तुमने प्रेम भी दिया और ज्ञान भी फिर भी रही मैं मूढ क्या वैराग्य का सम्पुट अधूरा रहा या मेरे समर्पण में कमी रही जो रहे अब तक दूर ......कहो तो ओ कृष्ण तेरी सोन मछरिया तडप रही है भटक रही है न कर निज चरणन से दूर प्रेमरस के प्यासों का इतना इम्तिहान भी अब ठीक नहीं मोह्न !
बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-05-2014) को "पंक में खिला कमल" (चर्चा मंच-1615) (चर्चा मंच-1614) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुंदर ।
जवाब देंहटाएंवाह. बहुत सुन्दर रचना. आपके लेखन की शैली बहुत प्रभावित करती है. आपसे बहुत कुछ सीखने की कामना है. स्नेह की अपेक्षा के साथ सादर आभार.
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