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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता

मोर वचन चाहे पड़ जाए फीको
संत वचन पत्थर कर लीको 
 
तुमने ही कहा था न
तो आज तुम ही उस कसौटी के लिए
हो जाओ तैयार
बाँध लो कमरबंध
कर लो सुरक्षा के सभी अचूक उपाय
इस बार तुम्हें देनी है परीक्षा 
 
तो सुनो
मेरा समर्पण वो नहीं
जैसा तुम चाहते हो
यानि
भक्त का सब हर लूं
तब उसे अपने चरणों की छाँव दूँ
यानी मान अपमान , रिश्ते नाते, धन, सब
लेकिन तुम्हारी इस प्रवृत्ति की
मैं नहीं पुजारी 
 
और सुनो
मेरा प्रेम हो या व्यवहार
सब आदान प्रदान पर  ही निर्भर करता है
मुझे चाहिए हो तो पूरे
साक्षात् सामने
जो बतिया सके
मेरे प्रश्नों के उत्तर दे सके
साथ ही
खुद को पाने की कोई शर्त न रखे
कि
सब कुछ छोडो तो मिलोगे
सुनो
मैं नहीं छोडूंगी कुछ भी
और तुम्हारे संतों का ही कथन है
तुम कहते हो
जो मेरी तरफ एक कदम बढाता है
मैं उसकी तरफसाठ
तो यही है मेरा कदम प्रश्न रूप में 
 
अब बोलो
क्या उतर सकोगे इस कसौटी पर खरा
कर सकोगे उनके वचनों को प्रमाणित
क्योंकि
मज़ा तो तब है
जब गृहस्थ धर्म निभाते हुए बुद्ध हुआ जाए
तुमसे साक्षात्कार किया जाए
प्रेम का दोतरफा व्यवहार किया जाए
क्योंकि
गृहस्थ धर्म का निर्वाह ही मनुष्य धर्म है
जो तुमने ही बनाया है
और जो गृहस्थ धर्म से विमुख करे
वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता
जो सिर्फ खुद को चाहने के स्वार्थ से बंधा रहे
वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता

मेरा ईश्वर तो निस्वार्थी है
मेरा ईश्वर तो परमार्थी है
मेरा ईश्वर तो अनेकार्थी है

मेरे लिए तुम हो तो हो
नही हो तो नहीं
ये शर्तों में बंधा अस्तित्व स्वीकार्य नहीं मुझे तुम्हारा ... ओ मोहना !!!


सोमवार, 12 सितंबर 2016

मैं पथिक

मैं पथिक
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मैं पथिक किस राह की
ढूँढूँ पता गली गली
मैं विकल मुक्तामणि सी
फिरूँ यहाँ वहाँ मचली मचली

ये घनघोर मेघ गर्जन सुन कर
ह्रदय हुआ कम्पित कम्पित
ये कैसी अटूट प्रीत प्रीतम की
आह भी निकले सिसकी सिसकी

ओ श्यामल सौरभ श्याम बदन
तुम बिन फिरूँ भटकी भटकी
गह लो बांह मेरी अब मोहन
कि साँस भी आयेअटकी अटकी

तुम श्याम सुमन मैं मधुर गुंजन
तुम सुमन सुगंध मैं तेरा अनुगुंजन
ये सुमन सुगंध का नाता अविरल
कहो फिर क्यों है ये भेद बंधन

तुम बिन मन मयूर हुआ बावरा
कातर रूह फिरे छिटकी छिटकी
अब रूप राशि देखे बिन
चैन न पाए मेरी मन मटकी मटकी

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

गोपिभाव ८

 
 
तेरी कस्तूरी से महकती थी मेरे मन की बगिया
और अब फासलों से गुजरती है जीवन की नदिया

ये इश्क के जनाजे हैं
और यार का करम है
जहाँ
प्यास के चश्मे प्यासे ही बहते हैं

तुम क्या जानो
विरह की पीर
और मोहब्बत का क्षीर

बस
माखन मिश्री और रास रंग तक ही
सीमित रही तुम्हारी दृष्टि ........मोहना 
 
 अब 
आकुलता और व्याकुलता के पट्टों पर 
रोज तड़पती है मेरे मन की मछरिया
और देख मेरी आशिकी की इन्तेहा
नैनों ने भीगना छोड़ दिया है 
 
अब 
किस पीर की मज़ार पर जलाऊँ 
अपनी मोहब्बत का दीया  
और हो जाए तर्पण
मिटटी से मिटटी के मिलने पर 

घूँघट पट है कि खुलता ही नहीं ...