सुनो
तुमसे कोई अदावत नहीं है
न ही खिलाफत है कोई
बस नहीं उठती अब कोई पीर विरह की
प्रेम के तुमने जाने कितने अर्थ दिए
और मैंने सहेज लिए
सच कहूं ..... रंग गयी थी तुम्हारे ही रंग में
बन गयी थी वंशी की मधुर तान सी
तुम्हारे होने में अपना होना बस
यही बनाया अंतिम विकल्प
मगर निर्मोही ही रहे तुम
सिर्फ अपनी त्रिज्या तक ही
सीमित था तुम्हारा हास्य
नहीं थी तुम्हें परवाह तुमसे इतर किसी की
सुनो
उलाहना नहीं है ये मेरा
न शिकायत है
बस तुमसे तुम्हें मिलवा रही हूँ
अहसास करा रही हूँ
" क्या हो तुम "
इतना जान लेते फिर न कभी
कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग का उपदेश देते
देखो तो जरा
बन चुकी है मूरत पत्थर की
मगर प्राण प्रतिष्ठा के लिए
जरूरत है तुम्हारी
और तुम ठहरे निर्मोही , निर्लेप
कहो तो अब कैसे संभव है
बिना प्रेम का स्वांग किये स्थापित होना
मैं आकार भी हूँ और प्रकार भी तुम्हारा
सोच लो
प्रीत के बंजारन होने से पहले
क्या खड़े कर पाओगे कदली वृक्ष
क्योंकि
प्राण प्रतिष्ठा के लिए जरूरी है
तुम्हारा प्रेम रूप में अवतरित हो मूरत में समाना
क्योंकि
प्रेम का सम्मिश्रण ही मनोकामना पूर्ति का अंतिम विकल्प है
अब ये तुम पर है
क्या बनना चाहोगे
प्रेम या विकल्प
जब से जाना है तुम्हें
तब से नहीं है इरादा मेरा सर्वस्व समर्पण का
क्या कर सकोगे तुम सर्वस्व समर्पण
और झोंक सकोगे खुद को उसी आग में
जिसमे एक अरसे से जल रहे हैं हम ............
प्रेम हो या विरह
तराजू के पलड़ों में
योगदान दोनों तरफ से बराबर का होना ही संतुलन ला पाता है
क्या इस बार कस सकोगे खुद को कसौटी पर ..........मोहना !
बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1982 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुन्दर सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंकभी इधर भी पधारें
सटीक! :)
जवाब देंहटाएंसुम्दर बना पडा है,प्रेम-गीत
जवाब देंहटाएंसुंदर !!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...........वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
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