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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

विरही राधे देख तेरे श्याम बुलाते



विरही राधे
देख तेरे श्याम बुलाते
यूँ ही नहीं वो बंसी बजाते
सबके मनों को हैं लुभाते
चंचल नैना यूँ मटकाते
विहग भी पथ भूल जाते
बस श्याम दरस मे अटके जाते
अपनी सुध भी हैं बिसराते 

ये बंसी बैरन अधरों पर सजाते
मोहन की संगिनी बनाते

देख गोपि्यों के जी जल जाते
देख मोहन भी भाव हैं खाते
तब चन्द्रावली के हत्थे चढ जाते
ग्वाल बाल तब खूब चिढाते
दूध दही माखन खा जाते
बस श्याम ऐसे ही तो मन को लुभाते
तभी तो श्याम तेरे दरस बिन  

विरही गोपियों के ह्रदय ना आधार पाते………



सुन गोपियन की करुण पुकार
मोहन प्रकट कियो निधिवन में
अपना मनमोहिनी रूप मनोहर
देख गोपियाँ हुयी निहाल
गल डाले बाहों के हार
झूठ मूठ के रूठ गयीं
मोहन संग ठिठोली में
अपना स्वरूप भी भूल गयीं
बस यही तो प्रेम की पुकार
जिसे ना अनदेखा कर पाते श्याम सुकुमार
बस यूँ ही वो रास रचाते
सखी तभी तो तुझे भरमाते
कभी दिख दिख जाते
कभी छुप छुप जाते
यही तो श्याम अपने रंग दिखाते
जो जिया को हैं हर्षाते
हर गोपिन के मन को भाते

विरही राधे
देख तेरे श्याम बुलाते…………


7 टिप्‍पणियां:

  1. हर शब्द की आपने अपनी 2 पहचान बना दी क्या खूब लिखा है "उम्दा "
    मेरी रचना प्रेम विरह की कुछ पंक्तिया
    और इस प्रेम पीड़ा में जितना आनंद आये
    उतना आनंद तो कही ना आये
    बस ये पीड़ा तभी ख़त्म होगी जब
    जब प्रेम पूर्ण संजोग हो जाये
    और इसी में पूर्ण प्रेम हो जाये
    मेरी नई रचना

    प्रेमविरह

    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

    जवाब देंहटाएं
  2. भक्ति की पराकाष्ठा , बहुत सुन्दर भाव से प्रेरित.

    जवाब देंहटाएं

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