तुम अग्निवेश हो
कैसे मीमांसा करे कोई
जलाकर खाक करने की
तुम्हारी नियति रही
कैसे नव निर्माण करे कोई
विध्वंसता तुम्हारा गुण रहा
क्या हुआ जो कभी तुमने
रोटी को पकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
दूध को औंटा दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
यज्ञ को सम्पूर्ण किया
क्या हुआ जो कभी तुमने
ताप सेंकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
सहला दिया
रूप को प्रतिरूप किया
कभी वीभत्स तो कभी
रौद्र रूप दिखा दिया
तो कभी वर्षा ऋतु का
श्रृंगार किया
और नेह का मेह बरसा दिया
क्योंकि
नियमानुसार कहो या
परम्परानुसार तो
तुम्हें विनाश का ही है
दायित्व मिला
और अपने कर्त्तव्य से विमुख
होना तुमने कब है सीखा
दाहकता को प्रमाणित करने की
कब किसे जरूरत पड़ी
ताप ही काफी है महसूसने के लिए
फिर कहो तो ज़रा
कैसे तुम्हारी व्याख्या हो
तुम गौर ब्राह्मणीय नहीं
तुम कोई अवतार नहीं
एक अजस्र फैले व्यास के आधार नहीं
सब कुछ समा लेने की तुम्हारी नियति
अपने गर्भ में समेटता तुम्हारा
ओजपूर्ण विग्रह
एक श्वांस में समाहित करने की
तुम्हारी क्षमता
भयंकर आर्तनाद करती हुँकार
व्याकुलता , विह्वलता के साथ
समाहित भय के त्रिशूल
जीवन और जीव को भेदती
लपलपाती जिह्वा
दाढ़ों में फँसी कुंठाओं का
जीता जागता स्वरुप
काल के गाल में जाता
समय का पहिया
महाविनाश का तांडव करती
विनाशकारी रूपरेखा का
अद्भुत चमत्कृत सौंदर्य
दहलाती वाणी का आर्तनाद
कैसे तुम्हें व्याख्यातित किया जा सकता है
फिर किस बुनियाद पर तुम्हारा
आत्मावलोकन हो
क्योंकि
अग्निवेश से आवेष्ठित चरित्रों पर
छाँव नहीं हुआ करती ............दहकती दाहकता ही अवलोकित होती है
उस विरल विराट विग्रह के दर्शन यूँ ही नहीं हुआ करते
और अर्जुन बनना सभी की सामर्थ्य नहीं ............ओ केशव विराट रूप!!!
कैसे मीमांसा करे कोई
जलाकर खाक करने की
तुम्हारी नियति रही
कैसे नव निर्माण करे कोई
विध्वंसता तुम्हारा गुण रहा
क्या हुआ जो कभी तुमने
रोटी को पकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
दूध को औंटा दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
यज्ञ को सम्पूर्ण किया
क्या हुआ जो कभी तुमने
ताप सेंकने दिया
क्या हुआ जो कभी तुमने
सहला दिया
रूप को प्रतिरूप किया
कभी वीभत्स तो कभी
रौद्र रूप दिखा दिया
तो कभी वर्षा ऋतु का
श्रृंगार किया
और नेह का मेह बरसा दिया
क्योंकि
नियमानुसार कहो या
परम्परानुसार तो
तुम्हें विनाश का ही है
दायित्व मिला
और अपने कर्त्तव्य से विमुख
होना तुमने कब है सीखा
दाहकता को प्रमाणित करने की
कब किसे जरूरत पड़ी
ताप ही काफी है महसूसने के लिए
फिर कहो तो ज़रा
कैसे तुम्हारी व्याख्या हो
तुम गौर ब्राह्मणीय नहीं
तुम कोई अवतार नहीं
एक अजस्र फैले व्यास के आधार नहीं
सब कुछ समा लेने की तुम्हारी नियति
अपने गर्भ में समेटता तुम्हारा
ओजपूर्ण विग्रह
एक श्वांस में समाहित करने की
तुम्हारी क्षमता
भयंकर आर्तनाद करती हुँकार
व्याकुलता , विह्वलता के साथ
समाहित भय के त्रिशूल
जीवन और जीव को भेदती
लपलपाती जिह्वा
दाढ़ों में फँसी कुंठाओं का
जीता जागता स्वरुप
काल के गाल में जाता
समय का पहिया
महाविनाश का तांडव करती
विनाशकारी रूपरेखा का
अद्भुत चमत्कृत सौंदर्य
दहलाती वाणी का आर्तनाद
कैसे तुम्हें व्याख्यातित किया जा सकता है
फिर किस बुनियाद पर तुम्हारा
आत्मावलोकन हो
क्योंकि
अग्निवेश से आवेष्ठित चरित्रों पर
छाँव नहीं हुआ करती ............दहकती दाहकता ही अवलोकित होती है
उस विरल विराट विग्रह के दर्शन यूँ ही नहीं हुआ करते
और अर्जुन बनना सभी की सामर्थ्य नहीं ............ओ केशव विराट रूप!!!
विनाश के साथ नव निर्माण भी तो करते हैं ....
जवाब देंहटाएंपूरी कविता पढी, अच्छी लगी, कविता में महसूसने के साथ ही कुछ आंचिलक शब्दों के प्रयोग इसे और समृद्ध करते हैं और महसूसने की क्षमता में वृद्धि भी, आभार
जवाब देंहटाएंअर्जुन बनना सबकी सामर्थ्य नहीं है, विराट रूप बस वही सम्हाल सकेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर..!
प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति ...बहुत खूब
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जवाब देंहटाएंविनाश और श्रृष्टि दो हाथ है विराट कृष्ण के,
परे है मनुष्य के बुद्धि विवेक से,
latest post कोल्हू के बैल
क्या वर्णन है.... केशव विराट रूप का...
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
ADBHUT - SUNDAR - CHITNEEY
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