कभी कभी पॉज़ बहुत लम्बा हो जाता है ...जाने कितना काम अधूरा रहता है लेकिन मन ही नहीं होता, महीनों निकल जाते हैं ऐसे ही...रोज एक खालीपन से घिरे, चुपचाप, खुद से भी संवाद बंद हो जहाँ, वहाँ कैसे संभव है अधूरेपन को भरना......शब्द भाषा विचार संवेदनाएं भावनाएं सब शून्य में समाहित.....खुद को ही जैसे नकार रहा हो कोई.......
मन मंथर गति से चलता
तो भी संभव थी गतिशीलता
मगर
अब ठहरा है
रुका है
विराम पा गया हो जैसे
जाने किस पनघट पर
किस पनिहारिन ने रोक लिया है रास्ता
अब कितना भी दुलराओ बुलाओ पुचकारो
किसी सिद्ध योगी सा
धूनी रमाये बैठा है अविचल
कर रहा है जाने कौन सा परायण
देखें किस देवता का किया है आह्वान
देखें कहाँ मिले हैं इसे मुक्ति के मनके
कि जहाँ न बचे हैं रास्ते और न मंज़िलें
ये न खोना है न पाना
बस एक विराम
ये यात्रा है बुद्ध से पुनः बुद्ध हो जाने की
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-12-2018) को "कुम्भ की महिमा अपरम्पार" (चर्चा अंक-3189) (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक बार फिर यात्रा प्रारंभ हो... फिर दूरी नहीं बुद्ध से बुद्ध होने की...
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