पत्ते झड़ने का मौसम है मगर उम्र के चिन्ह नदारद. एक जवान का दिल और सेहत सुभान अल्लाह. उमंगों का सागर ठाठें मारता अंगड़ाईयाँ भरता जवानी के जोश से भरपूर. ऐसा व्यक्तित्व जहाँ उम्र के चिन्ह तरसते हैं अपनी पहचान पाने को. खुशमिजाज़, सह्रदय और सुलझा हुआ इंसान. एक इंसान में इतने सारे गुण एक साथ होने उसे विशिष्ट तो बनायेंगे ही और दूसरों के लिए ईर्ष्या का पात्र भी. बस ऐसे ही तो थे राहुल सिन्हा.
जो मिलता पहली बार में उनका मुरीद हो जाता. एक अरसा हुआ
उन्हें हिंदुस्तान छोड़े हुए और अमेरिका में बसे हुए. यूँ लगता सबको मानो ज़िन्दगी
ने हर नेमत बख्शी हैं उन्हें. प्यार करने वाली पत्नी दो बच्चे, एक बेटा और एक बेटी भला और क्या चाहिए किसी को जीने के लिए.
भरा पूरा परिवार, खुशियों का सागर लहराता
हर तरफ बहार ही बहार.
वक्त मगर कब एक सा रहा जो उनके लिए रहता. बच्चों को ब्याह
कर उनकी जिम्मेदारी पूरी कर चुके थे और बच्चे भी अपनी अपनी गृहस्थी में मशगूल हो गए
थे रह गए थे तो दोनों पति पत्नी अकेले. जब आप अकेले होते हो तो अकेलापन अपने सारे
हथियारों के साथ आप पर वार करता है कुछ ऐसा ही सितम वक्त का हुआ जब उन्हें पता चला
उनकी पत्नी कैंसर से पीड़ित हैं और वो जुट गए उनकी सेवा करने में. हर मुमकिन कोशिश, हर अच्छे से अच्छा इलाज सब किया मगर जब वक्त का वार होता
है तो उसका कोई इलाज नहीं बचता कुछ ऐसा ही राहुल सिन्हा के साथ हुआ और उनकी पत्नी
उन्हें इस भरे पूरे संसार में अकेला छोड़ कर चली गयीं.
कमजोर ह्रदय के मालिक कभी नहीं रहे राहुल सिन्हा इसलिए धीरे
धीरे खुद को संभाला क्योंकि ज़िन्दगी को तो आप चाहो या न चाहो जीना ही पड़ेगा और यदि
जीना जरूरी है तो क्यों न पूरी तरह जी जाए ये थी राहुल सिन्हा की सोच और उन्होंने
खुद को तैयार किया एक नयी चुनौती के लिए. अपने अकेलेपन से लड़ना सबसे मुश्किल काम
होता है किसी भी इंसान के लिए मगर उन्होंने जैसे ठान लिया कि मेरा अकेलापन मुझे
मुंह चिढाये उससे पहले मुझे उसे वक्त ही नहीं देना पास फटकने का और इसी सोच का
नतीजा ये निकला कि उन्होंने एक बार फिर भारत का रुख किया क्योंकि जड़ों से कोई पौधा
कब तक दूर रह सकता है. उन्होंने खुद को लेखन में डुबा दिया और एक से बढ़कर एक
उपन्यास लिखने लगे और भारत में वो छपने लगे यहाँ तक कि उन्होंने अपनी एक अलग पहचान
बना ली कि उपन्यास यदि कोई पढ़े तो राहुल सिन्हा के वर्ना न पढ़े. एक ऐसा बदलाव खुद
में किया कि अब खुद से मिलने का भी उनके पास समय न रहा.
जाने कौन सा जूनून था जो उन में इतनी ताजगी और इतनी
सक्रियता भर रहा था कि भारत हो या अमेरिका उन्हें दूरी न लगती एक पैर यहाँ तो एक
वहां रहता लेकिन थकान का कोई चिन्ह उनके चेहरे पर न दिखता और वो सबके लिए एक
कौतुहल का बायस बन गए थे कि आखिर कोई तो वक्त होता होगा ज़िन्दगी में जब उन्हें
उनका अकेलापन सालता होगा तब वो कैसे निजात पाते हैं क्योंकि घर वो जंगल था जहाँ
चहकने को एक चिड़िया भी नहीं थी, जहाँ
यदि अपनी आवाज़ भी सुननी हो तो इंसान तरस जाए यदि घर से बाहर न निकले या किसी से
बात न करे.
मगर राहुल सिन्हा ने जैसे खुद से एक वादा कर लिया था कि बस
हार नहीं माननी है शायद यही वो जज्बा था जो उम्र की आखिरी दहलीज पर भी सक्रियता
बनाये रखे था. हर छोटे बड़े को अपना बना लेना बायें हाथ का खेल था उनके लिए. लेकिन
जाने क्यों कभी कभी लगता मुझे कि वो जो दिखता है खिला खिला कितना तनहा और उदास है
कहीं न कहीं. शायद लेखन ही वो माध्यम था उनके लिए जिसमे वो अपनी सारी पीड़ा सारी
हताशा और सारा अकेलापन खाली कर सकते थे. जब भी पूछना चाहा हंस कर टाल गए “अरे यार
कहाँ से तुम्हें उदास और तनहा लगता हूँ बताओ तो भला” और जोर से खिलखिलाकर हँसते तो
मुझे उस हँसी में सारी उम्र की पीड़ा ही नज़र आती जिसे वो और सबसे तो छुपा सकते थे
मगर मुझसे नहीं. मैं लाख कोशिश करता मगर उन्होंने कभी किसी को अपने एकांत में
दाखिल नहीं होने दिया.
आज वो नहीं हैं कहीं भी और मैं उनके घर में हूँ, उन्हें खोज रहा हूँ तो लगता है अभी उस कमरे से निकलेंगे और
कहेंगे, “अरे शर्मा जी किसे खोज रहे हो, शर्मा जी यहाँ मेरे सिवा आपको कुछ नहीं मिलेगा “ कितना सच
कहा था क्योंकि हर जगह उन्ही के चिन्ह मौजूद हैं...शोकेस भरा पड़ा है उनके अवार्डों
से तो मेज पर उनके उपन्यास, कलम
और डायरी.
डायरी का पहला पन्ना खोलता हूँ मैं, तो पाता हूँ, ‘सुमि तुम्हारे बिन देखो कैसा हो गया हूँ, देखो तुम चाहती थीं न हमेशा हँसूँ, खुश रहूँ, देखो रह रहा हूँ न.’
दूसरा पन्ना, सुमि, यूँ तो ज़िन्दगी का कोई लम्हा ऐसा नहीं जिसमे तुम शामिल न
रही हों मगर आज जब मुझे पद्म सम्मान से विभूषित किया गया तो आँखें छलक उठीं
क्योंकि ऐसे लम्हों में तुमसे दूरी सही नहीं जाती, तुम्हारी बहुत जरूरत महसूस होती है.
तीसरा पन्ना, सुमि
ये शर्मा है न बहुत तंग करता है साला मेरी दुखती रग पर ही हाथ रखता है हमेशा, कितना ही उसे समझाऊँ बहलाऊँ मगर छेड़े बिना मानता नहीं, सच सुमि तुम्हारे जाने के बाद ये शर्मा ही एक ऐसा है जिसे
मैं अपना कह सकता हूँ, जो मुझे मुझसे ज्यादा
जानता है इसीलिए चाहता है कि मैं अपना गम गलत करूँ उसे कहकर मगर वो नहीं जानता –
तुम हो न मेरे साथ हर पल फिर और कांधा कहाँ खोजूँ ?
चौथा पन्ना, सुमि
मैंने सोचा है कुछ, बताता हूँ तुम्हें, सुमि ज़िन्दगी का अब क्या भरोसा कब मुंह फेर ले. देखो
तुम्हारा बेटा तो वैसे भी महीने में सिर्फ एक बार मेहमानों की तरह आता है मिलने और
मेरी बेटी वैसे ही दूसरे शहर में है तो उससे क्या गिला शिकवा करूँ इसलिए मैंने
सोचा है अपनी वसीयत कर जाऊं.
अरे नहीं सुमि, तुम
चिंता मत करो, तुम्हारे बच्चों का कोई हक़ नहीं मारूँगा
जिनका जो है वो उसे मिलेगा वैसे भी कौन अपने साथ कुछ ले गया है जो मैं ले जाऊंगा
बस है एक धरोहर मेरी जिसकी और कोई क़द्र करे न करे लेकिन मुझे पता है कि कौन करेगा
बस इसीलिए कह रहा हूँ.
पांचवां पन्ना, सुमि
आज मैं निश्चिन्त हो गया अब जब चाहे ये दुनिया छोड़ कर जा सकता हूँ और देखो मैं आने
वाला हूँ तुम्हारे पास एक अरसा हुआ हमें बिछड़े, ए देखो मुझे पहचान तो लोगी न. सुमि हाँ मैंने आज अपनी वसीयत कर दी है जिसमे
सारी प्रॉपर्टी पैसे बच्चों को दे दिए हैं…अब तो खुश हो न !
छठा पन्ना, सुमि,
मैं जानता हूँ उनके लिए इसकी कोई कीमत नहीं कोई कद्र नहीं. वो एक ऐसी दुनिया में
काला चश्मा लगाए खोये हुए हैं जिसके आगे या पीछे और कुछ नहीं दिखता इसलिए न उनसे
उसका जिक्र किया न ही बताया क्योंकि उनके लिए उसकी कोई वैल्यू नहीं मगर मेरे लिए
है और रहेगी मेरे जाने के बाद भी मैं जिंदा रहना चाहता था इसलिए मैंने अपने सारे
उपन्यास और किताबें और उनसे मिलने वाली सारी रॉयल्टी उन नए लिखने वालों के सहायतार्थ
कर दी है जो पैसा न होने की वजह से आगे नहीं बढ़ पाते, जिनका लेखन असमय मौत का शिकार हो जाता है. मेरा ये पैसा ऐसे लेखकों के काम
आएगा और मैं यहाँ से जाने के बाद भी उन सबके दिलों में जिंदा रहूँगा और इस सारे
कार्य का उत्तरदायित्व मैंने शर्मा को सौपा है उसे उसका ट्रस्टी बना दिया है अब वो
इस सबकी देखभाल करेगा और यही उसकी मेरे प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
सातवाँ पन्ना, ओये शर्मा, साले करेगा न मेरी ये आखिरी इच्छा
पूरी...
टप टप आंसू शर्मा की आँख से बहते हुए डायरी के पन्नों को
भिगोते रहे और अक्षर धुंधले पड़ते गए. शायद
आज अक्षरों के भी आंसू बह रहे थे अपनी पूजा करने वाले को उनकी यही अंतिम
श्रद्धांजलि थी...
एक अच्छी राह सुझाई है। बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार शिवानी
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२३-0६-२०२१) को 'क़तार'(चर्चा अंक- ४१०४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अनिता सैनी जी हार्दिक शुक्रगुजार हूँ
हटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंओंकार जी हार्दिक आभार
हटाएंहृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंजीतेन्द्र माथुर जी शुक्रिया
हटाएंलेखक लेखक की रग रग से परिचित ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कहानी ।
बहुत बहुत शुक्रिया दी
हटाएंआपकी लिखी रचना गुरुवार 19 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
मेरी कहानी को पांच लिंकों का आनंद पर स्थान देने के लिए दिल से शुक्रिया दी
हटाएंबहुत अच्छी कहानी…बधाई आपको वन्दना जी 💐
जवाब देंहटाएंओह्ह क्या भावुक करने वाली वसीयत, भावपूर्ण कहानी वंदना जी चलचित्र की तरह तैर गयी।
जवाब देंहटाएंप्रभावी लेखन ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक हृदयस्पर्शी कहानी...
जवाब देंहटाएंलाजवाब।
मन भिगो गई कहानी और एक संदेश भी दे गई!
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं से भरी..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ! बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने ब्लॉग में आपने। इसके लिए आपका दिल से धन्यवाद। Visit Our Blog Zee Talwara
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