………मेरे प्रश्नोत्तर! 
शायद ये भी प्रीत का ही कोई रंग होगा 
यूँ ही तो नही ये नाम तुम्हें मिला होगा ……खुश तो हो ना !!!!!!


शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप…3

प्रभु और भक्त की नोंक झोंक अब अगले मुकाम पर आ पहुँची ………


अगला प्रश्न भक्त ये करता है
प्रभु एक तरफ तुम ये कहते हो
तेरा योगक्षेम मैं वहन करूंगा
तू बस मेरा चिंतन कर
और जब भक्त ऐसा करता है
फिर भी तुम अपनी कलाबाजियों से 
बाज नहीं आते हो
और बीच बीच में उसे 
किसी ना किसी तरह सताते हो
बताओ भक्त कैसे निश्चिन्त हो
जब तुम ही उसे धोखा देते हो
और कठिन परीक्षा की आग में झोंक देते हो
बेचारा भक्त तो निश्चिन्त हो जाता है
अपना हर कर्म , हर सोच , हर विचार 
सब तुम्हें ही अर्पण कर देता है
जहाँ वो अपना कुछ नहीं मानता है
फिर बताओ तो जरा 
तुम कैसे ऐसे भक्त को
परीक्षा की उलझन में डाल देते हो
क्या तुम्हारा दिल नहीं पिघलता है
माना सुना है कि आँच की कसौटी पर
ही सोना कुंदन बनता है 
मगर जिसे तुमने छू लिया हो
जो पारसमणि बन गया हो
उसे अब और क्या प्रमाणित करने को रहा
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हें इस खेल में ज्यादा मज़ा आता है
और अपनी सत्ता का अहसास कराकर 
तुम आनंदित होते हो
हाय रे मेरे प्यारे ! तू भी आज मुझे
अजब भक्त मिला है
जिसने मेरे सारे खेलों को खोला है
मैं यूँ ही नहीं ऐसे खेल रचता हूँ
पात्र देखकर ही उसमे जल भरता हूँ
ये सब अपने लिए नहीं करता हूँ
जब देखता हूँ मटका पक चुका है
तभी उसे जल में प्रवाहित करता हूँ
ताकि बाकी सब भी उसका अनुसरण करें
और जल्द से जल्द मुझसे आ मिलें
क्योंकि भक्त और मुझमे जब 
कोई भेद नहीं रहता है
तो भक्त पीड़ा भी वहन नहीं करता है
वो सुख दुःख से परे हो जाता है
हर कृत्य में उसे मेरा खेल ही नज़र आता है
और वो भक्ति भाव से 
उसकी पूर्णता में अपनी 
भागीदारी निभाता है
मगर दोष ना कोई मढ़ता है
क्योंकि दो हों तो दोष मढे
खुद को कैसे कोई खुद ही आरोपित करे
जब भक्त ये जान लेता है
तभी तो परीक्षा पर खरा उतरता है
अब तुम्हारी बात ही मैं कहता हूँ
जब तुम ये कहते हो 
मुझमे और जीव में कोई भेद नहीं
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही लीला विलास है
ना कोई जीव है ना ब्रह्म 
सब मेरा ही रूप मुझमे व्याप्त है
तो फिर प्रश्न कैसा और किससे?
बोलो प्यारे भोले भक्त 
जब सब मैं हूँ 
अपनी परछाईं से खेलता हूँ
तो कहो तो जरा 
सुख में भी मेरा रूप समाया है
और दुःख में भी तो मेरा ही अंतस अकुलाया है
मैं ही मैं चारों तरफ छाया है
फिर तुम पर क्यूँ पड़ी
इन प्रश्नों की छाया है
तुम चाहे दो मानो चाहे एकोअहम 
मगर भेद नहीं कर सकते हो
सुनकर भक्त का माथा झुक गया
वो प्रभु के चरणों में नतमस्तक हुआ
उसे समझ सब आ गया
इसे  प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप 
इसका भेद भी पा गया
ये पूछने वाला भी एक ब्रह्म है
और जवाब देने वाला भी 
वो ही सर्वस्व  है
बस अपने किस रूप को कैसे प्रस्तुत करना है
किस रूप से क्या काम लेना है
किसे कैसे खुद से मिलाना है
कैसे खुद में समाना है
ये सब प्रभु का ही आनंद विलास  है 
जहाँ कोई ना दूजा अस्तित्व प्रगट होता है
ये तो प्रभु की लीला का मात्र एक अंश होता है
खुद से खुद की प्रश्नोत्तरी 
खुद से खुद के जवाब
खुद से खुद की पहचान
सब उनका है दृष्टि विलास
वास्तव में तो प्रभु ने अपनी सत्ता दर्शायी है
और अपने खेल में अपनी भागीदारी ही निभाई है
फिर कहाँ और कौन भक्त
कैसा समर्पण कैसा बँधन
सब उसी का उसी में आनंद समाया है 
बस दृष्टि भेद से फर्क समझ नहीं आया है
अब भक्त की जय कहो या भगवान की 
इसका प्रश्नकर्ता हो या उत्तरदाता 
सब मे वो ही था समाया 
बस माध्यम मुझे था बनाया 
या कहो वो खुद ही इस रूप मे उतर आया
और एक नया पन्ना इस तरह लिखवाया 
जिसे भिन्न रुपों मे वो गा चुका है
पर एक बार फिर से दोहराया 
भूला बिसरा पाठ फिर से याद करवाया 
प्रभु हैं अजब अजब है उनकी माया 
जिसमे "मै" का ना कोई वजूद कहीं पाया


क्रमश:……………

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप............2




मगर ये वार्तालाप 
यहीं ना बंद हुआ 
भक्त ने झट दूसरा प्रश्न दाग दिया
प्रभु जब तुमने मान लिया
तुम ही सब कुछ करते हो
तो बताओ तो जरा
फिर भक्त की परीक्षा क्यूँ लेते हो
क्यों उसे दो के भ्रम में उलझाते हो
क्यूँ तुम में और उसमे कोई भेद है
ये बतलाते हो
सुन प्रभु ने जवाब दिया
जब भक्त मेरे हैं
मैं उनका हूँ
तो उनके प्रेम का परिक्षण करता हूँ
क्या ये भी मुझे उतना ही चाहता है
जितना मैंने इसे चाहा है
या ये अपनी किसी गरज से
मुझसे मिलने आया है
जब खोटा है या खरा 
ये परख लेता हूँ
तब उस पर अपना 
सर्वस्व  न्योछावर करता हूँ
और भक्त के हाथों बिक लेता हूँ
अब वो जैसा चाहे मुझे नचाता है
चाहे तो भूखा रखे
चाहे तो काम करवाए
चाहे तो बर्तन मंजवाए
चाहे तो झाडू लगवाए
मैं उसके प्रेम पर रीझ जाता हूँ
और उसकी ख़ुशी में ही
अपनी ख़ुशी समझता हूँ
जैसे भक्त मेरी ख़ुशी में
अपनी ख़ुशी समझता है
वैसे ही मैं भी उसके साथ करता हूँ
यहाँ दोनों के भाव 
एकाकार हो जाते हैं
दोनों ही अपना स्व भूल जाते हैं
और एक रूप हो जाते हैं
यही तो वो भाव होता है
जिसके लिए मैं ये 
सारी लीला रचता हूँ
और तुम मुझ पर दोषारोपण करते हो
बताओ तो जरा कहाँ फिर
दोनों में कोई भेद रहा
और कब मैंने दो का भेद कहा
यही तो मैं समझाना चाहता हूँ
तू मेरी किरण है जो मुझसे बिछड़ी है
बस एक बार मुझे आवाज़ दे
मैं सौ कदम आगे आ जाता हूँ
और उसे अपने में मिला लेता हूँ
फिर कहाँ दोनों में भेद रहा
ये भेद मैंने नहीं डाला है
बस दृष्टि के बदलने से ही
सृष्टि बदली नज़र आती है
वरना तो तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
यही समझाना चाहता हूँ
पर जीव भूला भूला फिरता है
और आवागमन में फंसता है
अरे अरे फिर तुम उसी बात पर आते हो
प्रभु मुझे फिर घुमाते हो
अभी तो तुमने माना है
सब तुम ही करते हो
तो इस रूप में भी तो 
तुम्हारा ही सारा खेल होता है
भेद विभेद सब दृष्टि भ्रम होता है
जबकि कर्ता कर्म और फल 
सब तुम्हारा ही रूप होता है
देखो ये शब्दों की उलझन में ना उलझाओ
मुझे अपने शब्द जाल में ना फंसाओ
और जब तुम कहते हो
तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
फिर क्यों कठिन परीक्षा लेते हो
क्यों जीव को इतना भटकाते हो
जो जान पर बन आती है
तब जाकर तुम मिलने आते हो
और दूसरी तरफ कहते हो
बस मेरा सुमिरन किया कर
और कर्म सारे मेरे अर्पण किया कर
बताओ तो जरा 
जीव क्या करे और क्या ना करे
कैसे खुद को अपने कर्तव्यों से विमुख करे
जब तुम ही उसे फंसाते हो
कर्त्तव्य निभाने का उपदेश देते हो
कर्म की शिक्षा देते हो
और जब वो कर्म में संलग्न होता है
तब उसे भोगों में लिप्त होने का दंड देते हो
ये कैसा तुम्हारा विधान है
जो जीव की समझ से पार है
अरे भोले भक्त मेरे 
मैंने ना कोई दंड विधान रखा
सिर्फ इतना ही तो है कहा
कर्म करे जा फल की इच्छा मत रख
अर्थात निर्लिप्त भाव से कर्म कर
और अपने सारे कर्म मुझे अर्पण कर
मुझे अर्पण करने से वो ही कर्म तेरा
मेरी  पूजा बन जायेगा
और फिर मुझसे मिलने में
ना कोई बाधा तू पायेगा 
कर्म करते भी मुझसे मिला जा सकता है
जरूरी नहीं तू राम नाम की माला ही जपा करे
ये कर्म भूमि मैंने ही बनाई है
बस इतनी ही तो बात कहलाई है
यहाँ कर्म किये बिना ना
कोई एक क्षण रह सकता है
बस तू खुद को कर्म का कर्ता मत मान
और कर्म अपना मेरे अर्पण कर
फिर देख मुझसे मिलना सुगम हो जायेगा
तेरे पथ पर तू बिना पुकारे भी
मुझे खड़ा पायेगा 
अरे वाह प्रभु .....क्या बात तुम कहते हो
जब जीव कर्म करेगा तो बताओ तो जरा
कैसे कर्म बँधन से खुद को मुक्त करेगा
क्या कर्म बिना किसी आशा के किया जा सकता है
क्या कर्म से बिना सम्बन्ध जोड़े कोई कर्म किया जा सकता है
जब कर्म से कोई नाता होगा 
तभी तो कर्म सही ढंग से होगा
और उसे पूरा करने की जब इच्छा होगी
तभी तो कर्म में उसकी रति होगी 
बताओ फिर कैसे कर्मफल से जीव
खुद को विमुख कर सकता है
बिना चाहत के कोई कैसे
कर्म कर सकता है
कहीं ना कहीं किसी ना किसी अंश में
कोई तो चाहत छुपी होगी
अच्छा बताओ जरा
अगर कोई तुम्हें चाहे
तो क्या तुम्हें पाने की चाहत नहीं रखेगा
और तुम्हें पाने के लिए 
वो तुम्हारा सुमिरन भजन मनन नहीं करेगा
अब सारे कर्म वो कर रहा है
मगर बिना चाहत के तो
तुम्हें पाने का कर्म भी नहीं कर रहा है
फिर भला कैसे जीव
चाहत मुक्त हो सकता है
कैसे खुद को पूर्ण विमुख कर सकता है
जब तक किसी कार्य को करने का कारण नहीं होगा
कार्य कहो तो कैसे संपन्न होगा 
प्रभु तुम्हारी बातें बहुत भरम फैलाती हैं
जो जीव के समझ नहीं आती हैं
देखो तुम्हें अपनी कार्यप्रणाली बदलनी होगी
थोड़ी जीव की भी सुननी पड़ेगी
ये नहीं सारा दोष जीव के सिर मढ़ दो
और खुद को पाक साफ़ दिखा दो
तुम भी दोषमुक्त नहीं हो सकते हो
जब तक जीव पर आरोप रखते हो
प्रभु प्यारे भक्त की बातों में 
रस लेते हैं
और मधुर मधुर मुस्कान से 
दृष्टिपात करते हैं
भक्त और भगवान की महिमा
अजब न्यारी है
जहाँ भक्त ने ही वकील और जज की कुर्सी संभाली है
और प्रभु कटघरे में खड़े
मधुर मधुर मुस्काते हैं
और अपने प्यारे भक्त की मीठी बातों पर
रीझे जाते हैं

क्रमश :………

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप --1

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
श्री गणेशाय नमः
श्री सरस्वत्यै नमः
श्री सद्गुरुभ्यो नमः 

अब इसे क्या कहूं वार्तालाप या प्रश्नोत्तरी या भक्त और भगवान की खट्टी मीठी नोंक झोंक .........मगर ये भाव उठते जरूर हैं हर किसी के मन में तो आज उन्हें ही कहने का प्रयत्न किया है और पता नहीं सबके मन मे उठते भी हैं या नहीं मगर मेरे मन मे उठे और मैनें उनसे प्रश्न किये तो उन्होने अन्दर से यही उत्तर दिये जो आज आप सबके सम्मुख हैं…………



जीवन मृत्यु बने दो द्वार
आवागमन से ना पाया पार
इधर जीव घबराया 
उधर ईश्वर भी अकुलाया
जब विकल हुई दोनों की धार
मिलन का बन गया आधार
सम्मुख प्रभु को पाया जब उसने
जिह्वा  तब लगी रुकने
अनुपम सौंदर्य में खो गया
अपना सर्वस्व भी भूल गया
तब प्रभु ने चेतना का किया संचार
क्यूँ घबराया था यूँ अकुलाया था
किया प्रश्न ये बारम्बार
जब चेतना जागृत हुई
खुद की जब स्मृति हुई
जीव ने प्रश्न किया इस बार
प्रभो ! क्यों जन्म मृत्यु का रचा संसार
जिसमे बांधा कर्म का तार ?
मधुर मुस्कान धर प्रभु ने
सुधामय वाणी से दिया जवाब
ये मेरा है लीला विलास
नित्य खेल मैं रचता हूँ
बस तुझमे विलक्षण बुद्धि धरता हूँ
मगर तू उससे ऐसे लिपटता है
स्व स्वरुप भी भूलता है
ना तेरे आना हाथ में 
ना तेरे जाना हाथ में
फिर क्यूँ मैं -मैं का नारा रटता है
जबकि तू कुछ नहीं है
मात्र हाथों की कठपुतली है
बस यही भूल तू करता है
और आवागमन में फंसता है
सुन जीव मुस्कुराया 
प्रभु की चाल समझ प्रश्न किया
जब तुम्हारा खेल है
तुम उसके नियंता हो 
तुम ही सारा कर्ता- धरता हो
फिर क्यूँ बुद्धि की आड़ लेते हो
क्यूँ जीव को भरम ये देते हो
जब तुम खुद ही सब कुछ करते हो
फिर क्यूँ खुद को कर्तुम अकर्तुम 
अन्यथा कर्तुम कहते हो
जब नाटक तुमने लिखा
उसके सब पात्र तुमने रचे
सब पात्रों को संवाद तुमने दिया
अभिनय को मंच दिया 
फिर भला बताओ तो ज़रा 
कैसे जीव की बुद्धि का यहाँ 
प्रवेश हुआ
सारी रचना के रचयिता तुम हो
तो कैसे तुमसे पात्र उन्मुख हो सकता है
वो तो तुम्हारे इशारे पर ही चलता है
फिर भी अभिनय मंच पर 
दृश्य चाहे बदलता है 
समय भी नए रूप धरता है
मगर नाटक वो ही चलता है
वो उससे बाहर ना निकलता है
तुमने उसे ऐसे घेरा है
चाहकर भी ना निकल सकता है
फिर कहो तो जीव ने कब 
स्वयं को तुमसे ऊपर माना
वो तो तुम्हारी ऊंगली के इशारे पर
अभिनय करता है 
जब पात्र का हर संवाद तुम्हारा है
उसकी हर गतिविधि पर लगा
पहरा तुम्हारा है 
फिर कैसे कहते हो 
ये अपने मन की करता है 
सुन प्रभु  मुस्काए
और जीव के सारे भेद सुलझाये
हाँ ....मैं ही ये खेल रचता हूँ
मैं ही पात्रों को संवाद देता हूँ
अभिनय की तालीम देता हूँ
और रंगमंच पर छोड़ देता हूँ
मगर वो अभिनय की बारीकियां भुला देता है
खुद को खुदा मन बैठता है
जो मैंने संवाद दिए 
जैसा अभिनय को कहा
ठीक उससे उलट जब करता है
तभी उसके भाग्य का पांसा पलटता है
और वो आवागमन में फंसता है
अरे वाह प्रभु .........ये कैसे कह सकते हो
तुमने शिशु रूप में जन्म दिया
अब बताओ तो जरा 
उस जरा से शिशु ने ऐसा कौन सा कर्म किया
जो वो अपने मन की कर सके
अभी तो वो बोलना भी नहीं जानता है
ना खुद अपने नित्यकर्म कर सकता है
फिर बुद्धि के प्रयोग की तो बात ही दूसरी हो जाती है
अब उसे जैसे सांचे में 
ढालना होता है
तुम उसमे वैसा ही रंग भर देते हो
और अपने मन का आकार देते हो
और दोष जीव के मत्थे मढ़ देते हो 
बताओ ये कौन सा खेल हुआ
जिसमे सिर्फ परवशता होती है 
बिन सहारे के तो लकड़ी भी नहीं खडी होती है
उसके मुँह में जुबान भी तुम ही देते हो
बुद्धि रूप में भी तुम ही प्रवेश लेते हो
अब कैसे जीव का कोई कर्म 
अकर्म हो सकता है 
जब हर रूप में तुमने ही आकार लिया होता है
अरे मेरे भोले भक्त
तूने सिर्फ जो सुना देखा जाना 
वो तो सिर्फ एक पक्ष होता है
हर तस्वीर का एक 
दूसरा पक्ष भी होता है
बेशक मैं ही सबमे व्याप्ता हूँ
और मैं ही हर सांचे को आकार देता हूँ
मगर साथ में उसमे 
एक गुण भी भर देता हूँ
उसकी बुद्धि में एक बात धर देता हूँ
देख रंगमंच पर जाकर 
तू मुझे ना भूल जाना
मैं तेरा जनक हूँ
गोड फादर हूँ
तू मुझे ना भुलाना
अभिनय करते करते कहीं
उसी में ना रच बस जाना
और जीव मुझसे वादा करता है
और जब रंगमंच पर उतरता है
तो पात्र में ऐसे डूब जाता है
वो अपने घर का पता भी भूल जाता है
और फिर अपनी बुद्धि
दूसरे गोरख धंधों में लगाता है
मगर जिसने भेजा उसे याद नहीं करता है
और मैं इस खेल का रचयिता 
ये देख देख कर दुखी होता हूँ
ये मेरे पात्र को क्या हुआ
कैसे इसने नया रंग लिया
मेरा तो सारा खेल ही
इसने बिगाड़ दिया
अब इसे याद दिलाने को
अपनी पहचान कराने को
मैं दूसरे पात्र या घटनाएं 
उसके जीवन में अवतरित करता हूँ
मगर ये अपने अहम् के वशीभूत हो
सबको दरकिनार करता है
और खुद को ही दुनिया का
भगवान समझता है
जब मैं समझा समझा कर 
हार जाता हूँ
तब उसे अपने पास बुलाता हूँ
और अपनी पहचान करवाता हूँ
जब उसे समझ आ जाता है
और जब वो एक मौका
और चाहता है
उसे फिर से दुनिया में भेज देता हूँ
ये सोच इस बार ये जरूर बदलेगा
मगर वो फिर भी नहीं सुधरता है
और बार बार खुद ही आवागमन में फंसता है
सुन भक्त खिलखिलाकर हँस पड़ा
और प्रभु से प्रश्न किया 
अरे प्रभु ......एक तरफ तुम
गीता में उपदेश ये देते हो
मैं ही सबका कर्ता- धरता हूँ
मेरी इच्छा के बिना तो 
पत्ता भी नहीं हिल सकता है
फिर कहो तो कैसे कोई जीव
अपने मन की कर सकता है
जब तुम ही हर रूप में समाये हो
जब तुम्हारा ही ये संसार रचाया है
और इसके कण - कण में तुम ही समाये हो
फिर कहो कैसे जीव और ब्रह्म का भरम  फैलाये हो 
जब मुझमे भी तुम हो
और तुम में मैं
हर कण कण में सृष्टि के
तुम्हारा ही दर्शन होता है
फिर भला वहाँ कैसे 
किसी की बुद्धि का प्रवेश हो सकता है
कहीं कहते हो 
मैं कुछ नहीं करता हूँ
मैं निर्लेप रहता हूँ
और कहीं कहते हो
सब मेरी दृष्टि का विलास है
सबमे मेरी माया समायी है
मैं ही जर्रे जर्रे में समाया हूँ
मुझसे ही ये सृष्टि जगमगाई है
अब तुम खुद ही दोगली बात करते हो
और जीव को दुधारी तलवार पर चलाते हो
और दूर खड़े तुम मुस्काते हो
ये तो ना न्याय हुआ
ये तो सब तुम्हारा ही किया धरा हुआ
तुम बस यूँ ही जीव को फंसाते हो
और उसकी दुर्दशा देख मुस्काते हो
क्यूँकि खुद ही रचयिता होते हो
खुद ही पात्र भी बनते हो
और खुद ही तुम दिल्लगी करते हो
और दोष जीव पर मढ़ते हो
प्रभु ये ना सही खेल हुआ
इसमें तुम्हारा पांसा तुम ही पर
उल्टा पड़ गया 
भक्त की मीठी बातें सुन
प्रभु खिलखिला उठे
और भक्त की बात को ही 
ऊंचा बना दिया
हाँ मैं ही सब कर्ता नियंता हूँ 
मान लिया और 
भक्त का मान रख लिया 

क्रमश: ……………

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया



शब्दहीन, भावहीन ,स्पंदनहीन ह्रदय को
और दिमाग को कुंद औ मूढ बना दिया
सांवरे तूने ये क्या किया , ये क्या किया

ना रसधारा बहती है

ना नामोच्चार होता है
बस ये विग्रह निर्लेप सा रहता है
अब कौन दिशा है जाना
सबको भ्रमित बना दिया
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया

ना ह्रदय द्रवित होता है

ना अश्रु  नैनो से ढलते हैं
बस निर्विकारता छा जाती है
निर्जीव इस विग्रह पर
ये कैसा कुहासा छा दिया
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया

ना मै अब मै रही

ना तू ही मुझे मिला
एक तत्व भी अज्ञात रहा
ये कैसा द्वंद समा गया
जो मुझे प्रश्नसूचक बना दिया
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया

ना प्रेम का छोर मिला

ना कोई उस ओर मिला
बस प्रेमाभक्ति का ह्रास रहा
ये कैसा रोग लगा दिया
भरा, पूजा का थाल लौटा दिया
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया

अब ना दिशा का बोध रहा

ना अपना ही होश रहा
जब से तुझमे खुद को मिला दिया
तेरी चाह को परवान चढा दिया
और खुद को भी मिटा दिया
फिर भी ना तेरा दरस हुआ
और चौखट से जो अपनी
तूने खाली हाथ लौटा दिया
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया


तेरे हाथ बिके बेमोल

अब किधर जायेंगे
जो तूने हमे रुसवा किया
तेरे कूचे मे ही ना मर जायेंगे
मगर  ना कहीं कोई ठौर पायेंगे
सांवरे तूने ये क्या किया, ये क्या किया

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

पूर्णाहूति …तुभ्यम समर्पितं गोविन्दं…कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ……भाग 71


प्राकृत देह का निर्माण
स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों से हुआ
जिनके कारण ही जीव
जन्म मृत्य के चक्कर में पड़ा
ये प्राकृत शरीर
चाहे मैथुन से , चाहे संकल्प से
चाहे ह्रदय , नाभि, कंठ, नेत्र ,
या सिर्फ स्पर्श से या चाहे
दृष्टि से मिलते हैं
मगर कर्म बँधन से मुक्त ना होते हैं
मगर अप्राकृत शरीर
विलक्षण होते हैं
जो महाप्रलय में भी
ना नष्ट होते हैं
फिर भगवद देह तो
साक्षात् भगवद्स्वरूप है
रक्त मांस , मेद, अस्थि से ना निर्मित है
फिर प्रभु का स्वरुप
कैसे रक्त मांस अस्थि मय होता
उनमे देह देही , गुण गुणी
रूप रुपी , नाम नामी
लीला लीलापुरुषोत्तम का
कोई भेद नहीं
प्रभु का अंग अंग पूर्ण कृष्ण है
प्रभु की प्रत्येक इन्द्री से
सभी कार्य हो सकते हैं
जैसे उनके कान देख सकते हैं
आँखें सुन सकती हैं
त्वचा स्वाद ले सकती है
रसना सूंघ सकती है
नाक स्पर्श कर सकती है
वे हाथों से देख सकते हैं
आँखें सुन सकती हैं
कृष्ण का सब कृष्ण रूप होने से पूर्ण है
इसी कारण उनकी नित्य माधुरी
नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है
प्रभु का शरीर ना कर्म जन्य है
ना मैथुनी ना दैवी
वो तो सर्वथा विशुद्ध भगवत स्वरुप हैं
तभी अखंड ब्रह्मचारी कहलाते हैं


प्रभु की ये लीला  पूर्ण दिव्य थी
तभी योगमाया को कह
अपना मन बनवाया
क्योंकि प्रभु के पास स्वयं का
ना कोई मन होता है
और गोपियों ने तो
अपना मन प्रभु में मिला दिया था
तब प्रभु ने विहार के लिए
नवीन मन की
दिव्य मन की सृष्टि की
यही योगमाया प्रभु के लिए
दिव्य स्थल , दिव्य सामग्री
दिव्य मन का निर्माण करती है
तभी प्रभु की बांसुरी
जड़ को चेतन , चेतन को जड़
चल को अचल, अचल को चल
विक्षिप्त को समाधिस्थ
और समाधिस्थ को विक्षिप्त बनाती है
तभी गोपियाँ बंसी की धुन सुनते ही
सब कार्य छोड़ प्रभु की ओर
चल पड़ती हैं
उन्हें ना ध्यान कुछ रहता है
कौन सा कम अधूरा हो
या पूरा करके जाएँगी
क्योंकि वो तो नित्य संकल्प हो चुकी थीं
सर्वस्व समर्पण कर चुकी थीं
बेशक शरीर से सारे कार्य करती थीं
मगर वंशी की धुन कानों में पड़ते ही
उनका ध्यान कर्म की पूर्णता पर ना रहता था
जैसे सन्यासी का मन
वैराग्य की प्रबल ज्वाला से परिपूर्ण रहता है
फिर वैराग्य की पूर्णता
और प्रेम की पूर्णता
एक ही तो बात हुई
गोपियाँ ब्रज और प्रभु के बीच
पूर्ण वैराग्य स्वरुप हैं
या मूर्तिमान प्रेम
इस विषय में कौन निर्णय ले सकता है
गोपियों और प्रभु के
अलौकिक रूप को
कैसे जान सकता है
फिर उनकी दिव्य लीला का
कोई कैसे वर्णन कर सकता है


फिर कैसे मैं अज्ञानी वर्णन कर सकती हूँ
बस प्रभु चरणों में ही
सारा लेखन समर्पित करती हूँ
यूँ तो जितना गुणगान करो
थोडा ही रहता है
अभी ना जाने कितने और
दिव्य भाव यहाँ बतलाये हैं
जो मानुष के समझ ना आये हैं
प्रभु प्रेरणा से लिया संकल्प पूर्ण हुआ
ये प्रभु की दिव्य लीलाओं का
प्रभु के लिए गुणगान हुआ
अगली प्रेरणा तक
अब लेखनी को विराम देती हूँ
जब जैसी प्रभु की मर्ज़ी होगी
जब गोपी विरह के भावों का समावेश होगा
तभी उद्धव गोपी संवाद रूप में
नव सृजन होगा
जब प्रभु इस लायक समझेंगे
तब उद्धव गोपी संवाद का आगाज़ करेंगे
तब तक उस पूर्णकाम को
कोटि कोटि नमन करती हूँ
जो मुझे नराधम को अपनी शक्ति से नवाज़ा
और अपनी लीलाओं का गुणगान करने का मौका दिया
कैसे उऋण हो सकती हूँ
प्रभु कृपा की यही तो विलक्षण महिमा है
स्वयं सब कार्य संपन्न करते हैं
और उसका श्रेय भक्तों को दे देते हैं
मैं नतमस्तक हुई जाती हूँ
पर पार ना उनका पाती हूँ
बस उनके दर्शन की अभिलाषी हूँ
प्रेम सुधा की प्यासी हूँ
 
!!!!!!!!अथ श्री कृष्ण कथा !!!!!!