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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

बुद्ध से पुनः बुद्ध

कभी कभी पॉज़ बहुत लम्बा हो जाता है ...जाने कितना काम अधूरा रहता है लेकिन मन ही नहीं होता, महीनों निकल जाते हैं ऐसे ही...रोज एक खालीपन से घिरे, चुपचाप, खुद से भी संवाद बंद हो जहाँ, वहाँ कैसे संभव है अधूरेपन को भरना......शब्द भाषा विचार संवेदनाएं भावनाएं सब शून्य में समाहित.....खुद को ही जैसे नकार रहा हो कोई.......

मन मंथर गति से चलता
तो भी संभव थी गतिशीलता
मगर
अब ठहरा है
रुका है
विराम पा गया हो जैसे
जाने किस पनघट पर
किस पनिहारिन ने रोक लिया है रास्ता
अब कितना भी दुलराओ बुलाओ पुचकारो
किसी सिद्ध योगी सा
धूनी रमाये बैठा है अविचल
कर रहा है जाने कौन सा परायण

देखें किस देवता का किया है आह्वान
देखें कहाँ मिले हैं इसे मुक्ति के मनके
कि जहाँ न बचे हैं रास्ते और न मंज़िलें

ये न खोना है न पाना
बस एक विराम
ये यात्रा है बुद्ध से पुनः बुद्ध हो जाने की