मन के पनघट सूखे ही रहे
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे
न कोई अपना न कोई पराया
जग का सारा फ़ेरा लगाया
सूनी अटरिया न कोई पी पी कहे
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे
इक बंजारे का भेस बनाया
जाने कौन सा चूल्हा जलाया
खा खा टुकडा कबहूँ न पेट भरे
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे
जोगन का जब जोग लिया
तन मन उस रंग रंग लिया
इक बैरागन भयी बावरी
प्रीत अटरिया न श्याम बंसी बजे
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (04.04.2014) को "मिथकों में प्रकृति और पृथ्वी" (चर्चा अंक-1572)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंबहुत भावमयी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंbhawpoorna....wa ati sundar shabd sanyojan
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंसुंदर विरह गीत.
जवाब देंहटाएंमन की गहराई से व्यक्त शब्द।
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