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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

कितने प्यासे हो तुम…………. कहो ना ..2


सुना है 
तुम्हारे रोम रोम में 
कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं 
और हर ब्रह्माण्ड की 
संरचना अलग है 
शायद वहाँ भी तुमने 
ऐसे ही खेल रचे होंगे 
वहाँ भी तुम किसी 
प्यास की फाँस  में फँसे होंगे 
जाने कितने रूप धरे होंगे 
जाने कैसी लीला करते होंगे 
नाना रूप नाना वेश 
फिर भी एक प्यास का बना रहना 
फिर भी कुछ और पाने की 
चाहत में भटकते रहना 
और फिर नव सृजन करना 
मानव की तरह और पाने की चाहत ही 
शायद तुम्हें इतना भरमाती है 
तभी तो देखो तुम 
सृजन करते  थकते नहीं 
अनंत युगों तक नव सृजन करते जाना 
द्योतक है तुम्हारी 
किसी अनकही 
किसी अनबुझी 
किसी अनजानी प्यास का 
और इसे नाम दिया तुमने 
अपने खेल का 
अपनी रचना का 
अपने आनंद का 
स्व के स्व में एकीकृत होने का 
मगर वास्तविकता नहीं स्वीकार पाते हो तुम भी 
नहीं कर पाते इकरार 
कि 
कितने प्यासे हो तुम…………. कहो ना 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया वंदना जी, इंसान की चाहत सदा बनी रहती है और यही एक मायने में उसके होने और विकास की निशानी भी बन पाती है। बेहतरीन रचना के लिए अनेकों बधाई !

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  2. सुन्दर विषय का सुन्दर लेखन-----!

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  3. सुन्दर प्रस्तुति ....!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (12-10-2013) को "उठो नव निर्माण करो" (चर्चा मंचःअंक-1396) पर भी होगी!
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. आप तो कृष्णमय और प्रेममय हो चली हैं कवियत्री :) जय हो ,,बहुत ही सुंदर और प्रभावी :)

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आप सब के सहयोग और मार्गदर्शन की चाहत है।