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मंगलवार, 10 मई 2011

रे मन ! तू इतना सा भी ना समझ पाता है

मोह का छोटा सा अंकुर भी
कैसे झुलसा जाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

तेरे वर्षों के तप को
खंडित कर जाता  है
फिर दूर बैठा मुस्काता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

तुझसे तेरा ही
सब छीन ले जाता है
देख कैसी
धमाचौकड़ी मचाता है
कहीं का नहीं
फिर छोड़ पाता है
जब अपनों की
लात खाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

ये आदमखोर है ऐसा
जो जीते जी को खाता है
पर इसके पंजों से
ना छूट  पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

ये मोह की ऐसी
जोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है

25 टिप्‍पणियां:

  1. कविता का सोता कहाँ से प्रस्फुटित होता है? ये तो पता नहीं, हाँ इतना जरूर कहा जा सकता है, वन्दना रूपी सागर की लहरें कविता के हिमाल को छू ही जातीं हैं ....... इस रचना को देखिये.......... क्या ये सच नहीं?

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  2. यह मोह ही तो है जो मन को दिग्भ्रमित करता रहता है ....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  3. ये मोह की ऐसी
    जोंक है जो
    अमरबेल सी
    लिपट जाती है
    फिर तो राम नाम की
    वीणा से ही
    मन विश्रांति पाता हैaur mukt hota hai, rahasyavaad ka samavesh hai

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  4. क्या यह नासमझी का दर्द तुझे सोने देता है ?

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  5. तुझसे तेरा ही
    सब छीन ले जाता है
    देख कैसी
    धमाचौकड़ी मचाता है
    कहीं का नहीं
    फिर छोड़ पाता है
    जब अपनों की
    लात खाता है
    रे मन !
    तू इतना सा भी
    ना समझ पाताहै

    बहुत अच्छी रचना

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  6. मन को समझाना बहुत मुश्किल है और ये खुद तो कुछ समझाता ही नहीं है...
    आपने सुन्दर अभिव्यति की है. बधाई.

    दुनाली पर स्वागत है-
    कहानी हॉरर न्यूज़ चैनल्स की

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  7. बहुत सुन्दर 'प्रयास' है वंदनाजी मन को समझाने का.भक्ति और विरक्ति को प्रेरित करता यह आपका सुप्रयास मुक्ति की ओर ले जानेवाला है.
    मोह की जोंक का सफल इलाज बताया आपने
    'ये मोह की ऐसी
    जोंक है जो
    अमरबेल सी
    लिपट जाती है
    फिर तो राम नाम की
    वीणा से ही
    मन विश्रांति पाता है'


    bahut bahut aabhar aapka.

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  8. YE MOH KI ESI JONK HAI, AMARBEL SI LIPAT JATI HAI . . . .BAHUT KHUB. . . . .
    JAI HIND JAI BHARAT

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  9. जीवन की गहनता और उसकी सघनता का अनुभव आध्यात्म में होता है. जीवन के एक पाट को खूबसूरती से चित्रित करती हुयी रचना.

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  10. स्वगत आलाप-प्रलाप की यह रचना बहुत खूब रही!
    सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  11. मन ही तो है....


    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

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  12. "मन रे....तू काहे न धीर धरे...!" मन सब कुछ जानते समझते भी नासमझ रहना चाहता है...खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  13. मोह से मुक्त होकर साधू ही न बन जाये. ये मानव मन का सबसे गहरा भाव है. तभी तो वह मोह के सागर में डूबता तिरता रहता है.

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  14. अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.

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  15. ये मोह की ऐसी
    जोंक है जो
    अमरबेल सी
    लिपट जाती है
    जब से ब्लॉग बनाया है आपको पढ़ती गई हूँ , जादू है कलम में

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  16. मन चंचल जो हे हर बार भुलावे मे आ जाता हे, बहुत सुंदर रचना, धन्यवाद

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  17. जीवन के सफर में मन का बन्धन...

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  18. मन की थाह लगाना कठिन है।
    कविता अच्छी लगी।

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  19. मन को समझाना आसान नहीं ...शुभकामनायें आपको !

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  20. ये मोह की ऐसी
    जोंक है जो
    अमरबेल सी
    लिपट जाती है
    फिर तो राम नाम की
    वीणा से ही
    मन विश्रांति पाता है...

    कितना भी कोशिश करो कहाँ छूट पाता है यह मोह का बंधन..बहुत सुन्दर और सार्थक रचना..आभार

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  21. मोह को मन कब समझ पाया है भला ...
    बेहतरीन अभिव्यक्ति

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आप सब के सहयोग और मार्गदर्शन की चाहत है।