पता नहीं
एक अजीब सी वितृष्णा समायी है आजकल
सब चाहते हैं
अगले जनम हर वो कुंठा पूरी हो जाए
जो इस जनम में न हुयी हो
कोई कहे अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो
कोई कहे अगले जनम मोहे बेटा ही दीजो
सबकी अपनी अपनी चाहतें हैं
अपने अपने पैमाने हैं
मगर जब मैं सोचने बैठी
तो खाली हाथ ही रही
पता नहीं कोई सोच आकार ही न ले सकी
किसी चाहत ने सर ही नहीं उठाया
एक अजब सी उहापोह से गुजरती हूँ
कभी सारे जहाँ को मुट्ठी में कैद करना चाहती हूँ
तो कभी शून्य में समाहित हो जाती हूँ
सोच किसी अंजाम तक पहुँच ही नहीं पाती
अब दिल और दिमाग
चाहत और सोच
सब रस्साकशी से मुक्त से लगते हैं
तो क्या
अवसरवादी हूँ किसी अवसर की प्रतीक्षा में
कोई अमरता का वरदान मिल जाये और लपक लूं
या संवेदनहीन हो गयी हूँ मैं
या निर्झर नीर सी बह रही हूँ मैं
उत्कंठा मुक्त होकर , चाहत मुक्त होकर
या जीते जी मुक्त हो गयी हूँ मैं .......विषय योनि से
नहीं जान पा रही ..............
तितिक्षा , अभिलाषा , प्रतीक्षा ...........कुछ भी तो नहीं मेरी मुट्ठी में
हाथ खाली हैं अब वैसे ही जैसे आते वक्त थे
तो क्या ............
यही है जीवन सत्य , जीवन दर्शन
शून्य से शून्य में समाहित होता ............
सूक्ष्म जगत का सूक्ष्म व्यवहार ..........
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंlatest post,नेताजी कहीन है।
latest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
इस मन की इच्छाएँ कभी संवेदनहीन नहीं होती
जवाब देंहटाएंजीवन का कटु सत्य है.... जिससे आपने अवगत कराया है....
जवाब देंहटाएंEk ajeeb-see vitrushna samayi hai aajkal.....meree zubaan ke alfaaz chheen liye.....tumhen bade dinon se mere blog pe nahi dekha....kuchh soona-sa lagta hai...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर..
जवाब देंहटाएंgahre bhvaon ki sunder kavita
जवाब देंहटाएंbadhai
rachana
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गुनाह किसे कहते हैं ? मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंहां..ऐसा ही है..सही कहा आपने
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