लोग पूछते हैं कैसे हो और मैं कह देती हूँ बढिया हूँ
अब कैसे बताऊँ जी की दशा ,कौन समझेगा यहाँ
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............
मुंडेर पर काक कोई आता नहीं
पिया का संदेसा लाता नहीं
हिलोरें दिल में उठती नहीं
बेचैनी किसी खंजर से कटती नहीं
सखि , किसे कहूँ मैं मन की दशा
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............
ग्रीष्म का ताप अखरता नहीं
आंतरिक ताप भाप बन उड़ता नहीं
यादों की लू भी लगती नहीं
सांकल कोई बजती नहीं
सखी , कैसे पाऊँ उनका पता
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............
बांसुरी कोई बजती नहीं
वेदना ह्रदय की मिटती नहीं
विरह के बादल छंटते नहीं
प्रीत के मनके पिरते नहीं
सखी , माला मैं कैसे गूंथूं बता
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............
वेदना को स्वर देकर सचेत करने का आपका एक प्रयास अच्छा है।
जवाब देंहटाएंलाजवाब कविता. धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव ,सुन्दर प्रस्तुति
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मुखर होती वेदना..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मुखरित विरह वेदना...... ...
जवाब देंहटाएंek virah rachna maine bhee likhi hai....aapke jaisee to nahee lekin aapko pasand aayegee shaayad..
जवाब देंहटाएंmeri nayi post pe aapka swaagat hai: http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2013/06/blog-post.html
आस,उलाहना,विरह और प्रेम का सुन्दर संगम , अति सुन्दर । डी पी माथुर
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