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रविवार, 20 जनवरी 2013

ये तो था परदे के सामने का सच ……………


दिशाहीन सडकें , दिशाहीन राहें और चलना उम्रभर का । एक सी दिनचर्या ………वो ही खाना , पीना और सोना …………कुछ नही हो करने को ………ऐसे मे माध्यम बना सोशल मीडिया । चल पडी वो उस डगर पर खुद को अभिव्यक्त करने ………शुरुआत लडखडाते कदमों से , संभल - संभल कर जैसे कोई बच्चा पहली बार खडे होकर आगे कदम रखने की कोशिश करता हो …………बार- बार गिरना, ठोकर खाना और संभलना बिल्कुल ज़िन्दगी की तरह …………और एक दिन दौडने लगी ………छपास के रोग से पीडित हो गयी ………आये दिन छपने लगी, सराही जाने लगी क्योंकि सोच तो समय से परे थी , क्योंकि ठाठें मार रहा था एक सागर उसके सीने में अभिव्यक्त होने को, क्योंकि सच कहती थी चाहे कडवा होता था, क्योंकि खुद उस पीडा से गुजरती थी , खौलती थी , खदकती थी तब कहीं दे पाती थी शक्ल किताब को , तब कहीं जाकर फ़ूँक पाती थी प्राण निर्जीव शब्दों में और यही उसके लेखन की सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके कारण एक छोटी पहचान बना पायी थी  मगर फिर भी कुछ कमी सी थी जो अन्दर ही अन्दर खा रही थी वजूद को घुन की तरह …………शायद सोशल मीडिया माध्यम हो सकता है मगर मंज़िल नही ये समझ आ गया था और यहाँ भी तो जीवन एकतरफ़ा सा ही हो गया था उस मछली की तरह जिसे ज़ार मे डालो तो लगता है यही समुन्द्र है और बडे होने पर तालाब में डालो तो उसे लगता है यही सागर है मगर कुछ और बडा होने पर नदी मे डालो तो फिर उसी को सागर समझ बैठती है तब तक जब तक सागर मे नही उतरती है ………मगर वहाँ तक पहुँचने से पहले जरूरत है उसे उसके काबिल बनने की और यही वो घुन है जो उसकी छोटी- छोटी उपलब्धियों मे घुन बनकर बैठ गया है…………संतुष्ट नहीं है ………नहीं चाहियें उसे सिर्फ़ अपने सिर के ऊपर वाला आकाश, नही चाहिये उसे सिर्फ़ अपने घर के ऊपर वाला आकाश जो सीमित है उसकी निगाह की दूरी तक ………उसे तो चाहिए सारा आकाश जो असीमित है, अपरिमित है ………पह्चान की सीमा तक, उपलब्धि के आकाश तक ……


तब तक विद्रोह जारी है मेरे आकाश में …………मुझसे मेरा विद्रोह …………क्या पायेगा मुकाम………प्रश्नचिन्ह बन खडा है सम्मुख …………और मैं निरुत्तर हूँ …………भाग रही हूँ खुद से………और उपलब्धियों के आकाश का जगमगाता सितारा मैं नहीं ……मैं नहीं ………मैं नहीं ……

सोचते सोचते शुभ्रा हताशा के गहन अन्धकार मे डूब गयी………विलीन हो गयी सागर मे बूँद सी ………हमेशा हमेशा के लिये।

ये तो था परदे के सामने का सच ……………

मगर परदे के पीछे के सच को जानने के लिये खुद को बेपर्दा करना पडता है इसलिये वो नहीं कर पायी समझौता खुद से, आज की होड भरी दुनिया से, आज के दोगले चेहरों से, साहित्य के घटा जोड से, विवादों के दामन से, साहित्य के नाम पर फ़ैली दु्श्चरित्रता से, पैसे और पहुँच के दम पर सम्मान पाने के गुणा भाग से , खुद को प्रसिद्धि तक पहुँचाने के लिये अपनाये जाने वाले हथकंडों से फिर चाहे उसके लिये खुद की ही छीछालेदार क्योँ ना करवानी पडे या दूसरों एक चरित्र के बखिये ही क्यों ना उधेडने पडें या कुछ विवादास्पद ही क्यों ना लिखना पडे उन सी ग्रेड हीरोइनों की तरह जो जिस्म के बल पर पहचान बनाती हैं कुछ उसी तरह का लिखना नहीं लिख पायी , नही कर पायी समझौते उस आदिम सोच से जहाँ स्त्री होकर इतना कडवा सच उसने कैसे लिख दिया इसे उसे साबित करना पडे वो भी इस पुरुष सत्तात्मक साहित्यिक समाज में जिस पर सिर्फ़ उसका एकाधिकार है , कैसे उसकी कलम चल गयी बोल्ड विषयों पर और खोल दिये उसने सारे भेद जो बेशक पहले भी कहे गये हैं मगर हमेशा एक पुरुष द्वारा ही फिर चाहे कामसूत्र हो या उर्वशी या मेघदूत आखिर उसकी हिम्मत कैसे हुयी बोल्ड विषय पर लिखने की ……नहीं उतर पायी वस्त्रहीनता की आखिरी हद तक , नहीं अपना पायी ऐसे हथकंडे प्रसिद्धि के जंगल के ………क्योंकि
नही चुरा सकती थी वो सत्य से आँख
यदि चुरा लेती तो उम्र भर
नहीं मिला सकती थी खुद से आँख़

और इस तरह परदे के पीछे के भयावह सच के कारण एक उभरता सितारा हमेशा के लिये लुप्त हो गया और दे गया सूरज अपना ये आखिरी पैगाम अस्त होने से पहले ……

क्या किया ज़िन्दगी में
कुछ भी तो नहीं
क्या पाया ज़िन्दगी में
कुछ भी तो नहीं
क्या रही ज़िन्दगी की उपलब्धि
कुछ भी तो नहीं

ज़िन्दगी को जिया
बिना लक्ष्य
जो भी मिला
सब अनचाहा
खुद की चाहत क्या
पता नहीं या मिलती नहीं

अजीब उहापोह में भटकती है ज़िन्दगी
सिर्फ खाना , पीना और सोना
उससे इतर भी कुछ है
जिसकी हसरत में भटकती है ज़िन्दगी
मगर क्या ............यही नहीं जान पाते

अपनी पहचान क्या
कुछ भी तो नहीं
एक अदद पहचान के लिए
जूझती है ज़िन्दगी
मगर हर किसी को न मिलती है ज़िन्दगी

तलाश में हूँ ...............
भटकाव जारी है ..............
जाने किस पैमाने में जाकर छलकेगी ज़िन्दगी
तब तक
हाशिये पर खड़ी है ज़िन्दगी

पहचाने पाने को आतुर उपलब्धिहीन वजूद चिने हैं वक्त की सीमेंटिड दीवारों में …………

13 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना , आज के समाज की एक भयावाह तस्वीर दिखाते हुए तुम्हारी ये कहानी ! बहुत सार्थक बन पढ़ी हैऔर ऊपर से अंत में लिखी कविता इसे और शशक्त कर रही है . बधाई

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  2. पर्दे के पीछे का सच जानने के लिए खुद को बेपर्दा तो करना ही पड़ता है,समाज की आइना दिखाती सुंदर रचना।

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  3. वृहद संदर्भों में देखें तो उपलब्धि महत्व खो देती हैं मिलने के बाद..सुन्दर रचना।

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  4. जीवन का कटु सत्य है..सार्थक अभिवयक्ति......

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  5. तलाश ही पड़ाव है - कई छद्म कुरूप सत्य उभरते हैं, आलोचनाओं की धार पर भाव उतरते हैं - रक्त की धार से बेखबर
    ........ स्त्री लोगों का कुरेदा हुआ ज़ख्म है
    जिसे वक्त दर वक्त अलग अलग मरहम खुद तैयार कर
    वह अपने को सम्पूर्ण बनाती है ..... !
    सम्पूर्णता की तलाश .... माना - पूरी नहीं होती
    पर उदाहरण वह बनती है - अगली स्त्री के लिए !

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  6. सटीक आलेख...लाजवाब प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  7. वाह!
    आपकी यह पोस्ट कल दिनांक 21-01-2013 के चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  8. कहानी क्या ...कटु सत्य है .... बहुत अच्छी लगी यह प्रस्तुति

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  9. यही तो विडम्बना है!
    जीवनचर्या आजकल दिशाहीन बनती जा रही है!

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आप सब के सहयोग और मार्गदर्शन की चाहत है।