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मंगलवार, 6 सितंबर 2016

गोपिभाव ८

 
 
तेरी कस्तूरी से महकती थी मेरे मन की बगिया
और अब फासलों से गुजरती है जीवन की नदिया

ये इश्क के जनाजे हैं
और यार का करम है
जहाँ
प्यास के चश्मे प्यासे ही बहते हैं

तुम क्या जानो
विरह की पीर
और मोहब्बत का क्षीर

बस
माखन मिश्री और रास रंग तक ही
सीमित रही तुम्हारी दृष्टि ........मोहना 
 
 अब 
आकुलता और व्याकुलता के पट्टों पर 
रोज तड़पती है मेरे मन की मछरिया
और देख मेरी आशिकी की इन्तेहा
नैनों ने भीगना छोड़ दिया है 
 
अब 
किस पीर की मज़ार पर जलाऊँ 
अपनी मोहब्बत का दीया  
और हो जाए तर्पण
मिटटी से मिटटी के मिलने पर 

घूँघट पट है कि खुलता ही नहीं ...

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